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"ये लोग होते कौन हैं आपको रोकने वाले? ऐसे कैसे बन्द कर देंगे? उन्होने कहा और आप सब ने मान लिया? चोर, डाकू, जेबकतरे सब तो खुलेआम घूमते रह्ते हैं इन्हीं सडकों पर... सारी दुश्मनी सिर्फ रिक्शा से निकाल रहे हैं? इसी रिक्शे की बदौलत शहर भर में हज़ारों गरीबों के घर चल रहे हैं। और उनका क्या जो अपने स्कूल, दुकान, और दफ्तर तक रिक्शा से जाते हैं? क्या वे सब लोग अब कार खरीद लेंगे?"
छोटा बेटा रामसिंह बहुत गुस्से में था। गुस्से मे तो हरिया खुद भी था परंतु वह अब इतना समझदार था कि अपने आंसू पीना जानता था। लेकिन बेचारे बच्चों को दुनिया की समझ ही कहाँ होती है? वे तो सोचते हैं कि संसारमें सब कुछ न्याय के अनुसार हो। और फिर रामसिंह तो शुरू से ही ऐसा है। कहीं भी कुछ भी गलत हो रहा हो, उसे सहन नहीं होता है, बहुत गुस्सा आता है।
इस दुख की घड़ी में जब हरिया बडी मुश्किल से अपनी हताशा को छिपा रहा है, उसे अपने बेटे पर गर्व भी हो रहा है और प्यार भी आ रहा है। हरिया को लग रहा है कि बस दो चार साल रिक्शा चलाने की मोहलत और मिल गयी होती तो इतना पैसा बचा लेता कि रामसिंह को स्कूल भेजना शुरू कर देता। अब तो लगता है कि अपना सब सामान रिक्शे पर लादकर किसी छोटे शहर का रास्ता पकडना पडेगा।
“अगर सभी रिक्शेवाले एक हो जायें और यह गलत हुक्म मानने से मना कर दें तो सरकार चाहे कितनी भी ज़ालिम हो उन्हें रोक नहीं पायेगी” अभी चुप नहीं हुआ है रामसिंह।
उसे इस तरह गुस्से मे देखकर हरिया को तीस साल पुरानी बात याद आती है। हरिया यहाँ नहीं है, इतना बडा भी नहीं हुआ है। वह बिल्कुल अपने छोटे से राम के बराबर है, बल्कि और भी छोटा। गांव की पुरानी झोंपडी मे खपडैल के बाहर अधनंगा खडा है। पिताजी मुँह लटकाये चले आ रहे हैं। वह हमेशा की तरह खुश होकर उनकी गोद में चढने के लिये दौडता हुआ आगे बढता है। उसे गोद में लेने के बजाय पिताजी खुद ही ज़मीन पर उकडूँ बैठ जाते हैं। पिताजी की आंख में आंसू है। माँ तो खाना बनाते समय रोज़ ही रोती है मगर पिताजी तो कभी नहीं रोते। तो आज क्यूं रो रहे हैं। वह अपने नन्हें हाथों से उनके आंसू पोछ्कर पूछ्ता है, “क्या हुआ बाबा? रोते क्यों हो?”
“हमें अपना घर, यह गांव छोडकर जाना पडेगा बेटा हरिराम” पिताजी ने बताया ।
पूछ्ने पर पता लगा था कि उनके गांव और आसपास के सारे गांव डुबोकर बांध बनाया जाने वाला था।
नन्हा हरिया नहीं जानता था कि बांध क्या होता है। लेकिन उस वय में भी उसे यह बात समझ आ गयी थी कि यह उसके घर-द्वार, कोठार, नीम, शमी, खेत और गाँव को डुबोने की योजना है। कोई उसके घर को डुबोने वाला है, यह ख़याल ही उसे गुस्सा दिलाने के लिए काफी था। फिर भी उसने पिताजी से कई सवाल पूछे।
"ये लोग कौन हैं जो हमारा गाँव डुबो देंगे?"
"ये सरकार है बेटा, उनके ऊपर सारे देश की ज़िम्मेदारी है।"
"ज़िम्मेदार लोग हमें बेघर क्यों करेंगे? वे हत्यारे कैसे हो सकते हैं?" हरिया ने पूछा।
"वे हत्यारे नहीं हैं, वे सरकार हैं। बाँध से पानी मिलेगा, सिंचाई होगी, बिजली बनेगी, खुशहाली आयेगी।"
"सरकार कहाँ रहती है?"
"बड़े-बड़े शहरों में - कानपुर, कलकत्ता, दिल्ली।"
"बिजली कहाँ जलेगी?
"उन्हीं बड़े-बड़े शहरों में - कानपुर, कलकत्ता, दिल्ली।"
"तो फिर बांध के लिए कानपुर कलकत्ता दिल्ली को क्यों नहीं डुबाते हैं ये लोग? हमें ही क्यों जाना पडेगा घर छोड़कर?"
"ये त्याग है बेटा। अम्मा ने दधीचि और पन्ना धाय की कहानियाँ सुनाई थी, याद है?"
"सरकार त्याग क्यों नहीं करती है? तब भी हमने ही किया था। अब भी हम ही करें?"
पिताजी अवाक अपने हरिराम को देख रहे थे। ठीक वैसे ही जैसे आज वह अपने रामसिंह को देख रहा है। हरिया ने अपनी बाँह से आँख पोंछ ली. रामसिंह अभी भी गुस्से में बोलता जा रहा था। रधिया एक कोने में बैठकर खाने के डब्बों को पुरानी चादर में बांध रही थी। ठीक वैसी ही दुबली और कमज़ोर जैसे अम्मा दिखती थी तीस साल पहले।
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सम्बन्धित आलेख
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(बांधों को तोड़ दो - ऑडियो)
जल सत्याग्रह - मध्य प्रदेश का घोगल ग्राम
संता क्लाज़ की हकीकत
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बांधों को तोड़ दो (उपन्यास अंश)
"ये लोग होते कौन हैं आपको रोकने वाले? ऐसे कैसे बन्द कर देंगे? उन्होने कहा और आप सब ने मान लिया? चोर, डाकू, जेबकतरे सब तो खुलेआम घूमते रह्ते हैं इन्हीं सडकों पर... सारी दुश्मनी सिर्फ रिक्शा से निकाल रहे हैं? इसी रिक्शे की बदौलत शहर भर में हज़ारों गरीबों के घर चल रहे हैं। और उनका क्या जो अपने स्कूल, दुकान, और दफ्तर तक रिक्शा से जाते हैं? क्या वे सब लोग अब कार खरीद लेंगे?"
छोटा बेटा रामसिंह बहुत गुस्से में था। गुस्से मे तो हरिया खुद भी था परंतु वह अब इतना समझदार था कि अपने आंसू पीना जानता था। लेकिन बेचारे बच्चों को दुनिया की समझ ही कहाँ होती है? वे तो सोचते हैं कि संसारमें सब कुछ न्याय के अनुसार हो। और फिर रामसिंह तो शुरू से ही ऐसा है। कहीं भी कुछ भी गलत हो रहा हो, उसे सहन नहीं होता है, बहुत गुस्सा आता है।
इस दुख की घड़ी में जब हरिया बडी मुश्किल से अपनी हताशा को छिपा रहा है, उसे अपने बेटे पर गर्व भी हो रहा है और प्यार भी आ रहा है। हरिया को लग रहा है कि बस दो चार साल रिक्शा चलाने की मोहलत और मिल गयी होती तो इतना पैसा बचा लेता कि रामसिंह को स्कूल भेजना शुरू कर देता। अब तो लगता है कि अपना सब सामान रिक्शे पर लादकर किसी छोटे शहर का रास्ता पकडना पडेगा।
“अगर सभी रिक्शेवाले एक हो जायें और यह गलत हुक्म मानने से मना कर दें तो सरकार चाहे कितनी भी ज़ालिम हो उन्हें रोक नहीं पायेगी” अभी चुप नहीं हुआ है रामसिंह।
उसे इस तरह गुस्से मे देखकर हरिया को तीस साल पुरानी बात याद आती है। हरिया यहाँ नहीं है, इतना बडा भी नहीं हुआ है। वह बिल्कुल अपने छोटे से राम के बराबर है, बल्कि और भी छोटा। गांव की पुरानी झोंपडी मे खपडैल के बाहर अधनंगा खडा है। पिताजी मुँह लटकाये चले आ रहे हैं। वह हमेशा की तरह खुश होकर उनकी गोद में चढने के लिये दौडता हुआ आगे बढता है। उसे गोद में लेने के बजाय पिताजी खुद ही ज़मीन पर उकडूँ बैठ जाते हैं। पिताजी की आंख में आंसू है। माँ तो खाना बनाते समय रोज़ ही रोती है मगर पिताजी तो कभी नहीं रोते। तो आज क्यूं रो रहे हैं। वह अपने नन्हें हाथों से उनके आंसू पोछ्कर पूछ्ता है, “क्या हुआ बाबा? रोते क्यों हो?”
“हमें अपना घर, यह गांव छोडकर जाना पडेगा बेटा हरिराम” पिताजी ने बताया ।
पूछ्ने पर पता लगा था कि उनके गांव और आसपास के सारे गांव डुबोकर बांध बनाया जाने वाला था।
नन्हा हरिया नहीं जानता था कि बांध क्या होता है। लेकिन उस वय में भी उसे यह बात समझ आ गयी थी कि यह उसके घर-द्वार, कोठार, नीम, शमी, खेत और गाँव को डुबोने की योजना है। कोई उसके घर को डुबोने वाला है, यह ख़याल ही उसे गुस्सा दिलाने के लिए काफी था। फिर भी उसने पिताजी से कई सवाल पूछे।
"ये लोग कौन हैं जो हमारा गाँव डुबो देंगे?"
"ये सरकार है बेटा, उनके ऊपर सारे देश की ज़िम्मेदारी है।"
"ज़िम्मेदार लोग हमें बेघर क्यों करेंगे? वे हत्यारे कैसे हो सकते हैं?" हरिया ने पूछा।
"वे हत्यारे नहीं हैं, वे सरकार हैं। बाँध से पानी मिलेगा, सिंचाई होगी, बिजली बनेगी, खुशहाली आयेगी।"
"सरकार कहाँ रहती है?"
"बड़े-बड़े शहरों में - कानपुर, कलकत्ता, दिल्ली।"
"बिजली कहाँ जलेगी?
"उन्हीं बड़े-बड़े शहरों में - कानपुर, कलकत्ता, दिल्ली।"
"तो फिर बांध के लिए कानपुर कलकत्ता दिल्ली को क्यों नहीं डुबाते हैं ये लोग? हमें ही क्यों जाना पडेगा घर छोड़कर?"
"ये त्याग है बेटा। अम्मा ने दधीचि और पन्ना धाय की कहानियाँ सुनाई थी, याद है?"
"सरकार त्याग क्यों नहीं करती है? तब भी हमने ही किया था। अब भी हम ही करें?"
पिताजी अवाक अपने हरिराम को देख रहे थे। ठीक वैसे ही जैसे आज वह अपने रामसिंह को देख रहा है। हरिया ने अपनी बाँह से आँख पोंछ ली. रामसिंह अभी भी गुस्से में बोलता जा रहा था। रधिया एक कोने में बैठकर खाने के डब्बों को पुरानी चादर में बांध रही थी। ठीक वैसी ही दुबली और कमज़ोर जैसे अम्मा दिखती थी तीस साल पहले।
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सम्बन्धित आलेख
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(बांधों को तोड़ दो - ऑडियो)
जल सत्याग्रह - मध्य प्रदेश का घोगल ग्राम
संता क्लाज़ की हकीकत
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बांधों को तोड़ दो (उपन्यास अंश)
सुन्दर कहानी. बस अंतिम पैरा में हरी सिंह नहीं राम सिंह कर दें
ReplyDeleteधन्यवाद पाण्डेय जी!
ReplyDeleteगरीबों के साथ सरकार की ज्यादती की कहानी नई नहीं है.. बड़े अच्छे से आपने इस मार्मिक घटना के अंश को उद्धृत किया.. शुरुआत में राम सिंह है और बाद में हरी सिंह.. वो ठीक कर लीजियेगा सर..
ReplyDeleteBalwaanon ko gar gyan ho jaye to phir kya chahiye...na hogi sanmati to phir nirbal ki durgati honihi hai.
ReplyDeleteदिल्ली क्यों नहीं डूबती। कितना सही लिखा है आपने। ये तो डूबती है तब जब कोई नादिरशाह इसे झुकाता है। मुंबई तो तब भी नहीं डूबी जब राज ठाकरे पैदा होता है। उससे चालीस साल पहले बाल ठाकरे। एक ही देश में रहने वाले लोग आपस में खून बहाने को तैयार हो जाते इनके कहने पर तब भी नहीं डूबते ये शहर।
ReplyDeleteआजकल दिल्ली में तांगे वालों को इसलिए उजाड़ा जा रहा है ताकि कारों को जगह मिल सके। क्या कहने।
बहुत ही मार्मिक कथानक...
ReplyDeleteअनुराग जी आप कहानी बहुत अच्छा लिखते हैं...
सच में ...
बहुत बढ़िया कहानी प्रस्तुत करने के लिए आभार
ReplyDelete"सरकार त्याग क्यों नहीं करती है? तब भी हमने ही किया था। अब भी हम ही करें?"
ReplyDeleteअब उसे कौन समझाये कि पन्ना धाय को ही त्याग करनी पड़ती है.
बहुत सुन्दर कहानी ..
यह कैसा त्याग ? बढियां लगी कहानी !
ReplyDeleteबेहतरीन लगी कहानी!!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर कहानी व तार्किक प्रस्तुति ।
ReplyDeleteदधीचि सिर्फ़ आमजन को ही बनना है, इन्द्र तो कपट भी करेंगे, छलेंगे भी लेकिन हैं तो शासन के ही प्रतिनिधि।
ReplyDeleteअनुराग सर, बहुत मार्मिक चित्रण।
आभार।
कथानक कथ्य और शिलप बेहद प्रभावशाली और उत्कृ्ष्ट । बधाई इस कहानी अंश के लिये।
ReplyDeleteसरकार त्याग क्यों नहीं करती है? तब भी हमने ही किया था। अब भी हम ही करें?"
ReplyDelete" बेहद सुन्दर और यथार्थ का आईना ब्यान करती ये कहानी कितने लोगो की बेबसी समेटे है अपने अन्दर......और सरकार..... सच कहा "
"सरकार कहाँ रहती है?"
regards
दिल्ली और कलकत्ता के बीच कानपुर का जिक्र जमता नहीं। मेरी जानकारी में कानपुर में बिजली की हालत बहुत ज्यादा बुरी है। कानपुर नए उपभोक्तावाद का शहर नहीं है।
ReplyDelete"ये लोग कौन हैं जो हमारा गाँव डुबो देंगे?"
ReplyDelete"ये सरकार है बेटा, उनके ऊपर सारे देश की ज़िम्मेदारी है।"
"ज़िम्मेदार लोग हमें बेघर क्यों करेंगे? वे हत्यारे कैसे हो सकते हैं?" हरिया ने पूछा।
"वे हत्यारे नहीं हैं, वे सरकार हैं। बाँध से पानी मिलेगा, सिंचाई होगी, बिजली बनेगी, खुशहाली आयेगी।"
"सरकार कहाँ रहती है?"
"बड़े-बड़े शहरों में - कानपुर, कलकत्ता, दिल्ली।"
"बिजली कहाँ जलेगी?
"उन्हीं बड़े-बड़े शहरों में - कानपुर, कलकत्ता, दिल्ली।"
"तो फिर बांध के लिए कानपुर कलकत्ता दिल्ली को क्यों नहीं डुबाते हैं ये लोग?
Sundar Saar grabhit kahaanee !
बेहतरीन कथा शिल्प्…………………मार्मिक प्रस्तुति।
ReplyDeleteबहुत ही संवेदनशील कहानी...विस्थापितों के दर्द और आक्रोश को बहुत अच्छे से अभिव्यक्त करती हुई...
ReplyDeleteसच मे बांधो को तोड ही देना चाहिये
ReplyDeleteसच मे बांधो को तोड ही देना चाहिये
ReplyDeletemarmik katha .panna dhay ke tyag ko sab mhima mndit karte hai kintu uske ansuo ko kaoun smjh paya ?
ReplyDeleteवास्तविकता और फैंटेसी के बीच डोलने के लिए पाठक को स्पेस देने की कलात्मक युक्ति इसकी विशिष्टता है।
ReplyDeleteमार्मिक ... ऐसा ही गुस्सा कई लोगों के दिल में रहता है ... सदियों से ये हो रहा है .. सरकार / (राजा वर्ग) कभी त्याग नही करता .... बहुत अच्छी कहानी ...
ReplyDeleteसहज प्रवाह युक्त कहानी बाकी सरकार तो सरकार है थोडा सरकार का जलवा मेरि नई कविता में भी देख लीजियेगा
ReplyDeleteVery touching story..
ReplyDeleteI wish to read entire novel. Is it available? How can I read it?
@Swaminathan said...
ReplyDeleteVery touching story..
I wish to read entire novel. Is it available? How can I read it?
स्वामिनाथन जी,
यदि आप मुझे अपना पता ईमेल करेंगे तो मैं यह उपन्यास पूरा होते ही सबसे पहले आप को भिजवाने की व्यवस्था करूंगा
कहीं पढ़ा था कि भारत में आजादी के बाद नेहरु ने एक घोषणा की कि हम बाँध बनायेंगे और उससे देश का विकास होगा. फिर लगभग हर संसद सदस्य और नेता, मंत्री ये सोचते की विकास के लिए अपने क्षेत्र में एक बाँध बनवाना चाहिए... और जितने भी बाँध बने कभी कोई आकलन या पूर्व अध्ययन नहीं हुआ कि कोई लाभ भी होगा या नहीं. कितने का नुकसान होगा ये तो खैर सोचता ही कौन है. आपसे हस्ताक्षरित प्रति लेनी पड़ेगी इस उपन्यास की.
ReplyDeleteबहुत मार्मिक कहानी है। कमजोर सदा विस्थापित होता है।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
आप तोड़िए हम बहने को तैयार हैं :)
ReplyDeleteपहली कुछ टिप्पणियों से ही पता चल जाता है कि बहुत अच्छे लोग बहुत बारीकी से पढ़ रहे हैं।
जी आपका बहुत शुक्रिया आपने बड़ी गलती कि तरफ ध्यान दिला दिया हमने वो गलती सुधर ली है !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर तरीकेसे वर्णन किया है आपने .... हमेशा गाव ही डुबाये जाते है ना की शहर
और एक सरकार जाये तो क्या दूसरी उसकी बहन ही तो होती है ...एक एक हमारे देश कि बहुत बड़ी समस्या है जन विकास से जादा सरकार या नेतागण खुद के विकास को जादा महत्त्व देती है !
Very touching, and sad. But, why this " dilli/ kanpur etc ko kyon nahi dubote"
ReplyDeleteits natural/ ok for a kid from the suffering family to think like that. But, only
"sarkar" doesn't stay at these places. People there too are people like us, who breathe, love, worry, suffer... :(