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Wednesday, June 16, 2010

बांधों को तोड़ दो - एक कहानी

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"ये लोग होते कौन हैं आपको रोकने वाले? ऐसे कैसे बन्द कर देंगे? उन्होने कहा और आप सब ने मान लिया? चोर, डाकू, जेबकतरे सब तो खुलेआम घूमते रह्ते हैं इन्हीं सडकों पर... सारी दुश्मनी सिर्फ रिक्शा से निकाल रहे हैं? इसी रिक्शे की बदौलत शहर भर में हज़ारों गरीबों के घर चल रहे हैं। और उनका क्या जो अपने स्कूल, दुकान, और दफ्तर तक रिक्शा से जाते हैं? क्या वे सब लोग अब कार खरीद लेंगे?"

छोटा बेटा रामसिंह बहुत गुस्से में था। गुस्से मे तो हरिया खुद भी था परंतु वह अब इतना समझदार था कि अपने आंसू पीना जानता था। लेकिन बेचारे बच्चों को दुनिया की समझ ही कहाँ होती है? वे तो सोचते हैं कि संसारमें सब कुछ न्याय के अनुसार हो। और फिर रामसिंह तो शुरू से ही ऐसा है। कहीं भी कुछ भी गलत हो रहा हो, उसे सहन नहीं होता है, बहुत गुस्सा आता है।

इस दुख की घड़ी में जब हरिया बडी मुश्किल से अपनी हताशा को छिपा रहा है, उसे अपने बेटे पर गर्व भी हो रहा है और प्यार भी आ रहा है। हरिया को लग रहा है कि बस दो चार साल रिक्शा चलाने की मोहलत और मिल गयी होती तो इतना पैसा बचा लेता कि रामसिंह को स्कूल भेजना शुरू कर देता। अब तो लगता है कि अपना सब सामान रिक्शे पर लादकर किसी छोटे शहर का रास्ता पकडना पडेगा।

“अगर सभी रिक्शेवाले एक हो जायें और यह गलत हुक्म मानने से मना कर दें तो सरकार चाहे कितनी भी ज़ालिम हो उन्हें रोक नहीं पायेगी” अभी चुप नहीं हुआ है रामसिंह।

उसे इस तरह गुस्से मे देखकर हरिया को तीस साल पुरानी बात याद आती है। हरिया यहाँ नहीं है, इतना बडा भी नहीं हुआ है। वह बिल्कुल अपने छोटे से राम के बराबर है, बल्कि और भी छोटा। गांव की पुरानी झोंपडी मे खपडैल के बाहर अधनंगा खडा है। पिताजी मुँह लटकाये चले आ रहे हैं। वह हमेशा की तरह खुश होकर उनकी गोद में चढने के लिये दौडता हुआ आगे बढता है। उसे गोद में लेने के बजाय पिताजी खुद ही ज़मीन पर उकडूँ बैठ जाते हैं। पिताजी की आंख में आंसू है। माँ तो खाना बनाते समय रोज़ ही रोती है मगर पिताजी तो कभी नहीं रोते। तो आज क्यूं रो रहे हैं। वह अपने नन्हें हाथों से उनके आंसू पोछ्कर पूछ्ता है, “क्या हुआ बाबा? रोते क्यों हो?”

“हमें अपना घर, यह गांव छोडकर जाना पडेगा बेटा हरिराम” पिताजी ने बताया ।

पूछ्ने पर पता लगा था कि उनके गांव और आसपास के सारे गांव डुबोकर बांध बनाया जाने वाला था।
नन्हा हरिया नहीं जानता था कि बांध क्या होता है। लेकिन उस वय में भी उसे यह बात समझ आ गयी थी कि यह उसके घर-द्वार, कोठार, नीम, शमी, खेत और गाँव को डुबोने की योजना है। कोई उसके घर को डुबोने वाला है, यह ख़याल ही उसे गुस्सा दिलाने के लिए काफी था। फिर भी उसने पिताजी से कई सवाल पूछे।

"ये लोग कौन हैं जो हमारा गाँव डुबो देंगे?"

"ये सरकार है बेटा, उनके ऊपर सारे देश की ज़िम्मेदारी है।"

"ज़िम्मेदार लोग हमें बेघर क्यों करेंगे? वे हत्यारे कैसे हो सकते हैं?" हरिया ने पूछा।

"वे हत्यारे नहीं हैं, वे सरकार हैं। बाँध से पानी मिलेगा, सिंचाई होगी, बिजली बनेगी, खुशहाली आयेगी।"

"सरकार कहाँ रहती है?"

"बड़े-बड़े शहरों में - कानपुर, कलकत्ता, दिल्ली।"

"बिजली कहाँ जलेगी?

"उन्हीं बड़े-बड़े शहरों में - कानपुर, कलकत्ता, दिल्ली।"

"तो फिर बांध के लिए कानपुर कलकत्ता दिल्ली को क्यों नहीं डुबाते हैं ये लोग? हमें ही क्यों जाना पडेगा घर छोड़कर?"

"ये त्याग है बेटा। अम्मा ने दधीचि और पन्ना धाय की कहानियाँ सुनाई थी, याद है?"

"सरकार त्याग क्यों नहीं करती है? तब भी हमने ही किया था। अब भी हम ही करें?"

पिताजी अवाक अपने हरिराम को देख रहे थे। ठीक वैसे ही जैसे आज वह अपने रामसिंह को देख रहा है। हरिया ने अपनी बाँह से आँख पोंछ ली. रामसिंह अभी भी गुस्से में बोलता जा रहा था। रधिया एक कोने में बैठकर खाने के डब्बों को पुरानी चादर में बांध रही थी। ठीक वैसी ही दुबली और कमज़ोर जैसे अम्मा दिखती थी तीस साल पहले।

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(बांधों को तोड़ दो - ऑडियो)

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बांधों को तोड़ दो (उपन्यास अंश)