टिकिट, टिकिट, टिकिट... और कोई बगैर टिकिट... जल्दी-जल्दी करो... चेकिंग स्टाफ चढ़ेगा आगे से...बे कोई रियायत ना करै हैं ... हाँ भाई... दिल्ली वाले.... जे गठरी किसकी है? इसका टिकिट लगेगा...
कंडक्टर ने शोर मचा-मचा कर नाक में दम कर दिया था। तीन घंटे भी किसी सवारी को चैन से बैठने नहीं दिया बस में। तुम सुनतीं तो कहतीं कि मैंने ज़रूर उठकर उसको एक थप्पड़ जड़ा होगा। यही तो, मैंने कुछ नहीं किया। बहुत बदल गया हूँ मैं। वैसे भी जब तुम्हारे बारे में सोच रहा होता हूँ, तब मेरे आसपास का कुछ भी मुझे बुरा नहीं लगता है। कोई सुने तो आश्चर्य करेगा। दूर क्यों जाती हो, अभी की ही बात करो न! अब दिल्ली जा तो रहा हूँ संजय को मिलने, और सोच रहा हूँ तुम्हारे बारे में। मुझे बिलकुल आश्चर्य नहीं होता है। जब भी दिल्ली का ज़िक्र आता है, मेरी आँखों के सामने बस तुम्हारा चेहरा रह जाता है। मेरे लिए दिल्ली और तुम, एक ही हो। सारे रास्ते मेरे चेहरे पर जो मुस्कान ठहरी हुई है, वह भी तुम्हारे नाम की है। कौन कहता है कि एक स्त्री और पुरुष में सिर्फ विशुद्ध मैत्री नहीं रह सकती है। हम दोनों में तो हमेशा ही रही है।
कोई-कोई विद्वान कहते हैं कि दोस्ती भी दर-असल एक व्यवसाय जैसी ही होती है। जिस पक्ष को उससे लाभ मिलता है, वह उसे बढ़ाना चाहता है और जिसकी हानि हो वह उस सम्बन्ध को तोड़ना चाहता है। आखिर में वही दोस्ती टिकती है जिसमें या तो दोनों पक्षों का लाभ हो या फिर दोनों ही लाभ-हानि से ऊपर हों। क्या हमारे सम्बन्ध में ऐसा तत्व रहा है? तुम तो हमेशा ही मेरी उपेक्षा करती थीं। नहीं, हमेशा नहीं। जटिल है यह रिश्ता। फिर से सोचता हूँ। तुम अक्सर मेरी उपेक्षा करती थीं। लेकिन जब तुम किसी भी मुश्किल में होती थीं तब तुम्हें एक ही दोस्त याद आता था, मैं। और मैं, मैं तो शुरू से ही पागल हूँ। तुम्हारी हर बात मुझे अकारण ही अच्छी लगती थी। तुम्हारा साथ, तुम्हारी मुस्कान, तुम्हारा गुस्सा, सब कुछ। तुमने कितने काम सिर्फ इसलिए किये कि मुझे सता सको। लेकिन बात कभी बन न सकी।
याद है जब तुमने अपने दिल्ली तबादले की बात पर विमर्श करने के लिए मुझे अपने दफ्तर के बाहर बुलाया था। शाम का खाना भी हमने साथ ही खाया था। बारिश की रात में हम दोनों भीगते हुए टाउन हाल तक आये थे। उस समय तक तुम काफी खुश दिखने लगी थीं। टैक्सी के इंतज़ार में हम दोनों टाउन हाल के बाहर खुले आकाश के नीचे खड़े थे। तुम्हें घर जाने में देर हो गयी थी। बात करते-करते तुम शायद मुझे चिढ़ाने के लिए वह किस्सा दसवीं बार सुनाने लगीं जब बस में मिला एक अनजान खूबसूरत नौजवान तुम्हारी हाथ की रेखाएँ देखकर तुम्हारे बारे में बहुत से अच्छी-अच्छी बातें बताने लगा था। तुमने अपना हाथ मेरी तरफ बढाते हुए कहा था, "मैंने सुना है तुम बहुत अच्छा हाथ देखते हो, ज़रा कुछ बताओ न!" मैं उस दिन काफी उलझन में था। जल्दी घर पहुँचना ज़रूरी था। मगर रात में तुम्हें अकेला छोड़कर नहीं जा सकता था। तब तुम जैसी नाज़ुक थीं, देर तक बारिश में खड़े रहने पर तुम्हारे भीग कर बीमार पड़ जाने का डर भी था। तुम्हारी बात सुनते-सुनते ही मैंने बस इतना ही कहा था, "टैक्सी नहीं दिखती है तो आगे चलकर बस ही ले लेते हैं।"
कंडक्टर ने शोर मचा-मचा कर नाक में दम कर दिया था। तीन घंटे भी किसी सवारी को चैन से बैठने नहीं दिया बस में। तुम सुनतीं तो कहतीं कि मैंने ज़रूर उठकर उसको एक थप्पड़ जड़ा होगा। यही तो, मैंने कुछ नहीं किया। बहुत बदल गया हूँ मैं। वैसे भी जब तुम्हारे बारे में सोच रहा होता हूँ, तब मेरे आसपास का कुछ भी मुझे बुरा नहीं लगता है। कोई सुने तो आश्चर्य करेगा। दूर क्यों जाती हो, अभी की ही बात करो न! अब दिल्ली जा तो रहा हूँ संजय को मिलने, और सोच रहा हूँ तुम्हारे बारे में। मुझे बिलकुल आश्चर्य नहीं होता है। जब भी दिल्ली का ज़िक्र आता है, मेरी आँखों के सामने बस तुम्हारा चेहरा रह जाता है। मेरे लिए दिल्ली और तुम, एक ही हो। सारे रास्ते मेरे चेहरे पर जो मुस्कान ठहरी हुई है, वह भी तुम्हारे नाम की है। कौन कहता है कि एक स्त्री और पुरुष में सिर्फ विशुद्ध मैत्री नहीं रह सकती है। हम दोनों में तो हमेशा ही रही है।
कोई-कोई विद्वान कहते हैं कि दोस्ती भी दर-असल एक व्यवसाय जैसी ही होती है। जिस पक्ष को उससे लाभ मिलता है, वह उसे बढ़ाना चाहता है और जिसकी हानि हो वह उस सम्बन्ध को तोड़ना चाहता है। आखिर में वही दोस्ती टिकती है जिसमें या तो दोनों पक्षों का लाभ हो या फिर दोनों ही लाभ-हानि से ऊपर हों। क्या हमारे सम्बन्ध में ऐसा तत्व रहा है? तुम तो हमेशा ही मेरी उपेक्षा करती थीं। नहीं, हमेशा नहीं। जटिल है यह रिश्ता। फिर से सोचता हूँ। तुम अक्सर मेरी उपेक्षा करती थीं। लेकिन जब तुम किसी भी मुश्किल में होती थीं तब तुम्हें एक ही दोस्त याद आता था, मैं। और मैं, मैं तो शुरू से ही पागल हूँ। तुम्हारी हर बात मुझे अकारण ही अच्छी लगती थी। तुम्हारा साथ, तुम्हारी मुस्कान, तुम्हारा गुस्सा, सब कुछ। तुमने कितने काम सिर्फ इसलिए किये कि मुझे सता सको। लेकिन बात कभी बन न सकी।
याद है जब तुमने अपने दिल्ली तबादले की बात पर विमर्श करने के लिए मुझे अपने दफ्तर के बाहर बुलाया था। शाम का खाना भी हमने साथ ही खाया था। बारिश की रात में हम दोनों भीगते हुए टाउन हाल तक आये थे। उस समय तक तुम काफी खुश दिखने लगी थीं। टैक्सी के इंतज़ार में हम दोनों टाउन हाल के बाहर खुले आकाश के नीचे खड़े थे। तुम्हें घर जाने में देर हो गयी थी। बात करते-करते तुम शायद मुझे चिढ़ाने के लिए वह किस्सा दसवीं बार सुनाने लगीं जब बस में मिला एक अनजान खूबसूरत नौजवान तुम्हारी हाथ की रेखाएँ देखकर तुम्हारे बारे में बहुत से अच्छी-अच्छी बातें बताने लगा था। तुमने अपना हाथ मेरी तरफ बढाते हुए कहा था, "मैंने सुना है तुम बहुत अच्छा हाथ देखते हो, ज़रा कुछ बताओ न!" मैं उस दिन काफी उलझन में था। जल्दी घर पहुँचना ज़रूरी था। मगर रात में तुम्हें अकेला छोड़कर नहीं जा सकता था। तब तुम जैसी नाज़ुक थीं, देर तक बारिश में खड़े रहने पर तुम्हारे भीग कर बीमार पड़ जाने का डर भी था। तुम्हारी बात सुनते-सुनते ही मैंने बस इतना ही कहा था, "टैक्सी नहीं दिखती है तो आगे चलकर बस ही ले लेते हैं।"
और तुमने अचानक ही अपना बढाया हुआ हाथ एक झटके से पीछे खींचकर गुस्से में कहा, "हाँ जा रही हूँ। और इस शहर से भी जा रही हूँ यह तबादला लेकर। यही चाहते हो न? मैं कुछ कह रही हूँ और तुम कुछ और..." और कुछ कदम आगे ही बने बस स्टॉप पर अभी रुकी बस में गंतव्य जाने बिना ही चढ़ गयी थीं। एकबारगी दिल किया था कि अभी हाथ पकड़कर उतार लूँ। मगर फिर यही भय लगा कि तुम झगडा कर के भीड़ के सामने कोई दृश्य न उत्पन्न कर दो। मैं भी बहुत परिपक्व कहाँ था तब। बस के आँख से ओझल हो जाने तक वहाँ खड़ा देखता रहा। शायद बाद में भी काफी देर तक खड़ा रहा था। फिर मरे हुए क़दमों से घर वापस आया तो रूममेट से पता लगा कि सीमा पर तैनात बड़े भैया का संदेशा लेकर उनके जिस दोस्त को आना था वह आकर, काफी देर तक इंतज़ार करके चला भी गया था।
वह दिन और आज का दिन, हम लोग फिर कभी नहीं मिले। सुना था कि तुम दिल्ली में खुश थीं। कभी पीछे जाकर देखता था तो समझ नहीं पाता था कि हमारा यह रिश्ता इतना एकतरफा क्यों था। कभी-कभी सोचता था कि मुझसे झगड़ा करने के बाद तुम अपनी परेशानियाँ किसके साथ बाँटती होगी। फिर यह भी ध्यान आता था कि मेरी तुम्हारी दोस्ती तो बहुत पुरानी भी नहीं थी। हम सिर्फ दो साल के ही परिचित थे। ज़ाहिर है कि मेरे बिना भी तुम्हारा संसार काफी विस्तृत रहा होगा। मुझसे पहले भी तुम्हारे मित्र रहे होंगे और मेरे बाद भी। तुम्हारा दिल्ली का पता और फोन नंबर आदि सब कुछ दोस्तों ने बातों-बातों में उपलब्ध करा दिया था। कभी दिल में आता था कि पूछूँ, आखिर इतना गुस्सा क्यों हो गयी थीं उस दिन मुझसे। उभयनिष्ठ संपर्कों द्वारा तुम्हारी खबर मिलती रहती थी। एक दिन सुना कि तुम्हारे माता-पिता ने अच्छा सा रिश्ता ढूंढकर वहीं तुम्हारी शादी भी कर दी थी और अब तुम अपनी घर गृहस्थी में मगन हो।
जैसे तुम खोयीं वैसे ही संजय भी ज़िंदगी के मेले में कहीं मेरे हाथ से छूट गया था। तुम उसे नहीं जानतीं इसलिये बता रहा हूं कि वह तो मेरा तुम से भी पुराना दोस्त था। छठी कक्षा से बीएससी तक हम दोनों साथ पढ़े थे। बीएससी प्रथम वर्ष करते हुए उसे आईआईटी में प्रवेश मिल गया था और वह कानपुर चला गया था जबकि मैंने बीएससी पूरी करके तुम्हारे साथ नौकरी शुरू कर दी। ठीक है बाबा, साथ नहीं, एक ही विभाग में परन्तु शहर के दूसरे सिरे पर। मेरे लिये नौकरी करना बहुत ज़रूरी था।
संजय दिल का बहुत साफ़ था। थोड़ा अंतर्मुखी था इसलिए सबको पसंद नहीं आता था, मगर था हीरा। न जाने कितनी अच्छी आदतें मैंने उससे ही सीखी हैं। मुझे अभी भी याद है जब भारत ने अपना पहला उपग्रह अंतरिक्ष में भेजा था तो हम सब कितने नाराज़ थे कि एक निर्धन देश की सरकार किसानों की ओर ध्यान देने के बजाय वैज्ञानिक खेल खेल रही है। सिर्फ संजय था जिसने गर्व से सीना फुलाकर कहा था, महान देश को महान काम भी करने होंगे, हमारे अपने उपग्रह हों तो खेती, जंगल, किसान, बाढ़, शिक्षा सभी की स्थिति सुधरेगी। इसी तरह बाद में कम्प्युटर आने पर बेरोजगारी की आशंका से डराते छात्र संघियों को उसने शान्ति से कहा था, "देखना, एक दिन यही कम्प्युटर हम भारतीयों को दुनिया भर में रोज़गार दिलाएंगे।" स्कूल-कॉलेज में हिंसा आम थी मगर मैंने उसे कभी किसी से लड़ते हुए नहीं देखा । वह अपनी बात बड़ी शान्ति से कहता था। कभी-कभी नहीं भी कहता था। चुपचाप उठकर चला जाता था। विशेषकर जब यार दोस्त लड़कियों पर टीका टिप्पणी कर रहे होते थे।
पिछ्ले कई साल से हमें एक दूसरे के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। भला हो फेसबुक तकनीक का कि मैने उसे देखा। वैसे तो संजय सक्सेना नाम उस पीढ़ी में बहुत ही प्रचलित था मगर फिर भी फेसबुक पर उसके चित्र और व्यक्तिगत जानकारी से यह स्पष्ट था कि मेरा खोया हुआ मित्र मुझे मिल गया था। मैंने उसे सन्देश भेजा, और फिर फोन पर बात भी हुई। मैंने उसके अगले जन्म दिन पर मिलने का वायदा किया। आज उसका जन्म दिन है। और मेरा भी।
[क्रमशः]
हुम्म.....बहुत बढ़िया शुरुवात ... और आगे देखें क्या होता है? तभी कमेन्ट पूरा होगा..........
ReplyDelete" दूर क्यों जाती हो, अभी की ही बात करो न! अब दिल्ली जा तो रहा हूँ सुनील से मिलने मगर सारे रास्ते मेरे चेहरे पर जो मुस्कान ठहरी हुई है, वह तुम्हारे नाम की है। कौन कहता है कि एक स्त्री और पुरुष में सिर्फ विशुद्ध मैत्री नहीं रह सकती है. हम दोनों में तो हमेशा ही रही है। "
ReplyDeleteऊपर आपने मित्र का नाम सुनील कर दिया है बाकी हर जगह संजय है ...........सुधार लें |
कहीं आप का यह संजय 'उन' का पति तो नहीं ?
बहुत नैचुरल शुरुआत के साथ .... यह पोस्ट बहुत अच्छी लगी....
ReplyDeleteआगे देखें क्या होता है?
ReplyDeleteसर जी,
ReplyDeleteदम साध कर बैठे हैं, अगली कड़ी/कड़ियों का बेसब्री से इन्तज़ार कर रहे हैं।
कहानी की विवेचना, आलोचना अंत में करेंगे। और हमें तो कहानी की जगह आपबीती, खुदबीती ही लग रही है, इतनी नैचुरल, इतनी सहज।
टिकिट का खेल भी निराला है!
ReplyDelete--
इसने किसी का दिवाला निकाला है
और किसी को सांसद बना डाला है!
रोचक ...उत्सुकता बनी हुई है ...!!
ReplyDeleteकथा का यह अंक 'रहस्य तत्व' से शुरु होकर 'रहस्य तत्व' पर ही समाप्त हुआ।
ReplyDeleteरोचक और प्रवाहमय है समूचा वर्णन।
Many happy returns of the day to Sanjay ji.
ReplyDeleteMay your friendship be everlasting.
Fortunate are they, those who have great friends.
Beautifully written, nice story.
सादर वन्दे !
ReplyDeleteबहुत खूब ! टिप्पणी तो पूरा पढ़ने पर ही देंगे |
इंतजार में ......
रत्नेश त्रिपाठी
बेहद रोचक!
ReplyDeleteअभी तो रहस्य बरकरार है...आगामी कडियों में देखते हैं.
यदि व्यवसाय की तरह दोस्ती की जाये तो टिकाऊ नहीं होगी । लेकिन मैने व्यवसाय भी दोस्ती के भाव में लोगों को करते देखा है और उससे टिकाऊ कुछ भी नहीं लगा । प्रतिकूल परिस्थितियों में थोड़ा सा सहारा कृतज्ञता का चिर भाव बनाये रखता है ।
ReplyDeleteआँख गडाये बैठे हैं बाकी भागों के लिए ...
ReplyDeleteमित्रता कि परिभाषा भी सही थी
यह पोस्ट बहुत अच्छी लगी....अभी तो रहस्य बरकरार है...आगामी कडियों में देखते हैं.
ReplyDeleteकल इसी लिये नही कि समय कम था। इतनी अच्छी कहानी तो ध्यान से ही पढी जाती है। कथन कथ्य और शैली ने बान्धे रखा --- देखें आगे क्या होता है अगली कडी का इन्तजार। धन्यवाद्
ReplyDeleteआखिर में वही दोस्ती टिकती है जिसमें या तो दोनों पक्षों का लाभ हो या फिर दोनों ही लाभ-हानि से ऊपर हों। .....
ReplyDeleteयह विस्मृत न हो पायेगा....
रोचक कथा....अगली कड़ी की प्रतीक्षा रहेगी.
आपकी अन्य कहानियों की तरह रोचक. संजय के जन्म दिन पर मुलाकात के वर्णन की प्रतीक्षा है.
ReplyDeleteआपकी अन्य कहानियों की तरह रोचक. संजय के जन्म दिन पर मुलाकात के वर्णन की प्रतीक्षा है.
ReplyDeleteक्या कहूं। कहानी की हर लाइन में लगता है कि अपना बीता हुआ कल देख रहे हैं। कई ऐसी मुलाकातें होती हैं, जिनको कोई नाम नहीं दिया जा सकता। पर जिनका असर हमेशा रहता है। दिल्ली की लड़की ने वैसे भी उत्सुकता बढ़ा दी है। मेरे इस कंक्रीट के शहर में इतने रंग है कि लोगो के असली रंग देख पाना काफी मुश्किल है। आगे की कहानी का व्यग्रता से इंतजार है। क्योंकी एक ही सांस में पढ़ने की आदत है या आराम आराम से कहानी के साथ अपने दर्द को सहलाते हुए।
ReplyDeleteअच्छी लगी आपकी ये कहानी....
ReplyDelete***************************
'पाखी की दुनिया' में इस बार 'कीचड़ फेंकने वाले ज्वालामुखी' !
pratikshaa rahegi agli kisht ki
ReplyDeleteagli kisht ka intezaar hai..
ReplyDeleteबहुत अच्छी शुरुआत है कहानी की...एक बार आधा पढ़कर (समयाभाव के कारण)लौट गया था...आज पूरा पढ़ा. कहानी में जहाँ दोस्ती और प्यार को बड़ी सादगी से परिभाषित किया गया है वहीँ अशिक्षा के कारण आधुनिक तकनीक से भयभीत समाज को भी रेखांकित करने का प्रयास है. कहानी में सादगी के साथ-साथ एक तिलस्म भी छुपा है कि कहीं यह कहानी आगे जा कर त्रिकोणीय प्रेम कहानी में तो नहीं परिवर्तित हो जायेगी...!
ReplyDeleteअगली किश्त का इन्तजार रहेगा.
मैं कहानी नहीं पढ़ता. क्यों, क्योंकि इनमें सच्चाई होती है और मैं सच्चाई का सामना नहीं करना चाहता..
ReplyDeleteएकदम पढ़ते जाइए और खो जाइए लेखनी बिल्कुल सरलता से दिल में उतरती जाएगी...बढ़िया लिखा है आपने अनुराग जी धन्यवाद ..
ReplyDeleteबहुत दिन बाद आपके ब्लॉग पर आया.... लेकिन जिस आशा से आया पूरी हुई.. शानदार लिखा है.
ReplyDeleteआपकी कहानियाँ काह्रित्र चित्रण पर काफी जोर देती हैं और पात्रों के प्रोफाईल समानांतर विस्तार पाते हैं -अगली कड़ी का इंतज़ार !
ReplyDeleteबहुत ही रोचक शुरूआत है, आगे का इंतजार रहेगा।
ReplyDelete................
अपने ब्लॉग पर 8-10 विजि़टर्स हमेशा ऑनलाइन पाएँ।
सच ही है कि महिला और पुरुष अच्छे मित्र भी हो सक्ते है अच्छी प्रस्तुति।
ReplyDeleteअच्छा यात्रा चित्रण किया है । प्रशंसनीय ।
ReplyDeleteआगे की प्रतीक्षा रहेगी ।
achchhi kahani..........pura padhna parega, besabri se intzaar rahega.......
ReplyDeletesanjay saxena ko happy bday!!:D
achchhi kahani..........pura padhna parega, besabri se intzaar rahega.......
ReplyDeletesanjay saxena ko happy bday!!:D