Thursday, November 26, 2015

कबाड़ - कविता

(शब्द और चित्र: अनुराग शर्मा)
यादों का कबाड़

कचरा ढोते रहे
दुखित रोते रहे

ढेर में कबाड़ के
खुदको खोते रहे

तेल जलता रहा
लौ पर न जली

था अंधेरा घना
जुगनू सोते रहे

मूल तेरा भी था
सूद मेरा भी था

कर्ज़ दोनों का
अकेले ढोते रहे

शाम जाती रही
दिन बदलते रहे

बौर की चाह में
खत्म होते रहे।

9 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (28-11-2015) को "ये धरा राम का धाम है" (चर्चा-अंक 2174) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. कबाड़ के ढेर में खुद को खोते रहे .... यथार्थ

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  3. बहुत सुन्दर

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  4. सार्थक रचना, कबाड़ के ढेर में खुद को खोने का आभास मतलब ध्यान का आगमन
    बसंत के आने का संकेत ही तो है ! चित्र बड़ा अच्छा लगा ! :)

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  5. इस रचना के लिए हमारा नमन स्वीकार करें

    एक बार हमारे ब्लॉग पुरानीबस्ती पर भी आकर हमें कृतार्थ करें _/\_

    http://puraneebastee.blogspot.in/2015/03/pedo-ki-jaat.html

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  6. सुन्दर व सार्थक रचना प्रस्तुतिकरण के लिए आभार..
    मेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका इंतजार....

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  7. सुन्दर व सार्थक रचना ..
    मेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका स्वागत है...

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