(लघुकथा व चित्र: अनुराग शर्मा)
कमरे की बत्ती और पंखा खुला छोडकर वह घर से निकला और बस में बिना टिकट बैठ गया। आज से सब कुछ मुफ्त था। आज़ादी के लंबे इतिहास में पहली बार मुफ्तखोर पार्टी सत्ता में आई थी। उनके नेता श्री फ़ोकटपाल ने चुनाव जीतते ही सब कुछ मुफ्त करने का वादा किया था। उसने भी मुफ्तखोर पार्टी को विजयी बनाने के लिए बड़ी लगन से काम किया था। कारखाने में रोज़ हाड़तोड़ मेहनत करने के बाद घर आते ही पोस्टर लगाने निकल पड़ता था। सड़क पर पैदल या बस में आते जाते भी लोगों को मुफ्तखोर पार्टी के पक्ष में जोड़ने का प्रयास करता।
फैक्टरी पहुँचते ही उल्लास से काम पर जुट गया। एक तो सब कुछ मुफ्त होने की खुशी ऊपर से आज तो वेतन मिलने का दिन था। लंच के वक्फ़े में जब वह तन्खाबाबू को सलाम ठोकने गया तो उन्हें लापता पाया। वापसी में सेठ उधारचंद दिख गए। सेठ उधारचंद फैक्ट्री के मालिक हैं और अपने नाम को कितना सार्थक करते हैं इसकी गवाही शहर के सभी सरकारी बैंक दे सकते हैं।
उसने सेठजी को जयरामजी कहने के बाद हिम्मत जुटाकर पूछ ही लिया, "तन्खाबाबू नहीं दिख रहे, आज छुट्टी पर हैं क्या?"
"कुछ खबर है कि नईं? मुफतखोर पार्टी की जीत का जशन चल रिया हैगा।"
"तन्खाबाबू क्या जश्न में गए हैं?"
"बीस-बीस हज़ार के लंच करे हैं हमने फ़ोकटपाल्जी के साथ। पचास-पचास हज़ार के चेक भी दिये हैं चंदे में। इसीलिए ना कि वे हमें भी कुछ मुफत देवें।"
"जी" वह प्रश्नवाचक मुद्रा में आ गया था।
"हमने फ़ोकटपाल्जी को जिताया है। अब तन्खाबाबू की कोई जरूरत ना है। आज से इस फैक्ट्री में सब काम मुफत होगा। गोरमींट अपनी जाकिट की पाकिट में हैगी।"
उसे ऐसा झटका लगा कि नींद टूट गई। बत्ती, पंखा, सब बंद था क्योंकि मुफ्तखोर पार्टी जीतने के बावजूद भी उसकी झुग्गी बस्ती में बिजली नहीं थी।
[समाप्त]
:)
ReplyDeleteकहीं मुफ्तखोर कहीं हरामखोर
चोर ही चोर हर जगह चोर ।
सार्थक प्रस्तुति।
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (16-02-2015) को "बम भोले के गूँजे नाद" (चर्चा अंक-1891) पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सार्थक प्रस्तुति।
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (16-02-2015) को "बम भोले के गूँजे नाद" (चर्चा अंक-1891) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
:)
ReplyDeleteअभी एक ही नीति कथा बुनी है आपने, 'मुफ्तखोरी की आदत' मेटने हेतु न जाने कितनी विधाओं में लिखा जाना बाकी है अभी। किसी न किसी रूप में पहले भी समझाने का प्रयास होता रहा है। एक सूक्ति से "उद्यमेनैव हि सिध्यन्ति, कार्याणि न मनोरथै। न हि सुप्तस्य सिंहस्य, प्रविशन्ति मृगाः॥"
ReplyDeleteबिना मेहनत किए या बिना कीमत चुकाए फल की चाहत करने वाले उपभोग्य वस्तुओं का आदर नहीं करते। खाने के अलावा वे उसे बिगाड़ने और बरबाद करने का मज़ा ज़्यादा लेते हैं। प्रायः मुफ़्तखोरी वही वर्ग पसंद करता है जिसमें संसाधनों (वस्तुओं) को बिगाड़ने का भाव हावी रहता है। राष्ट्र की सम्पत्ति से जिसका अपनत्व बना ही नहीं।
ये एक अच्छी 'लघु कथा' है। क्योंकि ये सामयिक है। जल्द ही इसका प्रभाव 'उसे' दिखने लगेगा। शायद आपने कुछ सोचसमझकर ही उस मेहनती को कोई नाम नहीं दिया। क्योंकि वे सारे शब्द आज उस मुख्तखोर पार्टी की पहचान बन गए हैं जो हम मैंगोतोर पर लिया करते हैं।
बहुत ही सही .... लेकिन दादी की कही एक उक्ति याद आ गई- "फोकट में तो मां भी दूध नहीं पिलाती, रोना पड़ता है" .....
ReplyDelete:-)
बढ़िया लघुकथा, सच है यही … होना भी यही है
ReplyDeleteनींद खुलते ही सपने कई बार टूटे
ReplyDeleteक्या हुआ एक बार और सही,
यही होना है सटीक लघुकथा है !
कहीं मुफ्त खोर कहीं जुमला खोर...
ReplyDeleteआज की तारिख में प्रेरक कथा! :)
ReplyDeleteमुफ्त में नहीं चाहिए कोई चीज़ , हां परिश्रम का फल तो मिलना ही चाहिए... राजनीती में सब चलता है... टेंशन मत ले, सभी को अपनी राजनीती चमकाने के लिए कुछ वादे, और इरादे जनता के साथ करने पड़ते है . . . . . .. यही राजनीती है .... अच्छी लघुकथा ....
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग पर आप सभी लोगो का हार्दिक स्वागत है.
वाह वाह वाह वाह
ReplyDeleteमुफ़्तखोरे अमरबेल की तरह हैं, जिस वृक्ष पर रहेंगे उसे ही सोख लेंगे।
ReplyDeleteसमय बतायेगा पर शायद ये गलत शुरुआत का संकेत जरूर है ...
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