पुत्र: ज़माना कितना खराब हो गया है। सचमुच कलयुग इसी को कहते हैं। जिन माँ-बाप का सहारा लेकर चलना सीखा, बड़े होकर उन्हीं को बेशर्मी से घर से निकाल देते हैं, ये आजकल के युवा।
माँ: अरे बेटा, पहले के लोग भी कोई दूध के धुले नहीं होते थे। कितने किस्से सुनने में आते थे। किसी ने लाचार बूढ़ी माँ को घर से निकाल दिया, किसी ने जायदाद के लिए सगे चाचा को मारकर नदी में बहा दिया। सौतेले बच्चों पर भी भांति-भांति के अत्याचार होते थे। अब तो देश में कायदा कानून है। और फिर जनता भी पढ लिख कर अपनी ज़िम्मेदारी समझती है।
पुत्र: नहीं माँ, कुछ नहीं बदला। आज सुबह ही एक बूढ़े को फटे पुराने कपड़ों में सड़क किनारे पड़ी सूखी रोटी उठाकर खाते देखा तो मैंने उसके बच्चों के बारे में पूछ लिया। कुछ बताने के बजाय गाता हुआ चला गया
खुद खाते हैं छप्पन भोग, मात-पिता लगते हैं रोग।
माँ: बेटा, उसने जो कहा तुमने मान लिया? और उसके जिन बच्चों को अपना पक्ष रखने का मौका ही नहीं मिला, उनका क्या? हो सकता है बच्चे अपने पूरे प्रयास के बावजूद उसे संतुष्ट कर पाने में असमर्थ हों। हो सकता है वह कोई मनोरोगी हो?
पुत्र: लेकिन अगर वह इनमें से कुछ भी न हुआ तो?
माँ: ये भी तो हो सकता है कि वह झूठ ही बोल रहा हो।
पुत्र: हाँ, यह बात भी ठीक है।
माँ: अरे बेटा, पहले के लोग भी कोई दूध के धुले नहीं होते थे। कितने किस्से सुनने में आते थे। किसी ने लाचार बूढ़ी माँ को घर से निकाल दिया, किसी ने जायदाद के लिए सगे चाचा को मारकर नदी में बहा दिया। सौतेले बच्चों पर भी भांति-भांति के अत्याचार होते थे। अब तो देश में कायदा कानून है। और फिर जनता भी पढ लिख कर अपनी ज़िम्मेदारी समझती है।
पुत्र: नहीं माँ, कुछ नहीं बदला। आज सुबह ही एक बूढ़े को फटे पुराने कपड़ों में सड़क किनारे पड़ी सूखी रोटी उठाकर खाते देखा तो मैंने उसके बच्चों के बारे में पूछ लिया। कुछ बताने के बजाय गाता हुआ चला गया
खुद खाते हैं छप्पन भोग, मात-पिता लगते हैं रोग।
माँ: बेटा, उसने जो कहा तुमने मान लिया? और उसके जिन बच्चों को अपना पक्ष रखने का मौका ही नहीं मिला, उनका क्या? हो सकता है बच्चे अपने पूरे प्रयास के बावजूद उसे संतुष्ट कर पाने में असमर्थ हों। हो सकता है वह कोई मनोरोगी हो?
पुत्र: लेकिन अगर वह इनमें से कुछ भी न हुआ तो?
माँ: ये भी तो हो सकता है कि वह झूठ ही बोल रहा हो।
पुत्र: हाँ, यह बात भी ठीक है।