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Sunday, December 2, 2012

यारी है ईमान - कहानी

ज़माना गुज़र गया भारत गए हुए, फिर भी उनका मन वहाँ की गलियों से बाहर आ ही नहीं पाता। जब भी जाते हैं, दिल किसी गुम हुई सी जगह को फिर-फिर ढूँढता है। कितनी ही बार अपने को शिरवळ के बस अड्डे पर अकेले बैठे हुए देखते हैं। कभी मुल्ला जी के रिक्शे पर शांति निकेतन जाता हुआ महसूस करते हैं तो कभी बाँस की झोंपड़ी में कविराज के मणिपुरी संगीत की स्वर लहरियाँ सुनते हुये। रामपुर के शरीफे का दैवी स्वाद हो या लखनऊ के आम की मिठास, बरेली में साइकिल से गिरकर घुटने छील लेना भी याद है और बदायूँ की रामलीला के संवाद भी। नन्दन से धर्मयुग और चंदामामा से न्यूज़वीक तक के सफर के बाद आज भी बालसभा की पहेलियाँ, इंद्रजाल कोमिक्स की रोमांचकारी दुनिया और दीवाना के गूढ कार्टून मनोरंजन करते से लगते हैं। स्कूल कॉलेज की यादों के साथ ही लखनऊ, दिल्ली और चेन्नई में शुरू की गई पहली तीन नौकरियों का उत्साह भी अब तक वैसा ही बना हुआ है।

पूना हो या पनवेल, कुछ यादें हल्की हैं और कुछ गहरी। लेकिन जो एक शहर अब भी उनके सपनों में लगभग रोज़ ही आता है वह है जम्मू! कितनी ही यादें जुड़ी हैं उस रहस्यमयी दुनिया से जो तब बन ही रही थी। जंगली फूलों की नशीली गंध से सराबोर पथरीली चट्टानों को काटकर बहती तवी नदी, और रणबीर नहर में तैरने जाना हो या पुराने पहाड़ी नगर के इर्दगिर्द बन रहे उपनगरीय क्षेत्रों में तलहटी में जाकर स्वादिष्ट लाल गरने चुनकर लाना। सुबह शाम स्कूल आते जाते समय आकाश को झुककर धरती छूते देखने का अनूठा अनुभव हो या जगमगाते जुगनुओं को देखकर आश्चर्यचकित होने की बारी हो, जम्मू की यादें छूटती ही नहीं।

भाषाई आधार पर राज्यों के निर्माण के बारे में बहुत बहसें हो चुकी हैं। लेकिन देशभर में रहने के बाद वे अब इस बात को गहराई से मानते हैं कि अलग इकाई बनाने की बात हो या अलग पहचान की, मानव-मात्र के लिए भाषा से बड़ी पहचान शायद मजहब की ही हो सकती है दूसरी कोई नहीं। भाषाएँ तोड़ती भी हैं और जोड़ती भी हैं। वे हमारी पहचान भी हैं और संवाद का साधन भी। वे जहाँ भी रहे, भाषा की समस्या रही तो लेकिन मामूली सी ही। अधिकांश जगहों पर लोगों को टूटी-फूटी ही सही, हिन्दी आती ही थी, कभी-कभी अङ्ग्रेज़ी भी। जम्मू में यह कठिनाई और भी आसान हो गई थी, लवलीन और रमणीक जैसे सहपाठी जो थे। हमेशा मुस्कराने वाली लवलीन जब किसी को उनकी भाषा या बोलने के अंदाज़ पर टिप्पणी करते देखती तो उसकी भृकुटियाँ तन जातीं और बस्स ... समझो किसी की शामत आयी। लंबा चौड़ा रमणीक उतना दबंग नहीं था। उससे दोस्ती का कारण था, हिन्दी पर उसकी पकड़। पूरी कक्षा में वही एक था जो उनकी बात न केवल पूर्णतः समझता था बल्कि लगभग उन्हीं की भाषा में संवाद भी कर सकता था।

पाठशाला जाने के लिए राजमहल परिसर से होकर निकलना पड़ता था। शाम को बस आने तक साथ के बच्चों के साथ अंकल जी की दुकान पर इंतज़ार। उसी बीच मे कई बार ऐसा भी हुआ जब रमणीक के साथ रघुनाथ मंदिर स्थित उसके घर भी जाना हुआ। वे लोग पक्के हिन्दूवादी साहित्यकार थे। शाखा के बारे मे पहली बार वहीं जाना और जनसंघ के बारे मे भी वहीं सुना। गोष्ठी से लेकर बाल भारती तक के शब्द पहली बार रमणीक के मुँह से ही पता लगे। खासकर अपना नाम बताते हुए जब वह सलीके से रमणीक गुप्त कहता था तो रमनीक गुप्ता पुकारने वाले सभी डोगरे बच्चे शर्मा जाते थे। लवलीन की बात और थी, वह उसे सदा ओए रमनीके कहकर ही बुलाती थी।

वे अक्सर सोचते थे कि उनके बचपन के साथी वे सब लोग अब न जाने कहाँ होंगे। उनकी यादें चेहरे पर मुस्कान लाती थीं। मन में सदा यही रहा कि किसी न किसी दिन जम्मू जाना ज़रूर होगा। तब ढूंढ लेंगे अपने नन्हे दोस्तों को। लवलीन का पूरा नाम, घर, ठिकाना कुछ भी नहीं मालूम, इसलिए कभी उसकी खोज नहीं की लेकिन रमणीक गुप्त से मुलाकात की उम्मीद कभी नहीं छूटी।

उस दिन तो मानो लॉटरी ही खुल गई जब रमणीक के छोटे भाई वीरभद्र का नाम इंटरनेट पर नज़र आया। पता लगा कि वह गुड़गांव की एक अंतर्राष्ट्रीय कंपनी में मुख्य सूचना अधिकारी है। फोन नंबर की खोज शुरू हुई। वीरभद्र गुप्त ने बड़े सलीके से बात की और नाम लेने भर की देर थी कि उन्हें पहचान भी लिया। पता लगा कि रमणीक भी ज़्यादा दूर नहीं है। वह राष्ट्रीय अभिलेखागार में एक महत्वपूर्ण पद पर लगा हुआ था। वीरभद्र से नंबर मिलते ही उन्होने रमणीक को कॉल किया।

हॅलो के जवाब में एक देहाती से स्वर ने जब उनका नाम, पता, वल्दियत आदि पूछना शुरू किया तो उन्होंने उतावली से अपना संबंध बताते हुए रमणीक को बुलाने को कहा। "मैं र-म-नी-क ही हूंजी!" अगले ने हर अक्षर चबाते हुए कहा, "... लेकिन मैंने आपको पहचाना नहीं।"

नगर, कक्षा, शाला आदि की जानकारी देने में थोड़ा समय ज़रूर लगा, फिर रमणीक को उनकी पहचान हो आई। कुछ देर तक बात करने के बाद उधर से सवाल आया, "लेकन आज हमारी याद कैसे आ गई, इतने दिन के बाद?"

"याद तो हमेशा ही थी, लेकिन संपर्क का कोई साधन ही नहीं था।"

"फिर भी, कोई वजह तो होगी ही ..." रमणीक ने रूखेपन से कहा, "बिगैर मतलब तो कोई किसी को याद नहीं करता!"

[समाप्त]