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Saturday, July 1, 2017

हिंदी ब्लॉगिंग का सत्यानाश #हिन्दी_ब्लॉगिंग

सन 2008 की गर्मियों में जब मैंने यूनिकोड और लिप्यंतरण (ट्रांसलिटरेशन) की सहायता से हिंदी ब्लॉग लेखन आरम्भ किया तब से अब तक के चिठ्ठा-जगत में आमूलचूल परिवर्तन आ चुका है। यदि वह ब्लॉगिंग का उषाकाल था तो अब सूर्यास्त के बाद की रात है। अंधेरी रात का सा सन्नाटा छाया हुआ है जिसमें यदा-कदा कुछ ब्लॉगर कवियों की रचनाएँ खद्योतसम टिमटिमाती दिख जाती हैं। इन नौ-दस वर्षों में आखिर ऐसा क्या हुआ जो हिन्दी ब्लॉगिंग का पूर्ण सत्यानाश हो गया?

एक कारण तो बहुत स्पष्ट है। ब्लॉगिंग में बहुत से लोग ऐसे थे जो यहाँ लिखने के लिये नहीं, बातचीत और मेल-मिलाप के लिये आये थे। ब्लॉगिंग इस कार्य के लिये सर्वश्रेष्ठ माध्यम तो नहीं था लेकिन फिर भी बेहतर विकल्प के अभाव में काम लायक जुगाड़ तो था ही। वैसे भी एक आम भारतीय गुणवत्ता के मामले में संतोषी जीव है और जुगाड़ को सामान्य-स्वीकृति मिली हुई है। खाजा न सही भाजी सही, जो उपलब्ध था, उसीसे काम चलाते रहे। ब्लॉगर मिलन से लेकर ब्लॉगिंग सम्मेलन तक काफ़ी कुछ हुआ। लेकिन जब फ़ेसबुक जैसा कुशल मिलन-माध्यम (सोशल मीडिया) हाथ आया तो ब्लॉगर-मित्रों की मानो लॉटरी खुल गई। त्वरित-चकल्लस के लिये ब्लॉगिंग जैसे नीरस माध्यम के मुकाबले फ़ेसबुक कहीं सटीक सिद्ध हुई। मज़ेदार बात यह है कि ब्लॉगिंग के पुनर्जागरण के लिये चलाया जाने वाला '#हिन्दी_ब्लॉगिंग' अभियान भी फ़ेसबुक से शक्तिवर्धन पा रहा है।

तकनीकी अज्ञान के चलते बहुत से ब्लॉगरों ने अपने-अपने ब्लॉग को अजीबो-गरीब विजेट्स का अजायबघर बनाया जिनमें से कई विजेट्स अधकचरे थे और कई तो खतरनाक भी। कितने ही ब्लॉग्स किसी मैलवेयर या किसी अन्य तकनीकी खोट के द्वारा अपहृत हुए। उन पर क्लिक करने मात्र से पाठक किन्हीं अवाँछित साइट्स पर पहुँच जाता था। तकनीकी अज्ञान ने न केवल ऐसे ब्लॉगरों के अपने कम्प्यूटर को वायरस या मैलवेयर द्वारा प्रदूषित कराया बल्कि वे जाने-अनजाने अपने पाठकों को भी ऐसे खतरों की चपेट में लाने का साधन बने।

हिंदी के कितने ही चिट्ठों के टिप्पणी बॉक्स स्पैम या अश्लील लिंक्स से भरे हुए हैं। कुछ स्थितियों में अनामी, और कुछ अन्य स्थितियों में नाम/यूआरएल का दुरुपयोग करने वाले  टिप्पणीकार समस्या बने। टिप्पणी मॉडरेशन इन समस्याओं का सामना करने में सक्षम है। मैंने ब्लॉगिंग के पहले दिन से ही मॉडरेशन लागू किया था और कुछ समय लगाकर अपने ब्लॉग की टिप्पणी नीति भी स्पष्ट शब्दों में सामने रखी थी जिसने मुझे अवांछित लिंक्स चेपने वालों के बुरे इरादे के प्रकाशन की ब्लॉगिंग-व्यापी समस्या से बचाया। मॉडरेशन लगाने से कई लाभ हैं। इस व्यवस्था में सारी टिप्पणियाँ एकदम से प्रकाशित हो जाने के बजाय पहले ब्लॉगर तक पहुँचती हैं, जिनका निस्तारण वे अपने विवेकानुसार कर सकते हैं। जो प्रकाशन योग्य हों उन्हें प्रकाशित करें और अन्य को कूड़ेदान में फेंकें।

टिप्पणी के अलावा अनुयायियों (फ़ॉलोअर्स) की सूची को भी चिठ्ठाकारों की कड़ी दृष्टि की आवश्यकता होती है। कई ऐसे ब्लॉगर जिन्हें ग़ैरकानूनी धंधों की वजह से जेल में होना चाहिये, अपने लिंक्स वहाँ चेपते चलते हैं। यदि आपने अपने ब्लॉग पर फ़ॉलोअर्स का विजेट लगाया है तो बीच-बीच में इस सूची पर एक नज़र डालकर आप अपनी ज़िम्मेदारी निभाकर उन्हें ब्लॉक भी कर सकते हैं और रिपोर्ट भी। वैसे भी नए अनुयाइयों के जुड़ने पर उनकी जाँच करना एक अच्छी आदत है।

कितने ही ब्लॉग 'जातस्य हि ध्रुवो मृत्यु:' के सिद्धांत के अनुसार बंद हुए। किसी ने जोश में आकर लिखना शुरू किया और होश में आकर बंद कर दिया। कितने ही ब्लॉग हिंदी चिट्ठाकारी के प्रवक्ताओं के 'सदस्यता अभियान' के अंतर्गत बिना इच्छाशक्ति के जबरिया खुला दिये गये थे, उन्हें तो बंद होना ही था। लेकिन कितने ही नियमित ब्लॉग अपने लेखक के देहांत के कारण भी छूटे। पिछले एक दशक में हिंदी ब्लॉगिंग ने अनेक गणमान्य ब्लॉगरों को खोया है। ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे।

केवल तकनीक ही नहीं कई बार व्यक्ति भी हानिप्रद सिद्ध होते हैं। हिन्दी चिठ्ठाकारी का कुछ नुकसान ऐसे हानिप्रद चिट्ठाकारों ने भी किया। घर-परिवार से सताए लोग जो यहाँ केवल कुढ़न निकालने के लिये बैठे थे उन्होंने सामाजिक संस्कारों के अभाव और असभ्यता का प्रदर्शन कर माहौल को कठिन बनाया जिसके कारण कई लोगों का मन खट्टा हुआ। कुछ भोले-भाले मासूम ब्लॉगर जो शुरू में ऐसे लोगों को प्रमोट करते पाये गये थे बाद में सिर पीटते मिले लेकिन तब तक चिट्ठाकारी का बहुत अहित हो चुका था। कान के कच्चे और जोश के पक्के ब्लॉगरों ने भी कई फ़िज़ूल के झगड़ों की आग में जाने-अनजाने ईंधन डालकर कई ब्लॉग बंद कराए।

गोबरपट्टी की "मन्ने के मिलेगा?" की महान अवधारणा भी अनेक चिट्ठों की अकालमृत्यु का कारण बनी। ब्लॉगिंग को कमाई का साधन समझकर पकड़ने वालों में कुछ तो ऐसे थे जिन्होंने अन्य चिठ्ठाकारों की कीमत पर कमाई की भी लेकिन अधिकांश के पल्ले कुछ नहीं पड़ा। विकीपीडिया से ब्लॉग और ब्लॉग से विकीपीडिया तक टीपीकरण की कई यात्राएँ करने, भाँति-भाँति के विज्ञापनों से लेकर किसम-किसम की ठगी स्कीमों से निराश होने के बाद ब्लॉगिंग से मोहभंग स्वाभाविक ही था। सो यह वाला ब्लॉगर वर्ग भी सुप्तावस्था को प्राप्त हुआ। हालांकि ऐडसेंस आदि द्वारा कोई नई घोषणा आदि होने की स्थिति में यह मृतपक्षी अपने पर फ़ड़फ़ड़ाता हुआ नज़र आ जाता है।

हिंदी ब्लॉगरों के सामूहिक सामान्य-अज्ञान ने भी ब्लॉगिंग का अहित किया। मौलिकता का पूर्णाभाव, अभिव्यक्ति की स्तरहीनता, विशेषज्ञता की कमी के साथ, चोरी के चित्र, चोरी की लघुकथाएँ मिल-मिलाकर कितने दिन चलतीं। कॉपीराइट स्वामियों की शिकायतों पर चोरी की कुछ पोस्टें तो खुद हटाई गईं लेकिन कितने ही ब्लॉग कॉपीराइट स्वामियों की शिकायतों पर ब्लॉगर या वर्डप्रैस आदि द्वारा बंद कर दिये गये।

बहुत से ब्लॉगर उचित प्रोत्साहन के अभाव में भी टूटे। एक तो ये नाज़ुकमिज़ाज़ सरलता से आहत हो जाते थे, ऊपर से स्थापित मठाधीशों को अपने राजपथ से आगे की तंग गलियों में जाने की फ़ुरसत नहीं थी। कइयों के टिप्पणी बक्सों में लगे वर्ड वेरिफ़िकेशन जैसे झंझटों ने भी इनके ब्लॉग को टिप्पणियों से दूर किया। बची-खुची कसर उन तुनकमिज़ाज़ों ने पूरी कर दी जो टिप्पणी में सीधे जंग का ऐलान करते थे। कोई सामान्य ब्लॉगर ऐसी खतरनाक युद्धभूमि में कितनी देर ठहरता? सो देर-सवेर घर को रवाना हुआ। यद्यपि कई अस्थिर-चित्त ब्लॉगर ऐसे भी थे जो हर तीसरे दिन टंकी आरोहण की घोषणा सिर्फ़ इसी उद्देश्य से करते थे कि लोग आकर मनाएंगे तो कुछ टिप्पणियाँ जुटेंगी। किसे खबर थी कि उनकी चौपाल भी एक दिन वीरान होगी।

ऐसा नहीं है कि ब्लॉगिंग छूटने के सभी कारण निराशाजनक ही हों। बहुत से लोगों को ब्लॉगिंग ने अपनी पहचान बनाने में सहायता की। कितने ही साथी ब्लॉगर बनने के बाद लेखक, कवि और व्यंग्यकार बने। उनकी किताबें प्रकाशित हुईं। कुछ साथी ब्लॉगिंग के सहयोग से क्रमशः कच्चे-पक्के सम्पादक, प्रकाशक, आयोजक, पुरस्कारदाता, और व्यवसायी भी बने। कितनों ने अपनी वैबसाइटें बनाईं, पत्रिकाएँ और सामूहिक ब्लॉग शुरू किये। कुछ राजनीति से भी जुड़े।

खैर, अब ताऊ रामपुरिया के हिन्दी ब्लॉगिंग के पुनर्जागरण अभियान के अंतर्गत 1 जुलाई को "अंतरराष्ट्रीय हिन्दी ब्लॉगिंग दिवस" घोषित किये जाने की बात सुनकर आशा बंधी है कि हम अपनी ग़लतियों से सबक लेंगे और स्थिति को बेहतर बनाने वालों की कतार में खड़े नज़र आयेंगे।

शुभकामनाएँ!

Wednesday, December 31, 2014

बुद्धिजीवी कैसे बनते हैं?

सफल बुद्धिजीवी बनने के 6 सरल सूत्र

1) नाम
बुद्धिजीवी की पहली पहचान होती है उसका नाम। अपने लिए एक अलग सा नाम चुनें। अच्छा, बुरा, छोटा, बड़ा, चाहे जैसा भी हो, होना अजीबोगरीब चाहिए। वैसे चुनने को तो आप अदरक भी चुन सकते हैं लेकिन उस स्थिति में केवल आपका सब्जीवाला ही आपकी बुद्धिजीविता को पहचान सकेगा। सो आप किसी सब्जी के बजाय रूस, चीन, कोरिया, विएतनाम, क्यूबा आदि में हुई किसी खूनी क्रान्ति मिथक के किसी पात्र को चुन सकते हैं। जितना भावहीन पात्र हो बुद्धिजीविता उतनी ही बेहतर निखरेगी। अगर आप शुद्ध देसी नाम ही चलाना चाहते हैं तो भी अपने ठेठ देसी नाम राम परसाद, या चंपत लाल की जगह प्रचंड, तांडव, प्रलय, विप्लव, समर, रक्त, बारूद, सर्वनाश, युद्ध आदि कुछ तो ऐसा कर ही लीजिये जिससे आपके भीरु स्वभाव की गंध आपकी उद्दंडता के पीछे छिप जाये।

2) उपनाम
वैसे तो खालिस बुद्धिजीवी एकल नामधारी ही होता है। लेकिन यदि आप एकदम से ऊपर के पायदान पर बैठने में असहज (या असुरक्षित) महसूस कर रहे हों तो आरम्भ में अपना मूल नाम चालू रख सकते हैं। केवल एक उपनाम की दरकार है। वह भी न हो तो अपना कुलनाम ही किसी ऐसे नाम से बदल लीजिये जो क्रांतिकारी नहीं तो कम से कम परिवर्तनकारी तो दिखे। नाम अगर अङ्ग्रेज़ी के A अक्षर से शुरू हो तो किसी भी सूची में सबसे ऊपर दिखाई देगा। इसलिए सबसे आसान काम है किसी भी आदरणीय शब्द से पहले अ या अन चिपका दिया जाय। आजकल के ट्रेंड को देखते हुए अभारतीय, अनार्य, अद्रविड़, अहिंदू, अब्राह्मण, असंस्कृत, अनादर, और अशूर के हिट होने की काफी संभावना है। यदि ऐसा करना आपको ठीक न लगे तो बुद्धिजीवी से मिलता जुलता कोई शब्द चुनें, यथा: लेखजीवी, पत्रजीवी, परजीवी, तमजीवी, स्याहजीवी, कम्प्यूटरजीवी, कीबोर्डजीवी, व्हाट्सऐपजीवी आदि। यकीन मानिए, आधे लोग तो आपकी इस "GV" चाल से ही चित्त हो जाएँगे।

3) संघे शक्ति कलयुगे
कहावत है कि अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता। सो बुद्धिजीवी बनने के लिए मूर्खों की सहायता लीजिये। उनको अपने साथ मिलाकर दूसरों के फटे में टांग अड़ाने के सामूहिक प्रयोग आरम्भ कीजिये। मिलजुलकर एक संस्था रजिस्टर करवा लीजिये जिसके आजीवन अध्यक्ष, कोषाध्यक्ष, सचिव, व्यवस्थापक आदि सब आप ही हों। संस्था का नाम रचने के लिए अपने नाम से पहले प्रगतिशील, प्रोग्रेसफील, या तरक्कीझील जोड़ लीजिये। मसलन "तरक्कीझील सूखेलाल विरोध मंच"। यदि अपना नाम जोड़ने से बचना चाहते हैं तो किसी गरम मुद्दे को नाम में जोड़ लीजिये, यथा आतंक सुधार दल, नारीमन पॉइंट हड़ताल संघ, अनशन-धरना प्रोत्साहक मुख्यमंत्री समिति, सर्वकाम दखलंदाज़ी संगठन, लगाई-बुझाई समिति आदि। यदि आपको छोटा सा नाम चुनना है तो रास्ते के रोड़े जैसा कोई नाम चुनिये, प्रभाव पड़ेगा, लोग डरेंगे, उदाहरण: स्पीडब्रेकर, रोक दो, प्रतिरोध, गतिरोध, सड़क का गड्ढा, बारूदी सुरंग आदि। और यदि आपको ये सारे नाम पुरातनपंथी लगते हैं तो फिर चुनिये एक आक्रामक नाम, जैसे: पोलखोल, हल्लाबोल, पर्दाफाश, अंधविरोध, पीट दो आदि।

4) कर्मण्येवाधिकारस्ते 
अब संस्था बनाई है तो कुछ काम भी करना पड़ेगा। रोजाना दो-तीन बयान दे दीजिये। ओबामा ने आज पान नहीं खाया, यह बंगाल के पान-उत्पादक किसानों का अपमान है, आदि-आदि। अखबारों में आलेख भेजिये। आलेख न छपें तो पत्र लिखिए। पत्र भी न छपें तो अपने फेसबुक प्रोफाइल पर विरोध-पत्र पोस्ट कर दीजिये और अपने मित्रों से लाइक करवाइए। पड़ोस के किसी मंदिर, गुरुद्वारे, स्कूल, सचिवालय, थाने, अस्पताल आदि पहुँचकर अपने मोबाइल से वहाँ के हर बोर्ड का फोटो खींच लीजिये और बैठकर उनमें ऐसे चिह्न ढूंढिए जिनपर विवाद ठेला जा सके। कुछ भी न मिले तो फॉटोशॉप कर के विवाद उत्पन्न कर लीजिये। मंदिर के उदाहरण में "गैर-हिन्दू का प्रवेश वर्जित है" टाइप का कुछ भी लिखा जा सकता है। बहुत चलता है। बाकी तो आप खुद ही समझदार हैं, जमाने की नब्ज़ पहचानते हैं।

5) जालसाज़ी
ये जालसाज़ी वो वाली नहीं है जो नोट छापती है, ये है नेटवर्किंग। संस्था तो आप बना ही चुके हैं। सामाजिक चेतना के नाम पर थोड़ा बहुत चन्दा भी इकट्ठा कर ही लिया होगा। अब उस चंदे के प्रयोग से नेटवर्किंग का बाम मलिए और प्रगति के काम पर चलिये। ऐसे लोगों की सूची बनाइये जो आपके काम भी आ सकते हों और थोड़े लालची किस्म के भी हों। इनमें घंटाध्वनि प्रतिष्ठान के मालिक भी हो सकते हैं, बुझाचिराग के संपादक भी, सर्वहर समिति के अध्यक्ष भी, तंदूरदर्शन टीवी चैनल के प्रोड्यूसर भी और आसपड़ोस के अभिमानी और भ्रष्ट नौकरशाह भी। एक सम्मान समारोह आयोजित करके एक लाइन में सबको सम्मान सर्टिफिकेट बाँट दीजिये। अगर आपका चन्दा अच्छा हुआ है तो समारोह के बाद पार्टी भी कीजिये, हफ्ते भर में किरपा आनी शुरू हो जाएगी।

6) आत्मनिर्भरता 
इतने सब से भी अगर आपका काम न बने तो फिर आपको आत्मनिर्भर होना पड़ेगा। अपना खुद का एक टीवी चैनल, या पत्रिका या अखबार निकालिए। सबसे आसान काम एक न्यूज़ चैनल चलाने का है। तमाम अखबार पढ़कर सामग्री बनाइये और अपने इन्टरनेट कैफे में चाय लाने वाले लड़कों को टाई लगाकर "3 मिनट में 30 और 5 मिनट में 500 खबरें" जैसे कार्यक्रमों में कैमरे के सामने बैठा दीजिये। 8 मिनट तो ये हुये। 24 घंटों का बाकी काम हर मर्ज की दवा हकीम लुक़मान टाइप के विज्ञापनों से चल जाएगा। फिर भी जो एक घंटा बच जाये उसके बीच में आप अपनी बुद्धिजीवी विशेषज्ञता के साथ आजकल के हालात पर तसकरा कीजिये। पेनल के लिए पिछले कदम में सम्मानित लोगों में से कुछ को बारी-बारी से बुलाते रहिए। बोलने में घबराइये मत। चल जाये तो ठीक और अगर कभी लेने के देने पड़ जाएँ तो बड़प्पन दिखाकर बयान वापस ले लीजिये। टीवी पर रोज़ किसी न किसी गंभीर विषय पर लंबी-लंबी फेंकने वाला तो बुद्धिजीवी होगा ही। और फिर जनहित में हर हफ्ते अपना कोई न कोई बयान वापस लेने वाला तो सुपर-बुद्धिजीवी होना चाहिए।

... तो गुरु, हो जा शुरू, जुट जा काम पर। और जब बुद्धिजीवी दुकान चल निकले तो हमें वापस अपना फीडबैक अवश्य दीजिये।
जब फेसबुक पर एक मित्र "ठूँठ बीकानेरी" ने एक सहज सा प्रश्न किया, "ये बुद्धिजीवी कैसे बनते हैं?" तो बहुत से उत्तर आए। उन्हीं जवाबों के सहारे एक अन्य मित्र सतीश चंद्र सत्यार्थी के लिखे लाजवाब लेख "फेसबुक पर इंटेलेक्चुअल कैसे दिखें" तक पहुँच गये। गजब के सुझाव हैं। आप भी एक बार अवश्य पढ़िये। एक बुद्धिजीवी के रूप में अपना सिक्का कैसे जमाएँ, यह एक शाश्वत समस्या है। जिसका सामना बहुत से इंटरनेटजन अक्सर करते हैं। सत्यार्थी जी का आलेख उनके लिए अवश्य सहायक सिद्ध होगा। इसी संबंध में अब तक मेरे अनुभव में आए कुछ अन्य सरल बिन्दु यहाँ उल्लिखित हैं। इस लेख को सतीश के लेख का सहयोगी या पूरक समझा जा सकता है।