गंगा घाट के निकट उसे मेहनत से मसूर के खेत में पानी देते देखकर दिल्ली से आये पर्यटक से रहा न गया। पास जाकर कंधे पर हाथ रखकर पूछा, “कितनी फसल होती है तुम्हारे खेत में?”
“यह मेरा खेत नहीं है।”
“अच्छा! यहाँ मज़दूरी करते हो? कितने पैसे मिल जाते हैं रोज़ के?”
“जी नहीं, मैं यहाँ नहीं रहता, कर्नाटक से तीर्थयात्रा के लिये आया था। गंगाजी में पितृ तर्पण करने के बाद यूँ ही सैर करते-करते इधर निकल आया।”
“न मालिक, न नौकर! फिर क्यों हाड़ तोड़ रहे हो? इसमें तुम्हारा क्या फ़ायदा?”
“हर व्यक्ति, हर काम फ़ायदे के लिये करता तो संसार में कुछ भी न बचता ...” वह मुस्कुराया, “खेत किसका है, मालिक कौन है, इससे मुझे क्या?”
“हैं!?”
“... भूड़ में सूखती फसल देखी तो लगा कि इसे भी तर्पण की आवश्यकता है।”
“यह मेरा खेत नहीं है।”
“अच्छा! यहाँ मज़दूरी करते हो? कितने पैसे मिल जाते हैं रोज़ के?”
“जी नहीं, मैं यहाँ नहीं रहता, कर्नाटक से तीर्थयात्रा के लिये आया था। गंगाजी में पितृ तर्पण करने के बाद यूँ ही सैर करते-करते इधर निकल आया।”
“न मालिक, न नौकर! फिर क्यों हाड़ तोड़ रहे हो? इसमें तुम्हारा क्या फ़ायदा?”
“हर व्यक्ति, हर काम फ़ायदे के लिये करता तो संसार में कुछ भी न बचता ...” वह मुस्कुराया, “खेत किसका है, मालिक कौन है, इससे मुझे क्या?”
“हैं!?”
“... भूड़ में सूखती फसल देखी तो लगा कि इसे भी तर्पण की आवश्यकता है।”
वाह
ReplyDeleteवाह ! सूखती फसल को देखकर जल देने का भाव मन में जगे तो सारे तीर्थों का फल उसी क्षण मिल गया...कण-कण में उसी जीवन को देखने की कला जिसे आ गयी उसी की भक्ति सफल है..
ReplyDeleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 4.10.18 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3114 में दिया जाएगा
ReplyDeleteधन्यवाद
धन्यवाद!
Deleteधन्यवाद!
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना "साप्ताहिक मुखरित मौन में" शनिवार 06 अक्टूबर 2018 को साझा की गई है......... https://mannkepaankhi.blogspot.com/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteधन्यवाद
Deleteबहुत सुन्दर
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