इंडिया बनाम भारत जैसी गरमागरम बहसों के बीच एक भारतीय धार्मिक विचारक के एक शताब्दी से अधिक पुराने शब्दों पर एक नज़रयह कथन असंगत है कि अमेरिकावासी डालर (लक्ष्मी) के दास हैं। सच तो यह है कि लक्ष्मी स्वयं सरस्वती के पीछे लगी रहती है। जो लोग यह आरोप मढ़ते हैं कि अमेरिकनों का धर्म नक़द धर्म नहीं वरन नक़दी धर्म है, वे या तो अमरीका की सही स्थिति का ज्ञान नहीं रखते अथवा वे घोर अन्यायी हैं, और ‘अंगूर न मिलें तो खट्टे’ वाली कहावत उन पर चरितार्थ होती है।
कैलीफोर्निया में एक नारी ने अठारह करोड़ रुपया अर्पित कर एक विश्वविद्यालय की स्थापना की। इसी प्रकार उस देश में विद्या की उन्नति और प्रसार के लिये प्रतिवर्ष करोड़ों का दान दिया जाता है। भारत की ब्रह्मविद्या की वहाँ कदर इसी से प्रकट है, कि जैसा ‘व्यावहारिक वेदांत’ अमेरिका में इस समय व्यवहृत हो रहा है। वैसा भारत में आज नहीं है। उन लोगों ने यद्यपि भारत के वेदांत को अपने में पचा लिया है और मनसा कर्मणा गृहण कर लिया है, फिर भी वे हिन्दू नहीं बन गये हैं।
वैसे ही हम भी उनके ज्ञान कला कौशल को अपने में पचा लेने पर भी अपनी राष्ट्रीयता को कायम रख सकते हैं। वृक्ष बाहर से खाद संग्रह करते हैं, स्वयं खाद नहीं बन जाते। बाहर की मिट्टी, जल वायु प्रकाश आदि ग्रहण करती और अपने में पचा लेती है, किन्तु वह स्वयं जल, वायु और प्रकाश नहीं हो जाती।
जापानियों ने अमेरिका और योरोप के विज्ञानशास्त्र और नाना कला कौशल को अपने में पचा लिया, फिर भी जापानी ही बने रहे। देवों ने अपने यहाँ से कुछ को असुरों के पास भेजकर उनकी जीवन तुल्य संजीवनी विद्या, सीख ली, परंतु वे असुर नहीं हो गये। इसी प्रकार तुम लोग भी अमेरिका, यूरोप आदि जाकर वहाँ से ज्ञान विज्ञान कला कौशल प्राप्त करो और इससे तुम्हारे धर्म और राष्ट्रीयता में धब्बा न आयेगा। जो लोग विद्या और ज्ञान, को भौगोलिक सीमा में परिसीमित करते हैं, जिनका कथन है, कि विदेशियों का ज्ञान हमारे यहां आने से अधर्म होगा और हम अपने ज्ञान को स्वदेश की सीमा से बाहर दूसरों के कल्याण के लिये क्यों जाने दें, और इस प्रकार जो लोग अपना ज्ञान पराया ज्ञान कहकर ज्ञान में विभाजन करते हैं, वे अपने ज्ञान को अज्ञान में बदलते हैं।
इस कमरे में प्रकाश फैला है। यह प्रकाश अत्यंत लुभावना और सुहावना है ! यदि हम कहें कि यह प्रकाश हमारा है, एकमात्र हमारा है, हाय, यह कहीं बाहर के प्रकाश से मिलकर अपवित्र न हो जाय; और इस भय से हम अपने प्रकाश को सुरक्षित रखने के लिये, कमरे की खिड़कियाँ रौशनदान कपाट सब बंद कर दें; चिकें, परदे गिरा दें, तो परिणाम यह होगा कि वह स्वयं प्रकाश ही लुप्त हो जायगा। नहीं-नहीं कस्तूरी के समान काला नितांत अंधकार छा जायगा। हाय, हम लोगों ने भारत में इस भ्रान्तिमूलक धारणा और चलन को क्या अपना लिया।
हब्बुलवतन अज मुल्के सुलेमाँ खुश्तर।इसे भूलकर स्वयं काँटा बन जाना और स्वदेश को काँटों का वन बना देना, यह कैसी देशभक्ति है? साधारण तौर पर एक ही प्रकार के वृक्ष जब गुन्जान समूहों में इकट्ठा उगते हैं, तो सब कमजोर रहते हैं। इनमें से किसी को उस झुण्ड से अलग ले जाकर कहीं बो दें तो वही बढ़कर बड़ा और अति पुष्ट हो जाता है। यही स्थिति राष्ट्रों और जातियों की है। कश्मीर के संबंध में कहा जाता है-
खारे-वतन अज संबुले-रेहाँ खुश्तर।।
गर फिरदौस ब-रु-ए ज़मींनस्त, हमींनस्त हमींनस्त हमींनस्त!!किन्तु यही कश्मीरी लोग, जो अपने स्वर्ग अर्थात् कश्मीर से बाहर निकलना पाप समझते हैं, अपनी कमजोरी नादानी और गरीबी लिये प्रख्यात हैं। और वह पुरुषार्थी कश्मीरी पण्डित जो उस फिरदौस से बाहर निकलकर आये, उन्होंने अन्य भारतवासियों को हर बात में मात कर दिया। वे सब ऊँचे-ऊँचे ओहदों पर विराजमान हैं। जापानी जब तक जापान में बन्द रहे, वे कमजोर और पस्त रहे। जब वे विदेशों को जाने लगे, वहाँ की हवा लगी, वे सशक्त हो गये। योरोप के गरीब धनहीन और प्रायः निम्न स्तर के लोग जहाजों पर सवार होकर अमरीका जा बसे और आज उनकी जमात संसार की सबसे शक्तिशाली कौम है। कुछ भारत वासियों ने भी विदेश का मुँह देखा। जब तक स्वदेश में रहे उनकी कोई पूछ-गछ न थी। विदेशों में गये तो उन उन्नत कौमों में प्रथम श्रेणी के समझे गये और उन्होंने ख्याति प्राप्त की।
पानी न बहे तो उसमें बू आये, खञ्जर न चले तो मोरचा खाये।वृक्ष सारी रुकावटों को काटकर अपनी जड़ों को वहाँ प्रविष्ट कर देते हैं जहाँ जल प्राप्त हो। इसी प्रकार अमेरिका, जर्मनी, जापान, इँगलैण्ड के लोग सागरों को चीरकर, पर्वतों को काटकर धन खर्च करके, सभी प्रकार की विपत्तियों और कष्टों को झेलकर वहाँ-वहाँ पहुँचे, जहाँ से उन्हें कम या ज्यादा, किसी भी प्रकार का ज्ञान हो सका। यह तो है एक कारण उनकी उन्नति का।
गर्दिश से बढ़ा लिहर व मह का पाया, गर्दिश से फ़लक ने औज़ पाया।
(~ स्वामी रामतीर्थ)
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि-
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा आज सोमवार (22-04-2013) के 'एक ही गुज़ारिश' :चर्चामंच 1222 (मयंक का कोना) पर भी होगी!
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ!
सूचनार्थ...सादर!
आभार शास्त्री जी!
Deleteइस तरह का लेख बहुत दिनों बाद पढ़ने को मिला. तमसो मा ज्योतिर्गमय देने वाले मनीषि भारतीय ही हैं, लेकिन हमारे अन्दर का तम पता नहीं कब दूर होगा.
ReplyDeleteएक शताब्दी पूर्व कही बातें आज के समय भी काफ़ी हद तक सटीक हैं। बाकी जगह कमोबेश यही स्थिति है लेकिन कश्मीर में? कश्मीरी पंडितों को शायद मजबूत बनाने के लिये ही घाटी से बाहर खदेड़ा बेचारे कट्टरपंथियों ने और खुद मजबूत होने के लिये पाकिस्तान आते जाते रहते हैं। माफ़ कीजियेगा, मैं शायद सुबह सुबह बहक रहा हूँ। लौटकर आऊँगा, किसी की भावनायें आहत हुईं तो माफ़ी-वाफ़ी माँगकर मामला रफ़ा-दफ़ा कर लेंगे।
ReplyDeleteनानक दुखिया सब संसार ... (हमें तो चन्दन ने जलाया है मगर हमारा मूआमला अलग है)
Delete1906 में जलसमाधि ले लेने वाले स्वामीजी ने तो विभाजन की विभीषिका भी नहीं देखी थी। लेकिन क्या उससे उनकी कही बात पर कोई फर्क पड़ता है?
ये बात तो है, उनकी कही बात पर कोई फ़र्क नहीं पड़ता है।
Delete"वृक्ष बाहर से खाद संग्रह करते हैं, स्वयं खाद नहीं बन जाते" स्वामी रामतीर्थ जी के उद्गार ने हमारे ज्ञान चक्षुओं को सही दिशा में केंद्रित करने में अमूल्य योगदान दिया है.
ReplyDelete"वृक्ष बाहर से खाद संग्रह करते हैं, स्वयं खाद नहीं बन जाते" स्वामी रामतीर्थ जी के उद्गार ने हमारे ज्ञान चक्षुओं को सही दिशा में केंद्रित करने में अमूल्य योगदान दिया है.
ReplyDeleteनिसंदेह ज्ञान पर किसी का एकाधिकार नहीं होता. ज्ञान सूर्य समान सर्वत्र जगत को प्रकाशित करने के लिए ही होता है. उत्तम ज्ञान जहाँ कहीं भी हो अर्जित करना ही ज्ञान की उपादेयता है.
ReplyDeleteकोयल अगर हमारे आँगन में टहुकती है तब भी गीत का आनंद सभी आँगन को आना चाहिए और पुष्प अगर पडौसी के बाग में महकता है तो सौरभ सभी को प्राप्त होनी चाहिए.
ज्ञान के आदान-प्रदान में समस्या तब आती है जब मूढता व तुच्छता का बोध करवाने के लिए ही ज्ञान व चरित्र को बघारा जाता है.एक छोटे बालक को भी यह कहते हुए समझाने जाएँ कि- "अरे मूर्ख तूँ यह भी नहीं जानता" श्रेष्ठ जानकारी के बावजूद भी बालक की प्रतिक्रिया,प्रतिकार की होती है.बाहरी प्रकाश जब सौम्य रश्मियाँ लेकर आता है खिडकियाँ खोल दी जाती है,और वही प्रकाश जब तीखी धूप का रूप लेकर आता है, पर्दे गिराना ही उपाय रह जाता है.
दूसरी ओर जब ज्ञान के गौरव बोध को कोंच कोंच कर हीन बोध महसूस करवाया जाता है प्रतिक्रिया स्वरूप गर्व करने लायक संदर्भो को खोज खोज कर,प्रकट कर अपने ज्ञान के अस्तित्व को संरक्षित करने में लग जाता है. क्योंकि तुलना थोपी जाती है अतः अपने ज्ञान को अभिन्न और विशिष्ट दर्शाने की जिजीविषा में गौरव-गान व्यस्त होना विवशता बन जाती है जिसे दुर्भाग्य से झूठा गौरव मण्डन समझा जाता है.(विशिष्ट व्यक्त होना प्राकृतिक जिजीविषा है)
आपकी पोस्ट ज्ञान के अबाधित सहज प्रवाह की आवश्यकता को बखूबी स्थापित करती है.
जी, समझ रहा हूँ।
Deleteपोस्ट के माध्यम से स्वामी रामतीर्थ जी की जिस बात का अनुमोदन किया है आपने वो बिलकुल सत्य है ... आज भी प्रासंगिक है ... सदियों के काल खंड में कुछ सौ वर्षों का समय मायने नहीं रखता ... पर जिस जिस सभ्यता ने अपने गर्व को ... अपने सहस ओर इमानदारी को तजा है वो लुप्त होती जाती हैं ...
ReplyDeleteबहुत ही व्यवहारपरक और विस्तृत अनुभव तथा सच्चाई। अत्यन्त व्यावहारिक बात।
ReplyDeletebharat desh main kuch kahawate hai...
ReplyDelete1.dev dev alasi pukara...
2.ajgar kare na chakari panchi kare na kaam das maluka keha gaye sabke data ram...
3.allaha dege khane ko kahe ko jaye kamane ko...
lakin in sabke wavjood jo karm sheel hai apna rasta khud bana lete hai..
jai baba banaras...
bharat desh main kuch kahawate hai...
ReplyDelete1.dev dev alasi pukara...
2.ajgar kare na chakari panchi kare na kaam das maluka keha gaye sabke data ram...
3.allaha dege khane ko kahe ko jaye kamane ko...
lakin in sabke wavjood jo karm sheel hai apna rasta khud bana lete hai..
jai baba banaras...
स्वामी रामतीर्थ जी की देशनाएं अदभुत थी, आभार इस विषय पर आलेख के लिये.
ReplyDeleteरामराम.
आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल २३ /४/१३ को चर्चा मंच पर राजेश कुमारी द्वारा की जायेगी आपका वहां हार्दिक स्वागत है ।
ReplyDeleteधन्यवाद राजेश जी!
Deleteजो लोग अपना ज्ञान पराया ज्ञान कहकर ज्ञान में विभाजन करते हैं, वे अपने ज्ञान को अज्ञान में बदलते हैं।
ReplyDeleteसटीक टिपण्णी
बहुत सामयिक ,एक प्रकार से चेतावनी है उन जो अतीत के गाने गाते औरआत्म-स्तुति करते वर्मान से आँखें मूँद लेते है.
ReplyDeleteप्रस्तुति हेत आभार!
सोचती हूँ आज हम भारतीय अपना ही मान कैसे गवां रहे हैं ..... ?
ReplyDeleteसुंदर सार्थक पोस्ट , आभार
ज्ञान की सरिता पर कौन बाँध बाँध सका है... बहुत खूबसूरत और स्वतः प्रवाहित आलेख!!
ReplyDeleteआपका हार्दिक आभार सलिल जी।
Deleteइस पोस्ट पर टिपण्णी करना बाकी रहा। शायद पूरी पोस्ट बन जाए। समय मिलते ही लिखती हूँ।
ReplyDeleteअभी सिर्फ इतना ही
बहुत अच्छी पोस्ट।
सारी अच्छाइयाँ समाहित कर हम भी अपनी संस्कृति के बने रहें, यही हमारी कुशलता होगी।
ReplyDeleteज्ञान प्राप्ति में दिमाग का दिल का खुलापन ही कारगर है , बंधन में ज्ञान का विस्तार नहीं है !
ReplyDeleteसार सार कों गहि रहै......... अच्छा आलेख पढ़वाया आपने। आभार अनुराग भाई।
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