Saturday, September 6, 2025

प्रहरी की यात्रा - 1

सूरज उगना भूल गया था,
सन्नाटा चीखों से टूट गया था,
वहाँ गया था वह, कर्तव्य निभाने, 
न सम्मान ढूंढने, न लाभ कमाने।

सज्जन, सैनिक, योद्धा, वह अधिकारी,
जिसकी प्रतिज्ञा थी मौन, लेकिन भारी,
धूसरित राहों में, अनसुनी आहों में,
जहाँ साहस के सिवा मार्गदर्शक कोई न था।

न ताज चाहा, न कवि-वंदना, न वाहवाही,
हिंसा झेली, देखी दुश्मन की आवाजाही।
जहाँ आतंक विष बेलों सा फैला रहा,
और सत्य बारूद के नीचे कुचला रहा।

बगावत जंगल में फुसफुसाती थी,
कट्टरता लहू बहाने को उकसाती थी,
मुण्डों के आसन के तानाशाहों से,
निर्भीक, वह लड़ता रहा, वर्षों तक।

उसका यौवन, एक दीपक अंधेरे में,
मार्गदर्शक रहा, मौत के घेरे में।
हर धड़कन एक प्रहरी की ताल,
हर श्वास एक चुनौती भरा सवाल।

उसने अपना जीवन अर्पित किया
राष्ट्र, मानवता, और परिवार के लिए।
वह लड़ा, कभी झुका नहीं,
वह बहा, कहीं रुका नहीं।

एक टांग पहाड़ों में छूट गई,
आँख, संगीन से टूट गई,
दो हाथ जो मानवता के रक्षक थे,
एक काँपता है, दूसरा नहीं रहा।

जिस कान ने कप्तान की पुकार सुनी,
अब उसमें भूतों की गूँज बची है।
सीने में अब भी युद्ध चलता है,
वह बेबस, अब जंजीरों से बँधा है।

न पेंशन, न बचत की छाया,
सिर्फ खाली कमरों की माया।
अपने नगर में, घर में, बेगाना है,
हर द्वार, व्यक्ति के लिये अनजाना है।

नये अभियान पर भेजा गया
शयनकक्ष से हटाकर बैठक में,
फिर बैठक से भण्डार में,
भण्डार से तहखाने की यात्रा अधूरी थी।

तहखाने से गराज तक,
गराज से फ़ुटपाथ तक,
फ़ुटपाथ से बेघर-शरणालय तक,
यात्रा चली,  सरकारी अस्पताल के बाहर, मृत्यु तक।

नायक मिट गया, कृतघ्न जगत की रीत में,
वह उड़ा, धुआँ बनकर, बेनामी चिता से।
न बिगुल, न ध्वज, न सलामी, अंतिम आहुति में,
मौन दाह, शांत श्मशान, साक्षी - एकल महाब्राह्मण।

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