(अनुराग शर्मा)
पंडित रामप्रसाद बिस्मिल और उनके कई साथियों की फाँसी के बाद चन्द्रशेखर आज़ाद ने जब हिन्दुस्तान रिपब्लिकन आर्मी के पुनर्गठन का बीडा उठाया तब नई संस्था हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन ऐसोसियेशन (HSRA = हि.सो.रि.ए.) को पंजाब की ओर से भी सक्रिय योगदान मिला। उस समय लाहौर में लाला लाजपत राय के 'पंजाब नेशनल कॉलेज' में सरदार भगतसिंह, यशपाल, भगवतीचरण वोहरा, सुखदेव थापर, तीर्थराम, झण्डासिंह आदि क्रांतिकारी एकजुट हो रहे थे। सुखदेव थापर ने पंजाब नेशनल कॉलेज में भारत के स्वाधीनता संग्राम के दिशा-निर्देशन के लिए एक अध्ययन मण्डल की स्थापना की थी। भगवतीचरण वोहरा और भगत सिंह नौजवान भारत सभा के सह-संस्थापक थे। भगवतीचरण वोहरा "नौजवान भारत सभा" के प्रथम महासचिव भी थे। हिसोरिए में पंजाब से आने वाले क्रांतिकारियों में उपरोक्त नाम प्रमुख थे।
आज 23 मार्च का दिन शहीदत्रयी यानि सुखदेव, भगतसिंह और राजगुरु के नाम समर्पित रहा है। 1931 में इसी दिन शहीदत्रयी ने फाँसी को गले लगाया था। आइये एक बार फिर उन वीरों के दर्शन करें जिन्होने हमारी व्यक्तिगत, राजनीतिक, धार्मिक स्वतन्त्रता और उज्ज्वल भविष्य की कमाना में अल्पायु में ही अपना सर्वस्व त्याग दिया।
8 अप्रैल 1929 को भगतसिंह के साथ असेंबली में बम फेंकने वाले बटुकेश्वर दत्त को पहले ही आजीवन कारावास घोषित हुआ था। फिर लाहौर षडयंत्र काण्ड में अदालत की बदनीयती के चलते जब यह आशंका हुई कि अंग्रेज़ सरकार शहीदत्रयी को मृत्युदंड देने का मन बना चुकी है तब भाई भगवती चरण वोहरा और भैया चंद्रशेखर आजाद ने मिलकर बलप्रयोग द्वारा उन्हें जेल से छुड़ाने की योजना बनाई। आज़ाद द्वारा भेजे गये दो क्रांतिकारियों और अपने कुछ साथियों के साथ मिलकर इसी उद्देश्य से बनाए जा रहे शक्तिशाली बमों के परीक्षण के समय 28 मई 1930 को रावी नदी के किनारे हुए एक विस्फोट ने वोहरा जी को हमसे सदा के लिये छीन लिया। भाई भगवतीचरण वोहरा के असामयिक निधन के साथ शहीदत्रयी को जेल से छुड़ने के शक्ति-प्रयास भी मृतप्राय से हो गए।
वोहरा जी की हृदयविदारक मृत्यु के दारुण दुख के बावजूद चन्द्रशेखर आज़ाद ने आशा का दामन नहीं छोड़ा और गिरफ्तार क्रांतिकारियों को छुड़ाने के लिए राजनीतिक प्रयास आरंभ किए। इसी सिलसिले में कॉङ्ग्रेस के नेताओं से मुलाकातें कीं। ऐसी ही एक मुलाक़ात में पंडित नेहरू से तथाकथित बहसा-बहसी के बाद इलाहाबाद के एलफ्रेड पार्क में पुलिस मुठभेड़ का कड़ा मुक़ाबला करने के बाद उन्होने अपनी कनपटी पर गोली मारकर अपने नाम "आज़ाद" को सार्थक किया।
राजगुरु
क्रांतिकारियों के बीच राजगुरु नाम से जाने गए इस यशस्वी नायक का पूरा नाम हरि शिवराम राजगुरु है। उनका जन्म 1908 में हुआ था। उस काल के अनेक प्रसिद्ध शहीदों की तरह वे भी चंद्रशेखर आज़ाद के नेतृत्व वाले हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के सम्मानित सदस्य थे। उन्होने साइमन कमीशन के विरुद्ध प्रदर्शनों में पंजाब केसरी लाला लाजपत राय के साथ भाग लिया था। पंजाब केसरी की हत्या का बदला लेने की गतिविधियों में उनकी उल्लेखनीय प्रस्तुति रही थी। लेकिन उनकी मशहूरी दिल्ली असेंबली बम कांड की शहीदत्रयी में शामिल होने के कारण अधिक हुई क्योंकि इसी घटना के कारण मात्र 23 वर्ष की उम्र में उन्होने हँसते-हँसते मृत्यु का वरण किया।
सुखदेव थापर
15 मई 1907 को जन्मे सुखदेव थापर हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के वरिष्ठ और सक्रिय सदस्य थे। वे पंजाब केसरी की हत्या का बदला लेने की गतिविधियों और 1928 के हत्याकांड में भगत सिंह और राजगुरु के सहभागी थे। 1929 में जेल में हुई भूख हड़ताल में भी शामिल थे। सुखदेव ने गांधी जी को एक खुला पत्र भी लिखा था जिसे उनके भाई मथुरादास ने महादेव देसाई को पहुँचाया। था। गांधी जी ने सुखदेव की इच्छा के अनुसार उस पत्र का उत्तर एक जनसभा में दिया था। इन्हीं मथुरादास थापर का विश्वास था कि क्रांतिकारियों का साथी और हिन्दी लेखक यशपाल एक पुलिस मुखबिर था।
सरदार भगतसिंह
पब्लिक सेफ्टी और ट्रेड डिस्प्यूट बिल की बदनीयती पर ध्यान आकर्षित करने के लिये क्रांतिकारियों के बनाये कार्यक्रम के अनुसार बटुकेश्वर दत्त और भगतसिंह द्वारा सेंट्रल एसेंबली में कच्चा बम फेंकने के बाद भगतसिंह ने घटनास्थल पर ही गिरफ़्तारी दी और इस सिलसिले में बाद में कई अन्य क्रांतिकारियों की गिरफ़्तारी हुई। शहीदत्रयी (राजगुरु, सुखदेव और भगत सिंह) द्वारा न्यायालय में पढ़े जाने वाले बयान "भाई" भगवतीचरण वोहरा द्वारा पहले से तैयार किये गये थे। 23 मार्च 1931 को हँसते-हँसते फांसी चढ़कर भगतसिंह ने भारत के स्वाधीनता संग्राम में अपना नाम अमर कर दिया।
80 दशक के प्रारम्भिक वर्षो से भगतसिंह पर रिसर्च कर रहे उनके सगे भांजे प्रोफेसर जगमोहन सिंह के अनुसार भगतसिंह पिस्तौल की अपेक्षा पुस्तक के अधिक करीब थे। उनके अनुसार भगतसिंह ने अपने जीवन में केवल एक बार गोली चलाई थी, जिससे सांडर्स की मौत हुई। उनके अनुसार भगतसिंह के आगरा स्थित ठिकाने पर कम से कम 175 पुस्तकों का संग्रह था। चार वर्षो के दौरान उन्होंने इन सारी किताबों का अध्ययन किया था। पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल की तरह उन्हें भी पढ़ने की इतनी आदत थी कि जेल में रहते हुए भी वे अपना समय पठन-पाठन में ही लगाते थे।
हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन ऐसोसिएशन में भगत सिंह का कूटनाम "रणजीत" था। कानपुर के "प्रताप" में वे "बलवंत सिंह" के नाम से तथा दिल्ली के "अर्जुन" में "अर्जुन सिंह" के नाम से लिखते थे।
चंद्रशेखर आज़ाद
चन्द्रशेखर आज़ाद असेम्बली में बम फ़ेंकने के पक्ष में नहीं थे परंतु हिसोरिए के प्रमुख सेनापति होने के बावजूद उन्होंने अपने साथियों की इच्छा को माना। तब भी वे बम फेंककर गिरफ़्तार हो जाने के विरोधी रहे और असेम्बली के बाहर कार लेकर क्रांतिकारियों का इंतज़ार भी करते रहे थे। काश उनके साथी उनकी बात मान लेते!
1933 में छपा शहीदत्रयी पोस्टर |
आज 23 मार्च का दिन शहीदत्रयी यानि सुखदेव, भगतसिंह और राजगुरु के नाम समर्पित रहा है। 1931 में इसी दिन शहीदत्रयी ने फाँसी को गले लगाया था। आइये एक बार फिर उन वीरों के दर्शन करें जिन्होने हमारी व्यक्तिगत, राजनीतिक, धार्मिक स्वतन्त्रता और उज्ज्वल भविष्य की कमाना में अल्पायु में ही अपना सर्वस्व त्याग दिया।
लाला लाजपत राय |
वोहरा जी की हृदयविदारक मृत्यु के दारुण दुख के बावजूद चन्द्रशेखर आज़ाद ने आशा का दामन नहीं छोड़ा और गिरफ्तार क्रांतिकारियों को छुड़ाने के लिए राजनीतिक प्रयास आरंभ किए। इसी सिलसिले में कॉङ्ग्रेस के नेताओं से मुलाकातें कीं। ऐसी ही एक मुलाक़ात में पंडित नेहरू से तथाकथित बहसा-बहसी के बाद इलाहाबाद के एलफ्रेड पार्क में पुलिस मुठभेड़ का कड़ा मुक़ाबला करने के बाद उन्होने अपनी कनपटी पर गोली मारकर अपने नाम "आज़ाद" को सार्थक किया।
राजगुरु
क्रांतिकारियों के बीच राजगुरु नाम से जाने गए इस यशस्वी नायक का पूरा नाम हरि शिवराम राजगुरु है। उनका जन्म 1908 में हुआ था। उस काल के अनेक प्रसिद्ध शहीदों की तरह वे भी चंद्रशेखर आज़ाद के नेतृत्व वाले हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के सम्मानित सदस्य थे। उन्होने साइमन कमीशन के विरुद्ध प्रदर्शनों में पंजाब केसरी लाला लाजपत राय के साथ भाग लिया था। पंजाब केसरी की हत्या का बदला लेने की गतिविधियों में उनकी उल्लेखनीय प्रस्तुति रही थी। लेकिन उनकी मशहूरी दिल्ली असेंबली बम कांड की शहीदत्रयी में शामिल होने के कारण अधिक हुई क्योंकि इसी घटना के कारण मात्र 23 वर्ष की उम्र में उन्होने हँसते-हँसते मृत्यु का वरण किया।
सुखदेव थापर
15 मई 1907 को जन्मे सुखदेव थापर हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के वरिष्ठ और सक्रिय सदस्य थे। वे पंजाब केसरी की हत्या का बदला लेने की गतिविधियों और 1928 के हत्याकांड में भगत सिंह और राजगुरु के सहभागी थे। 1929 में जेल में हुई भूख हड़ताल में भी शामिल थे। सुखदेव ने गांधी जी को एक खुला पत्र भी लिखा था जिसे उनके भाई मथुरादास ने महादेव देसाई को पहुँचाया। था। गांधी जी ने सुखदेव की इच्छा के अनुसार उस पत्र का उत्तर एक जनसभा में दिया था। इन्हीं मथुरादास थापर का विश्वास था कि क्रांतिकारियों का साथी और हिन्दी लेखक यशपाल एक पुलिस मुखबिर था।
सरदार भगतसिंह
पब्लिक सेफ्टी और ट्रेड डिस्प्यूट बिल की बदनीयती पर ध्यान आकर्षित करने के लिये क्रांतिकारियों के बनाये कार्यक्रम के अनुसार बटुकेश्वर दत्त और भगतसिंह द्वारा सेंट्रल एसेंबली में कच्चा बम फेंकने के बाद भगतसिंह ने घटनास्थल पर ही गिरफ़्तारी दी और इस सिलसिले में बाद में कई अन्य क्रांतिकारियों की गिरफ़्तारी हुई। शहीदत्रयी (राजगुरु, सुखदेव और भगत सिंह) द्वारा न्यायालय में पढ़े जाने वाले बयान "भाई" भगवतीचरण वोहरा द्वारा पहले से तैयार किये गये थे। 23 मार्च 1931 को हँसते-हँसते फांसी चढ़कर भगतसिंह ने भारत के स्वाधीनता संग्राम में अपना नाम अमर कर दिया।
80 दशक के प्रारम्भिक वर्षो से भगतसिंह पर रिसर्च कर रहे उनके सगे भांजे प्रोफेसर जगमोहन सिंह के अनुसार भगतसिंह पिस्तौल की अपेक्षा पुस्तक के अधिक करीब थे। उनके अनुसार भगतसिंह ने अपने जीवन में केवल एक बार गोली चलाई थी, जिससे सांडर्स की मौत हुई। उनके अनुसार भगतसिंह के आगरा स्थित ठिकाने पर कम से कम 175 पुस्तकों का संग्रह था। चार वर्षो के दौरान उन्होंने इन सारी किताबों का अध्ययन किया था। पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल की तरह उन्हें भी पढ़ने की इतनी आदत थी कि जेल में रहते हुए भी वे अपना समय पठन-पाठन में ही लगाते थे।
हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन ऐसोसिएशन में भगत सिंह का कूटनाम "रणजीत" था। कानपुर के "प्रताप" में वे "बलवंत सिंह" के नाम से तथा दिल्ली के "अर्जुन" में "अर्जुन सिंह" के नाम से लिखते थे।
चंद्रशेखर आज़ाद
चन्द्रशेखर आज़ाद असेम्बली में बम फ़ेंकने के पक्ष में नहीं थे परंतु हिसोरिए के प्रमुख सेनापति होने के बावजूद उन्होंने अपने साथियों की इच्छा को माना। तब भी वे बम फेंककर गिरफ़्तार हो जाने के विरोधी रहे और असेम्बली के बाहर कार लेकर क्रांतिकारियों का इंतज़ार भी करते रहे थे। काश उनके साथी उनकी बात मान लेते!
अमर हो स्वतन्त्रता