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Saturday, July 1, 2017

हिंदी ब्लॉगिंग का सत्यानाश #हिन्दी_ब्लॉगिंग

सन 2008 की गर्मियों में जब मैंने यूनिकोड और लिप्यंतरण (ट्रांसलिटरेशन) की सहायता से हिंदी ब्लॉग लेखन आरम्भ किया तब से अब तक के चिठ्ठा-जगत में आमूलचूल परिवर्तन आ चुका है। यदि वह ब्लॉगिंग का उषाकाल था तो अब सूर्यास्त के बाद की रात है। अंधेरी रात का सा सन्नाटा छाया हुआ है जिसमें यदा-कदा कुछ ब्लॉगर कवियों की रचनाएँ खद्योतसम टिमटिमाती दिख जाती हैं। इन नौ-दस वर्षों में आखिर ऐसा क्या हुआ जो हिन्दी ब्लॉगिंग का पूर्ण सत्यानाश हो गया?

एक कारण तो बहुत स्पष्ट है। ब्लॉगिंग में बहुत से लोग ऐसे थे जो यहाँ लिखने के लिये नहीं, बातचीत और मेल-मिलाप के लिये आये थे। ब्लॉगिंग इस कार्य के लिये सर्वश्रेष्ठ माध्यम तो नहीं था लेकिन फिर भी बेहतर विकल्प के अभाव में काम लायक जुगाड़ तो था ही। वैसे भी एक आम भारतीय गुणवत्ता के मामले में संतोषी जीव है और जुगाड़ को सामान्य-स्वीकृति मिली हुई है। खाजा न सही भाजी सही, जो उपलब्ध था, उसीसे काम चलाते रहे। ब्लॉगर मिलन से लेकर ब्लॉगिंग सम्मेलन तक काफ़ी कुछ हुआ। लेकिन जब फ़ेसबुक जैसा कुशल मिलन-माध्यम (सोशल मीडिया) हाथ आया तो ब्लॉगर-मित्रों की मानो लॉटरी खुल गई। त्वरित-चकल्लस के लिये ब्लॉगिंग जैसे नीरस माध्यम के मुकाबले फ़ेसबुक कहीं सटीक सिद्ध हुई। मज़ेदार बात यह है कि ब्लॉगिंग के पुनर्जागरण के लिये चलाया जाने वाला '#हिन्दी_ब्लॉगिंग' अभियान भी फ़ेसबुक से शक्तिवर्धन पा रहा है।

तकनीकी अज्ञान के चलते बहुत से ब्लॉगरों ने अपने-अपने ब्लॉग को अजीबो-गरीब विजेट्स का अजायबघर बनाया जिनमें से कई विजेट्स अधकचरे थे और कई तो खतरनाक भी। कितने ही ब्लॉग्स किसी मैलवेयर या किसी अन्य तकनीकी खोट के द्वारा अपहृत हुए। उन पर क्लिक करने मात्र से पाठक किन्हीं अवाँछित साइट्स पर पहुँच जाता था। तकनीकी अज्ञान ने न केवल ऐसे ब्लॉगरों के अपने कम्प्यूटर को वायरस या मैलवेयर द्वारा प्रदूषित कराया बल्कि वे जाने-अनजाने अपने पाठकों को भी ऐसे खतरों की चपेट में लाने का साधन बने।

हिंदी के कितने ही चिट्ठों के टिप्पणी बॉक्स स्पैम या अश्लील लिंक्स से भरे हुए हैं। कुछ स्थितियों में अनामी, और कुछ अन्य स्थितियों में नाम/यूआरएल का दुरुपयोग करने वाले  टिप्पणीकार समस्या बने। टिप्पणी मॉडरेशन इन समस्याओं का सामना करने में सक्षम है। मैंने ब्लॉगिंग के पहले दिन से ही मॉडरेशन लागू किया था और कुछ समय लगाकर अपने ब्लॉग की टिप्पणी नीति भी स्पष्ट शब्दों में सामने रखी थी जिसने मुझे अवांछित लिंक्स चेपने वालों के बुरे इरादे के प्रकाशन की ब्लॉगिंग-व्यापी समस्या से बचाया। मॉडरेशन लगाने से कई लाभ हैं। इस व्यवस्था में सारी टिप्पणियाँ एकदम से प्रकाशित हो जाने के बजाय पहले ब्लॉगर तक पहुँचती हैं, जिनका निस्तारण वे अपने विवेकानुसार कर सकते हैं। जो प्रकाशन योग्य हों उन्हें प्रकाशित करें और अन्य को कूड़ेदान में फेंकें।

टिप्पणी के अलावा अनुयायियों (फ़ॉलोअर्स) की सूची को भी चिठ्ठाकारों की कड़ी दृष्टि की आवश्यकता होती है। कई ऐसे ब्लॉगर जिन्हें ग़ैरकानूनी धंधों की वजह से जेल में होना चाहिये, अपने लिंक्स वहाँ चेपते चलते हैं। यदि आपने अपने ब्लॉग पर फ़ॉलोअर्स का विजेट लगाया है तो बीच-बीच में इस सूची पर एक नज़र डालकर आप अपनी ज़िम्मेदारी निभाकर उन्हें ब्लॉक भी कर सकते हैं और रिपोर्ट भी। वैसे भी नए अनुयाइयों के जुड़ने पर उनकी जाँच करना एक अच्छी आदत है।

कितने ही ब्लॉग 'जातस्य हि ध्रुवो मृत्यु:' के सिद्धांत के अनुसार बंद हुए। किसी ने जोश में आकर लिखना शुरू किया और होश में आकर बंद कर दिया। कितने ही ब्लॉग हिंदी चिट्ठाकारी के प्रवक्ताओं के 'सदस्यता अभियान' के अंतर्गत बिना इच्छाशक्ति के जबरिया खुला दिये गये थे, उन्हें तो बंद होना ही था। लेकिन कितने ही नियमित ब्लॉग अपने लेखक के देहांत के कारण भी छूटे। पिछले एक दशक में हिंदी ब्लॉगिंग ने अनेक गणमान्य ब्लॉगरों को खोया है। ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे।

केवल तकनीक ही नहीं कई बार व्यक्ति भी हानिप्रद सिद्ध होते हैं। हिन्दी चिठ्ठाकारी का कुछ नुकसान ऐसे हानिप्रद चिट्ठाकारों ने भी किया। घर-परिवार से सताए लोग जो यहाँ केवल कुढ़न निकालने के लिये बैठे थे उन्होंने सामाजिक संस्कारों के अभाव और असभ्यता का प्रदर्शन कर माहौल को कठिन बनाया जिसके कारण कई लोगों का मन खट्टा हुआ। कुछ भोले-भाले मासूम ब्लॉगर जो शुरू में ऐसे लोगों को प्रमोट करते पाये गये थे बाद में सिर पीटते मिले लेकिन तब तक चिट्ठाकारी का बहुत अहित हो चुका था। कान के कच्चे और जोश के पक्के ब्लॉगरों ने भी कई फ़िज़ूल के झगड़ों की आग में जाने-अनजाने ईंधन डालकर कई ब्लॉग बंद कराए।

गोबरपट्टी की "मन्ने के मिलेगा?" की महान अवधारणा भी अनेक चिट्ठों की अकालमृत्यु का कारण बनी। ब्लॉगिंग को कमाई का साधन समझकर पकड़ने वालों में कुछ तो ऐसे थे जिन्होंने अन्य चिठ्ठाकारों की कीमत पर कमाई की भी लेकिन अधिकांश के पल्ले कुछ नहीं पड़ा। विकीपीडिया से ब्लॉग और ब्लॉग से विकीपीडिया तक टीपीकरण की कई यात्राएँ करने, भाँति-भाँति के विज्ञापनों से लेकर किसम-किसम की ठगी स्कीमों से निराश होने के बाद ब्लॉगिंग से मोहभंग स्वाभाविक ही था। सो यह वाला ब्लॉगर वर्ग भी सुप्तावस्था को प्राप्त हुआ। हालांकि ऐडसेंस आदि द्वारा कोई नई घोषणा आदि होने की स्थिति में यह मृतपक्षी अपने पर फ़ड़फ़ड़ाता हुआ नज़र आ जाता है।

हिंदी ब्लॉगरों के सामूहिक सामान्य-अज्ञान ने भी ब्लॉगिंग का अहित किया। मौलिकता का पूर्णाभाव, अभिव्यक्ति की स्तरहीनता, विशेषज्ञता की कमी के साथ, चोरी के चित्र, चोरी की लघुकथाएँ मिल-मिलाकर कितने दिन चलतीं। कॉपीराइट स्वामियों की शिकायतों पर चोरी की कुछ पोस्टें तो खुद हटाई गईं लेकिन कितने ही ब्लॉग कॉपीराइट स्वामियों की शिकायतों पर ब्लॉगर या वर्डप्रैस आदि द्वारा बंद कर दिये गये।

बहुत से ब्लॉगर उचित प्रोत्साहन के अभाव में भी टूटे। एक तो ये नाज़ुकमिज़ाज़ सरलता से आहत हो जाते थे, ऊपर से स्थापित मठाधीशों को अपने राजपथ से आगे की तंग गलियों में जाने की फ़ुरसत नहीं थी। कइयों के टिप्पणी बक्सों में लगे वर्ड वेरिफ़िकेशन जैसे झंझटों ने भी इनके ब्लॉग को टिप्पणियों से दूर किया। बची-खुची कसर उन तुनकमिज़ाज़ों ने पूरी कर दी जो टिप्पणी में सीधे जंग का ऐलान करते थे। कोई सामान्य ब्लॉगर ऐसी खतरनाक युद्धभूमि में कितनी देर ठहरता? सो देर-सवेर घर को रवाना हुआ। यद्यपि कई अस्थिर-चित्त ब्लॉगर ऐसे भी थे जो हर तीसरे दिन टंकी आरोहण की घोषणा सिर्फ़ इसी उद्देश्य से करते थे कि लोग आकर मनाएंगे तो कुछ टिप्पणियाँ जुटेंगी। किसे खबर थी कि उनकी चौपाल भी एक दिन वीरान होगी।

ऐसा नहीं है कि ब्लॉगिंग छूटने के सभी कारण निराशाजनक ही हों। बहुत से लोगों को ब्लॉगिंग ने अपनी पहचान बनाने में सहायता की। कितने ही साथी ब्लॉगर बनने के बाद लेखक, कवि और व्यंग्यकार बने। उनकी किताबें प्रकाशित हुईं। कुछ साथी ब्लॉगिंग के सहयोग से क्रमशः कच्चे-पक्के सम्पादक, प्रकाशक, आयोजक, पुरस्कारदाता, और व्यवसायी भी बने। कितनों ने अपनी वैबसाइटें बनाईं, पत्रिकाएँ और सामूहिक ब्लॉग शुरू किये। कुछ राजनीति से भी जुड़े।

खैर, अब ताऊ रामपुरिया के हिन्दी ब्लॉगिंग के पुनर्जागरण अभियान के अंतर्गत 1 जुलाई को "अंतरराष्ट्रीय हिन्दी ब्लॉगिंग दिवस" घोषित किये जाने की बात सुनकर आशा बंधी है कि हम अपनी ग़लतियों से सबक लेंगे और स्थिति को बेहतर बनाने वालों की कतार में खड़े नज़र आयेंगे।

शुभकामनाएँ!

Monday, March 31, 2014

अच्छे ब्लॉग - ज़रूरतों से आगे का जहाँ

नवसंवत्सर प्लवंग/जय, विक्रमी 2071, नवरात्रि, युगादि, गुड़ी पड़वा, ध्वज प्रतिपदा की हार्दिक मंगलकामनाएँ!

अच्छे ब्लॉग के लक्षणों और आवश्यकताओं पर गुणीजन पहले ही बहुत कुछ लिख चुके हैं। इस दिशा में इतना काम हो चुका है कि एक नज़र देखने पर शायद एक और ब्लॉग प्रविष्टि की आवश्यकता ही समझ न आये। लेकिन फिर भी मैं लिखने का साहस कर रहा हूँ क्योंकि कुछ बातें छूट गयी दिखती हैं। जैसा कि शीर्षक से स्पष्ट है, यह बिन्दु किसी ब्लॉग की अनिवार्यता नहीं हैं। मतलब यह कि इनके न होने से आपके ब्लॉग की पहचान में कमी नहीं आयेगी। हाँ यदि आप पहचान और ज़रूरत से आगे की बात सोचने में विश्वास रखते हैं तो आगे अवश्य पढिये। अवलोकन करके अपनी बहुमूल्य टिप्पणी भी दीजिये ताकि इस आलेख को और उपयोगी बनाया जा सके।

प्रकृति के रंग
कृतित्व/क़ॉपीराइट का आदर
हमसे पहले अनेक लोग अनेक काम कर चुके हैं। विश्व में अब तक इतना कुछ लिखा जा चुका है कि हमारी कही या लिखी बात का पूर्णतः मौलिक और स्वतंत्र होना लगभग असम्भव सा ही है। तो भी हर ब्लॉग लेखक को पहले से किये गये काम का आदर करना ही चाहिये। अमूमन हिन्दी ब्लॉग में चित्र आदि लगाते समय यह बात गांठ बान्ध लेनी चाहिये कि हर रचना, चित्र, काव्य, संगीत, फिल्म आदि अपने रचयिताओं एवम अन्य सम्बन्धित व्यक्तियों या संस्थाओं की सम्पत्ति है। अगर आप तुर्रमखाँ समाजवादी हैं भी तो अपना समाजवाद दूसरों पर थोपने के बजाय खुद अपनाने का प्रयास कीजिये, अपने लेखन को कॉपीराइट से मुक्त कीजिये। लेकिन हिन्दी ब्लॉगिंग में इसका उल्टा ही देखने को मिलता है। आश्चर्य की बात है कि अपने ब्लॉग पर कॉपीराइट के बड़े-बड़े नोटिस लगनेवाले अक्सर दूसरों की कृतियाँ बिना आज्ञा बल्कि कई बार बिना क्रेडिट दिये लगाना सामान्य समझते हैं।

विधान/संविधान का आदर
मैं तानाशाही का मुखर विरोधी हूँ, लेकिन अराजकता और हिंसक लूटपाट का भी प्रखर विरोधी हूँ। आप जिस समाज में रहते हैं उसके नियमों का आदर करना सीखिये। मानचित्र लगते समय यह ध्यान रहे कि आप अपने देश की सीमाओं को संविधान सम्मत नक्शे से देखकर ही लगाएँ। हिमालय को खा बैठने को तैयार कम्युनिस्ट चीन के प्रोपेगेंडापरस्त नक्शों के प्रचारक तो कतई न बनें। देश की संस्कृति, परम्पराओं, पर्वों, भाषाओं को सम्मान देना भी हमें आना चाहिए। हिन्दी के नाम पर तमिल, उर्दू या भोजपुरी के नाम पर खड़ी बोली का अपमान करने का अधिकार किसी को नहीं है, यह ध्यान रहे। अपनी नैतिक, सामाजिक, विधिक जिम्मेदारियों का ध्यान रखिए और किसी के उकसावे का यंत्र बनने से बचिए।

सौन्दर्य शिल्प
अ थिंग ऑफ ब्यूटी इज़ अ जॉय फोरेवर। कुछ ब्लॉगों को सुंदर बनाने का प्रयास किया गया है, अच्छी बात है। लेकिन कुछ स्थानों पर सौन्दर्य नैसर्गिक रूपसे मौजूद है। जीवन शैली या विचारधारा के अंतर अपनी जगह हो सकते हैं लेकिन अविनाश चंद्र, संजय व्यास, गौतम राजऋषि, किशोर चौधरी, नीरज बसलियाल, सतीश सक्सेना आदि की लेखनी में मुझे जादू नज़र आता है। एक अलग तरह का जादू सफ़ेद घर, स्वप्न मेरे, और बेचैन आत्मा के शब्द-चित्रों में भी पाता हूँ।

सत्यनिष्ठा
कई बार लोग ईमानदारी की शुद्ध हिन्दी पूछते नज़र आते हैं। उन्हें बता दीजिये कि धर्म-ईमान समानार्थी तो नहीं परंतु समांतर अवश्य हैं। आमतौर पर सत्यनिष्ठा के विकल्प के रूप में प्रयुक्त होने वाला शब्द ईमानदारी का शाब्दिक अर्थ सत्यनिष्ठा, कपटहीनता आदि न होकर अल्लाह में विश्वास और अन्य सभी में अनास्था है। मजहब, भाषा, क्षेत्र, राजनीति, जान-पहचान, रिश्ते-नाते, कर-चोरी, रिश्वत, भ्रष्टाचार, गलत-बयानी आदि के कुओं से बाहर निकले बिना सत्यनिष्ठा को समझ पाना थोड़ा कठिन है। मैं सत्यनिष्ठा  को एक अच्छे ब्लॉग का अनिवार्य गुण समझता हूँ। बिना लाग-लपेट के सत्य को स्पष्ट शब्दों में कहने का प्रयास स्वयं भी करता हूँ, और ऐसे अन्य ब्लॉगों को नियमित पढ़ता भी हूँ जहाँ सत्यनिष्ठा की खुशबू आती है। ऐसे लेखकों से विभिन्न विषयों पर मेरे हज़ार मतभेद हों लेकिन उनके प्रति आदर और सम्मान रहता ही है। घूघूती बासूती, ज्ञानवाणी, लावण्यम-अन्तर्मन, सुज्ञ, मैं और मेरा परिवेश, मयखाना, सच्चा शरणम्, बालाजी, सुरभित सुमन, शब्दों के पंख आदि कुछ ऐसे नाम हैं जिनकी सत्यनिष्ठा के बारे में मैं निश्शङ्क हूँ। (मयखाना ब्लॉग के उल्लेख को मयकशी आदि वृत्तियों का समर्थन न समझा जाये।)

क्षणिक प्रचार महंगा पड़ेगा
हर रोज़ अपने साथी ब्लॉगरों को, भारतीय संस्कृति, पर्वों, शंकराचार्य या मंदिरों को, देश के लोगों या/और संविधान को गालियाँ देना आपको चर्चा में तो ला सकता है लेकिन वह लाईमलाइट क्षणिक ही होगी। तीन अंकों की टिप्पणियाँ पाने वाले कई ब्लॉगर क्षणिक प्रचार के इस फॉर्मूले को अपनाने के बाद से आज तक 2-4 असली और 10-12 स्पैम टिप्पणियों तक सिमट चुके हैं। ठीक है कि कुछ लोग टिप्पणी-आदान-प्रदान की मर्यादा का पालन करते हुए आपके सही-गलत को नज़रअंदाज़ करते रहेंगे लेकिन जैसी कहावत है कि सौ सुनार की और एक लुहार की।

विश्वसनीयता बनी रहे
फेसबुक से कोई सच्चा-झूठा स्टेटस उठाकर उसे अपने ब्लॉग पर जस का तस चेप देना आसान काम है। चेन ईमेल से ब्लॉग पोस्ट बनाना भी हर्र लगे न फिटकरी वाला सौदा है। इससे रोज़ एक नई पोस्ट का इंतजाम तो हो जाएगा। लेकिन सुनी-सुनाई अफवाहों पर हाँजी-हूँजी करने के आगे भी एक बड़ी दुनिया है जहां विश्वसनीयता की कीमत आज भी है और आगे भी रहेगी। झूठ की कलई आज नहीं तो कल तो खुलती ही है। एक बात यह भी है कि जो चेन ईमेल आपके पास आज पहुँची है उसकी काट कई बार पिछले 70 साल से ब्रह्मांड के चक्कर काट रही होती है। बेहतरी इसी में है कि बेसिरपर की अफवाह को ब्लॉग पर पोस्ट करने से पहले उसकी एक्सपायरी डेट देख ली जाय।

विषय-वस्तु अधिकारक्षेत्र
हृदयाघात से मर चुके व्यक्ति के ब्लॉग पर अगर हृदयरोगों को जड़ से समाप्त करने की बूटी बांटने का दावा लिखा मिले तो आप क्या कहेंगे? कुरान या कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो के अनुयायी वेदमंत्रों का अनाम स्रोतों द्वारा किया गया अनर्थकारी अनुवाद छापकर अपने को धर्म-विशेषज्ञ बताने लगें तो कैसे चलेगा? कितने ही लोग नैसर्गिक रूप से बहुआयामी व्यक्तित्व वाले होते हैं। ऐसे लोगों का विषयक्षेत्र विस्तृत होता है। लेकिन हम सब तो ऐसे नहीं हो सकते। अगर हम अपनी विशेषज्ञता और अधिकारक्षेत्र के भीतर ही लिखते हैं तो बात सच्ची और अच्छी होने की संभावना बनी रहती है। अक्सर ही ऐसी बात जनोपयोगी भी होती है।

विषय आधारित लेखन
ब्लॉग लिखने के लिए आपका शायर होना ज़रूरी तो नहीं। अपनी शिक्षा, पृष्ठभूमि, संस्था या व्यवसाय किसी को भी आधार बनाकर ब्लॉग चलाया जा सकता है। हिन्दी में पाककला पर कई ब्लॉग हैं। भ्रमण और यात्रा पर आधारित ब्लॉगों की भी कमी नहीं है। जनोपयोगी विषयों को लेकर भी ब्लॉग लिखे जा रहे हैं। चित्रकारिता, फोटोग्राफी, नृत्य, संगीत, समर-कला, व्याकरण, जो भी आपका विषय है, उसी पर लिखना शुरू कीजिये। कॉमिक्स हों या कार्टून, विश्वास कीजिये, आपके लेखन-विषय के लिए कहीं न कहीं कोई पाठक व्यग्र है। लोग हर विषय पर लिखित सामग्री खोज रहे हैं।

नित-नूतन वैविध्य
कोई कवि है, कोई कहानीकार, कोई लेखक, कोई संवाददाता तो कोई प्रचारक। यदि आप किसी एक विधा में प्रवीण हैं तो उस विधा के मुरीद आपको पढ़ेंगे। लेकिन अगर आपके लेखन में वैविध्य है तो आपके पाठकवृन्द भी विविधता लिए हुए होंगे। विभिन्न प्रकार के पुरस्कारदाता आपको किसी एक श्रेणी में बांधना चाहते हैं। विशेषज्ञता महत्वपूर्ण है लेकिन उसके साथ-साथ भी लेखन में विविधता लाई जा सकती है। और यदि आप किसी एक विधा या विषय से बंधे हुए नहीं हैं, तब तो आपकी चांदी ही चांदी है। रचनाकार पर रोज़ नए लोगों का कृतित्व देखने को मिलता है। आलसी के चिट्ठे में रहस्य-रोमांच से लेकर संस्कृति के गहन रहस्यों की पड़ताल तक सभी कुछ शामिल है। मेरे मन कीकाव्य मंजूषा ब्लॉगों पर कविता, कहानी,आलेख के साथ साथ पॉडकास्ट भी सुनने को मिलते हैं। आप भी देखिये आप नया क्या कर सकते हैं।

सातत्य
यदि आप नियमित लिखते हैं तो पाठक भी नियमित आते हैं। टिप्पणी करें न करें लेकिन नियमित ब्लॉग पढे अवश्य जाते हैं। सातत्य खत्म तो ब्लॉग उजड़ा समझिए। आज जब अधिकांश हिन्दी ब्लॉगर फेसबुक आदि सोशल मीडिया की ओर प्रवृत्त होकर ब्लॉग्स पर अनियमित होने लगे हैं, सातत्य अपनाने वाले ब्लॉग्स चुपचाप अपनी रैंकिंग बढ़ाते जा रहे हैं। उल्लूक टाइम्स, एक जीवन एक कहानी जैसे ब्लॉग निरंतर चलते जा रहे हैं।

कुछ अलग सा
अपना लेखन अक्सर अद्वितीय लगता है। अच्छा लेखन वह है जो पाठकों को भी अद्वितीय लगे। उसमें आपकी जानकारी के साथ-साथ शिल्प, लगन और नेकनीयती भी जुड़नी चाहिए। असामान्य लेखन के लिए लेखन, वर्तनी और व्याकरण के सामान्य नियम जानना और अपनाना भी ज़रूरी है। किसी को खुश (या नाराज़) करने के उद्देश्य से लिखी गई पोस्ट अपनी आभा अपने आप ही खो देती है। इसी प्रकार किसी कहानी में पात्रों के साथ जब लेखक का अहं उतराने लगे तो अच्छी कथा की पकड़ भी कमजोर होने लगती है। किसी गजल या छंद को मात्रा के नियमों की दृष्टि से सुधारना अलग बात है लेकिन आपका लेखन आपके व्यक्तित्व का दर्पण है। उसके नकलीपन को सब न सही, कुछेक पारखी नज़रें तो पकड़ ही लेंगी। कुछ अलग से लेखन के उदाहरण के लिए मो सम कौन, चला बिहारी, शब्दों का डीएनए, उन्मुक्त, और मल्हार को पढ़ा जा सकता है। अलग सा लेखन वही है जिसे अलग सा बनाने का प्रयास न करना पड़े।

निजता का आदर
आपका ब्लॉग आपके व्यक्तित्व का दर्पण है। लोगों की निजता का आदर कीजिये। हो सकता है आप ही सबसे अच्छे हों। सारी कमियाँ आपके साथी लेखकों में ही रही हों। लेकिन अगर आपकी साहित्यिक पत्रिका के हर अंक में आपके एक ऐसे साथी की कमियाँ नाम ले-लेकर उजागर की जाती हैं जो या तो ऑनलाइन नहीं है, या फिर इस संसार में ही नहीं है तो इससे आपके साथियों के बारे में कम, आपके बारे में अधिक पता लगता है। इसी प्रकार जिस अनदेखे मित्र को आप सालगिरह मुबारक करने वाले हैं, हो सकता है वह आज भी उस आदमी को ढूंढ रहा हो, जिसने उसकी सालगिरह की तिथि सार्वजनिक की थी। लोगों की निजता का आदर कीजिये।

ट्रेंडसेटर ब्लॉग्स
अगर हर कोई कविता लिखने लगे, तो ज़ाहिर है कि पाठकों की कमी हो जाएगी। लेकिन अगर हर कोई पत्रिकाओं में छपना चाहे तो अधकचरे संपादकों के भी वारे-न्यारे हो जाएँगे। इसी तरह यदि हर ब्लॉगर किताब लिखना चाहेगा तो प्रकाशकों के ब्लॉग्स के ढूँढे पड़ेंगे। यदि आपका ब्लॉग भीड़ से अलग हटकर है, बल्कि उससे भी आगे यदि वह है जिसकी तलाश भीड़ को है तो समझ लीजिये कि आपने किला फतह कर लिया। इस श्रेणी का एक अनूठा उदाहरण है हमारे ताऊ रामपुरिया का ब्लॉग। मज़ाक-मज़ाक में सामाजिक विसंगतियों पर चोट कर पाना तो उनकी विशेषता है। लेकिन सबसे अलग बात है अपने पाठकों को ब्लॉग में शामिल कर पाना। ब्लॉग की सफलतम पहेली की बात हो, ब्लॉग्स को सम्मानित करने की, या ब्लॉगर्स के साक्षात्कार करने की, ताऊ रामपुरिया का ब्लॉग एक ट्रेंडसेटर रहा है।

बहुरूपियों के पिट्ठू मत बनिए
आपके आसपास बिखरी विसंगतियों को बढ़ा-चढ़ाकर आपकी भावनाओं का पोषण करने वाले मौकापरस्त सौदागरों के शोषण से बचने के लिए लगातार चौकन्ने रहना ज़रूरी है। लिखते समय भी यह ध्यान में रखना ज़रूरी है कि कहीं आपकी भावनाओं का दोहन किसी निहित स्वार्थ के लिए तो नहीं हो रहा है। कितनी ही बहुरूपिया, मजहबी और राजनीतिक विचारधाराओं के एजेंट अपनी असलियत छिपाकर अपने को एक सामान्य गृहिणी, जनसेवक, पत्रकार, शिक्षक, डॉक्टर या वकील जैसे दिखाकर अपनी-अपनी दुकान का बासी माल ठेलने में लगे हुए हैं। ज़रा जांच-पड़ताल कीजिये। विरोध न सही, उनकी धार में बह जाने से तो बच ही सकते हैं। जो व्यक्ति अपनी राजनीतिक या मजहबी प्रतिबद्धता को साप्रयास छिपा रहे हैं, उन्हें खुद अपनी विचारधारा की नैतिकता पर शक है। बल्कि कइयों को तो अपनी विचारधारा की अनैतिकता अच्छी तरह पता है। वे तो भोले ग्राहक को ठगकर अपने घटिया माल को भी महंगे दाम पर बेच लेना चाहते हैं। ऐसे मक्कारों का साथ, मैं तो कभी न दूँ। आप भी खुद बचें, दूसरों को बचाएं। ध्यान रहे कि इस देश में सैकड़ों क्रांतियाँ हो चुकी हैं। बड़े-बड़े कवि, लेखक, साहित्यकार भी मोहभंग के बाद कोने में पड़े टेसुए बहाते देखे गए हैं। उनकी दुर्गति से सबक लीजिये।

मौलिकता - कंटेन्ट इज़ किंग
अनुवादमूलक ब्लॉगस को छोड़ दें तो सार यह है कि आपका मौलिक लेखन ही आपकी विशेषता है। बल्कि, अच्छे अनुवाद में भी मौलिकता महत्वपूर्ण है। हिन्दी के दो बहु-प्रशंसित ब्लॉगों में हिंदीजेन और केरल पुराण शामिल हैं। ज्ञानदत्त पाण्डेय जी की मानसिक हलचल से अभिषेक ओझा के ओझा-उवाच तक, मौलिकता एक सरस सूत्र है। दूसरों के लेख, कविता, नाम पते, बीमारी या अन्य व्यक्तिगत जानकारी छापकर आप केवल अस्थाई प्रशंसा पा सकते हैं। कुछ वही गति राजनीतिक प्रश्रय, श्रेय पाने, या डाइरेक्टरी बेचकर पैसा कमाने के लिए बांटी गई रेवड़ियों की होती है। चार दिन की चाँदनी, फिर अंधेरी रात। अच्छा लिखिए, सच्चा लिखिए और मौलिक लिखिए, आपका लेखन अवश्य पहचाना जाएगा।

संबन्धित कड़ियाँ
* विश्वसनीयता का संकट
* लेखक बेचारा क्या करे?
* आभासी सम्बन्ध और ब्लॉगिंग

Tuesday, June 26, 2012

आभासी सम्बन्ध और ब्लॉगिंग

आभासी सम्बन्धों के आकार-प्रकार पर हमारे राज्य के पेन स्टेट विश्वविद्यालय के एक शोध ने यह तय किया है कि फेसबुक जैसी वैबसाइटों पर मित्रता अनुरोध अस्वीकार होने या नजरअंदाज किये जाने पर सन्देश प्रेषक ठुकराया हुआ सा महसूस करते हैं। इस अध्ययन से यह बात तो सामने आई ही है कि अनेक लोगों के लिए यह आभासी संसार भी वास्तविक जगत जैसा ही सच्चा है। साथ ही इससे यह भी पता लगता है कि कई लोग दूसरों को आहत करने का एक नया मार्ग भी अपना रहे हैं।

मेरी नन्ही ट्विटर मित्र
आपके तथाकथित मित्र फेसबुक या गूगल प्लस पर आपकी ‘फ्रैंड रिक्वैस्ट’ ठुकरा कर, या अपने ब्लॉग पर आपकी टिप्पणियों को सेंसर करके या फिर इससे दो कदम आगे जाकर आपके विरुद्ध पोस्ट पर पोस्ट लिखते हुए आपकी जवाबी टिप्पणियाँ प्रकाशित न करके या फिर टिप्पणी का विकल्प ही पूर्णतया बन्द करके आपको चोट पहुँचाते जा रहे हैं तो आपको खराब लगना स्वाभाविक ही है। आपकी फेसबुक वाल या गूगल प्लस पर कोई आभासी साथी आकर अपना लिंक चिपका जाता है। आप क्लिक करते हैं तो पता लगता है कि पोस्ट तो केवल आमंत्रित पाठकों के लिये थी, लिंक तो आपको चिढाने के लिये भेजे जा रहे थे। किसी हास्यकवि ने विवाह के आमंत्रण पत्र पर अक्सर लिखे जाने वाले दोहे की पैरोडी करते हुए कहा था:

भेज रहे हैं येह निमंत्रण, प्रियवर तुम्हें दिखाने को
हे मानस के राजकंस तुम आ मत जाना खाने को
ताज़े अध्ययन का लब्बो-लुआब यह है कि आभासी जगत में होने वाला अपमान भी उतना ही दर्दनाक होता है जितना वास्तविक जीवन में होने वाला अपमान।

लेकिन गुस्से में आग-बबूला होने से पहले ज़रा एक पल रुककर इतना अवश्य सोचिये कि क्या इन सब से सदा आहत होने की प्रक्रिया में हमारा कोई रोल नहीं है? अंग्रेज़ी की एक कहावत है कि इंसान अपनी संगत से पहचाना जाता है। यदि हमारे आसपास के अधिकतर लोग जोश को होश से आगे रखते हैं तो हमारे भी वैसा ही होने की काफ़ी सम्भावना है। शायद हम अपवाद हों, लेकिन यह जाँचने में हर्ज़ ही क्या है?

मेरे बारे में तो आप ही बेहतर बता पायेंगे लेकिन ब्लॉग जगत भ्रमण करते हुए मैंने जो कुछेक खिझाने वाली बातें देखी हैं उन्हें यहाँ लिख रहा हूँ। इनमें कई बातें ऐसी हैं जो अभासी जगत के अज्ञान के कारण पैदा हुई हैं लेकिन कई ऐसी भी हैं जिनसे हमारे भौतिक जीवन की वास्तविकता ज़ाहिर होती है।

किसी ब्लॉग पर कमेंट करने चलो तो यह मौलिक शिष्टाचार है कि हिन्दी की पोस्ट पर टिप्पणी हिन्दी में ही की जाये। लेकिन टिप्पणी लिखने के ठीक बाद आपका सामना होता है वर्ड वेरिफ़िकेशन के दैत्य से जिसके कैप्चा अंग्रेज़ी में होते हैं और कई बार आपके लिखे अक्षर अस्वीकृत होने के बाद आपको अपनी ग़लती का अहसास होता है और आप अपना कीबोर्ड हिन्दी से अंग्रेज़ी में वापस बदलते हैं। अगली पोस्ट पर फिर एक परिवर्तन ...। आप कहेंगे कि यह चौकसी के लिये है। ऐसा होता तो क्या ग़म था। दुःख तब होता है जब उसी पोस्ट पर आपको स्पैम कमेंट भी आराम से रहते हुए दिखते हैं।

कुछ ब्लॉग ऐसे हैं कि आप पढना तो चाहते हैं मगर आपके शांत पठन में बाधा डालने का इंतज़ाम ब्लॉग लेखक ने खुद ही कर दिया है एक ऐसा ऑडियो लगाकर जिसका ऑफ़ बटन या तो होता ही नहीं या ऐसी जगह पर छिपा होता है कि ढूंढते-ढूंढते थक जाने पर पन्ना पलटने से पहले आप उस ब्लॉग पर दोबारा कभी न आने का प्रण ज़रूर करते हैं। आश्चर्य नहीं कि उस ब्लॉग पर अगली पोस्ट पाठकों की तोताचश्मी पर होती है।

इन सदाबहार ऑडियो वालों के विपरीत वे ब्लॉगर हैं जिनके ब्लॉग पर आप जाते ही ऑडियो सुनने (या विडियो देखने) के लिये हैं लेकिन यदि सुनते-सुनते ही आपने कुछ लिखने का प्रयास किया तो टिप्पणी बॉक्स उसी पेज पर होने के कारण आपका ऑडियो रिफ़्रेश हो जाता है। अब सारी कसरत शुरू कीजिये एक बार फिर से ... इतना टाइम किसके पास है भिड़ु? मणि कौल की फ़िल्में देखने से बचता हूँ, हर बार यही बात दिमाग़ में आती है कि निर्देशक को अपने दर्शकों के समय का आदर तो करना ही चाहिये।

सताने वाले ब्लॉगर्स का एक और प्रकार है। ये लोग दिन में पाँच पोस्ट लिखते हैं। हर पोस्ट का ईमेल पाँच हज़ार लोगों को भेजने के अलावा हर ऑनलाइन माध्यम पर उसे पाँच-पाँच बार (पब्लिक, मित्र, विस्तृत समूह आदि) पोस्ट करते हैं। हर रोज़ 25 वाल पोस्ट हाइड करते वक़्त आप यही सोचते हैं कि यह बन्दा आपकी मित्र सूची में घुसा कैसे। फिर एक दिन चैट पर वही व्यक्ति आपको पकड़ लेता है और अपनी दारुणकथा सुनाकर द्रवित कर देता है कि किस तरह उसके सभी अहसान-फ़रामोश मित्र एक एक करके उसे अपनी सूची से बाहर कर रहे हैं। हाय राम, एक साल में 90% टिप्पणीकारों ने साथ छोड़ दिया।

मित्र के दुःख से दुखी आप उसे यह भी नहीं बता सकते कि उसकी कोई पोस्ट पढने लायक हो तो भी शायद लोग झेल लें, मगर वहाँ तो बिना किसी भूमिका के उस समाचार का लिंक होता है जो आज के सभी समाचार पत्रों में आप पहले ही पढ चुके थे। इससे मिलती जुलती श्रेणी उन भाई-बहनों की है जो हज़ार बार पहले पढे जा चुके चेन ईमेल, चुटकुले, चित्र आदि ही चिपकाते रहते हैं।

जागरूक ब्लॉगर्स का एक वर्ग वह है जो अपने ब्लॉग पर न सिर्फ़ कॉपीराइट नोटिस और कानूनी तरदीद लगाकर रखते हैं बल्कि काफ़ी मेहनत करके ऐसा इंतज़ाम भी रखते हैं कि आप उनके ब्लॉग का एक शब्द भी (आसानी से) कॉपी न कर सकें। वैसे इस प्रकार के अधिकांश ब्लॉगरों के यहाँ से कुछ कॉपी करने की ज़रूरत किसी को होती नहीं है क्योंकि इन ब्लॉगों पर अधिकांश लिंक, जानकारी और चित्र पहले ही यहाँ-वहाँ से कॉपी किये हुए होते हैं। मुश्किल बस इनके उन्हीं मित्रों को होती है जो टिप्पणी लेनदेन की सामाजिक ज़िम्मेदारी निभाने के लिये "बेहतरीन" लिखने से पहले उनकी पोस्ट की आखिरी दो लाइनें भी चेपना चाहते हैं।

एक और विशिष्ट प्रजाति है, हल्लाकारों की। ये समाज की नाक में नकेल डालकर उसे सही दिशा की अरई से हांकने के एक्स्पर्ट होते हैं। अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूल में भेजने वाले हल्लाकार गुरुकुल पद्धति लाने का नारा बुलन्द करते हैं और हिन्दीभाषी कस्बे में रहते हुए भी खुद कॉंवेंट में पढे हल्लाकार तमिलनाडु में तमिल हटाकर हिन्दी लाने का लारा देते हैं। इस वर्ग को भारत के इतिहास-भूगोल का पूर्ण अज्ञान होते हुए भी भारतीय संस्कृति के सम्मान के लिये अमेरिका-यूरोप की नारियों को बुरके और घूंघट में लपेटना ज़रूरी मालूम पड़ता है। अपने को बम समझने वाले ये असंतोष के गुब्बारे फ़टने के लिये इतने आतुर रहते हैं कि कोई भी गुर्गा खाँ या मुर्गा देवी इनका जैसा चाहें वैसा प्रयोग कर सकते हैं। ऐसे अधिकांश हल्लाकार अपने आप को तुलसीदास से लेकर गांधी तक, राष्ट्रीय गान से लेकर राष्ट्र ध्वज तक और रामायण से लेकर भारतीय संविधान तक किसी का भी अपमान करने का अधिकारी मानते हैं। ये लोग अक्सर संस्कृत या अरबी के उद्धरण ग़लत याद करने और अफ़वाहों को पौराणिक महत्व देने के लिये पहचाने जाते हैं। यह विशिष्ट वर्ग आँख मूंदकर हाँ में हाँ मिलाने वालों के अतिरिक्त अन्य सभी को अपना शत्रु मानता है।

ब्लॉगर्स के अलावा फ़ेसबुक आदि पर मुझे वे छद्मनामी लोग भ्रमित करते हैं जो अपना परिचय देने की ज़हमत किये बिना आपको मित्रता अनुरोध भेजते रहते हैं, अब आप सोचते रहिये कि ब्लेज़ पैस्कल रहता कहाँ है या सृजन साम्राज्ञी आपसे कब मिली थी। ग़लती से अगर आपने रियायत दे दी तो ये विद्वज्जन किसी वीभत्स चित्र या किसी स्वतंत्रता सेनानी की झूठी वंशावली से रोज़ आपकी दीवार लीपना शुरू कर देंगे। अल्लाह बचाये ऐसे क़दरदानों से!

यह लेख किसी व्यक्ति-विशेष के बारे में नहीं है बल्कि सच कहूँ तो किसी भी व्यक्ति या ब्लॉगर की बात न करके केवल उन असुविधाओं का ज़िक्र करने का प्रयास भर है जिनसे हम सब आभासी जगत में दो चार होते हैं। वैसे भी सहनशक्ति की सीमायें, कार्य, अनुभव और मैत्री के स्तर के अनुसार कम-बढ होती हैं। इंसान गलती का पुतला है, जैसे हमें झुंझलाहट होती है वैसे ही हमारे अनेक कार्यों से अन्य लोगों को भी परेशानी होती हो यह स्वाभाविक ही है। हाँ, यदि प्रयास करके चिड़चिड़ाहट का स्तर कम से कम किया जा सके तो उसमें सबका हित है।

Sunday, June 5, 2011

विश्वसनीयता का संकट - हिन्दी ब्लॉगिंग के कुछ अनुभव

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हमारे ज़माने में लोग अपनी डायरी में इधर-उधर से सुने हुए शेर आदि लिख लेते थे और अक्सर मूल लेखक का नाम भूल भी जाते थे। आजकल कई मासूम लोग अपने ब्लॉग पर भी ऐसा कर बैठते हैं। मगर कई कवियों को दूसरों की कविताओं को अपने नाम से छाप लेने का व्यसन भी होता है। कहीं दीप्ति नवल की कविता छप रही है, कहीं जगजीत सिंह की गायी गयी गज़ल, और कहीं हुल्लड़ मुरादाबादी की पैरोडी का माल चोर ले जा रहे हैं। और कुछ नहीं तो चेन-ईमेल में आयी तस्वीरें ही छप रही हैं।

चेन ईमेल के दुष्प्रभावों के बारे में अधिकांश लोग जानते ही हैं। यह ईमेल किसी लुभावने विषय को लेकर लिखे जाते हैं और इन्हें आगे अपने मित्रों व परिचितों को फॉरवर्ड करने का अनुरोध होता है। ऐसे अधिकांश ईमेल में मूल विषय तक पहुँचने के लिये भी हज़ारों ईमेल पतों के कई पृष्ठों को स्क्रोल डाउन करना पडता है। हर नये व्यक्ति के पास पहुँचते हुए इस ईमेल में नये पते जुडते जाते हैं और भेजने वालों के एजेंट तक आते हुए यह ईमेल लाखों मासूम पतों की बिक्री के लिये तैयार होती है। ऐसे कुछ सन्देशों में कुछ बातें अंशतः ठीक भी होती हैं परंतु अक्सर यह झूठ का पुलिन्दा ही होते हैं। मेरी नज़रों से गुज़रे कुछ उदाहरण देखिये

* यूनेस्को ने 'जन गण मन' को दुनिया का सर्वश्रेष्ठ राष्ट्रगान बताया है
* ब्रिटिश संसद में लॉर्ड मैकाले का शिक्षा द्वारा भारत को दास बनाने का ड्राफ्ट
* गंगाधर नेहरू का असली नाम गयासुद्दीन गाजी था
* टाइम्स ऑफ इंडिया के सम्पादक ने मुम्बैया चूहा के नाम से पत्र लिखा
* ताजमहल तेजो महालय नामक शिव मन्दिर है
* हिटलर शाकाहारी था
* चीन की दीवार अंतरिक्ष से दिखने वाली अकेली मानव निर्मित संरचना है

पण्डित गंगाधर नेहरू
ऐसे ईमेल सन्देशों पर बहुत सी ब्लॉग पोस्ट्स लिखी जा चुकी हैं और शायद आगे भी लिखी जायेंगी। फ़ॉरवर्ड करने और लिखने से पहले इतना ध्यान रहे कि बिना जांचे-परखे किसी बात को आगे बढाने से हम कहीं झूठ को ही बढावा तो नहीं दे रहे हैं। और हाँ, कृपया मुझे ऐसा कोई भी चेन ईमेल अन्धाधुन्ध फॉरवर्ड न करें।

जब ऐसी ही एक ईमेल से उत्पन्न "एक अफ्रीकी बालक की य़ूएन सम्मान प्राप्त कविता" एक पत्रकार के ब्लॉग पर उनके वरिष्ठ पत्रकार के हवाले से पढी तो मैंने विनम्र भाषा में उन्हें बताया कि यूएन में "ऐन ऐफ़्रिकन किड" नामक कवि को कोई पुरस्कार नहीं दिया गया है और वैसे भी इतनी हल्की और जातिवादी तुकबन्दी को यूएन पुरस्कार नहीं देगा। जवाब में उन्होंने बताया कि "जांच-पड़ताल कर ही इसे प्रकाशित किया गया है। कृपया आप भी जांच लें।" आगे सम्वाद बेमानी था।

भारत की दशा रातोंरात बदलने का हौसला दर्शाते कुछ हिन्दी ब्लॉगों पर दिखने वाली एक सामान्य भूल है भारत का ऐसा नक्शा दिखाना जिसमें जम्मू-कश्मीर राज्य का अधिकांश भाग चीन-पाकिस्तान में दिखाया जाता है। कई नक्शों में अरुणाचल भी चीन के कब्ज़े में दिखता है। नैतिकता की बात क्या कहूँ, कानूनी रूप से भी ऐसा नक्शा दिखाना शायद अपराध की श्रेणी में आयेगा। दुर्भाग्य से यह भूल मैंने वरिष्ठ बुद्धिजीवी, पत्रकारों और न्यायवेत्ताओं के ब्लॉग पर भी देखी है। जहाँ अधिकांश लोगों ने टोके जाने पर भूल सुधार ली वहीं एक वरिष्ठ शिक्षाकर्मी ब्लॉगर ने स्पष्ट कहा कि उन्होंने तो नक़्शा गूगल से लिया है।

मेरी ब्लॉगिंग के आरम्भिक दिनों में एक प्रविष्टि में मैंने नाम लिये बिना एक उच्च शिक्षित भारतीय युवक द्वारा अपने उत्तर भारतीय नगर के अनुभव को ही भारत मानने की बात इंगित की तो एक राजनीतिज्ञ ब्लॉगर मुझे अमेरिकी झंडे के नीचे शपथ लिया हुआ दक्षिण भारतीय कहकर अपना ज्ञानालोक फैला गये। उनकी खुशी को बरकरार रखते हुए मैंने उनकी टिप्पणी का कोई उत्तर तो नहीं दिया पर उत्तर-दक्षिण और देसी-विदेशी के खेमों में बंटे उनके वैश्विक समाजवाद की हवा ज़रूर निकल गयी। उसके बाद से ही मैंने ब्लॉग पर अपना प्रचलित उत्तर भारतीय हिन्दी नाम सामने रखा जो आज तक बरकरार है।

मेरे ख्याल से हिन्दी ब्लॉग में सबसे ज़्यादा लम्बी-लम्बी फेंकी जा रही है भारतीय संस्कृति, भाषा और सभ्यता के क्षेत्र में। उदाहरणार्थ एक मित्र के ब्लॉग पर जब हिन्दी अंकों के उच्चारण के बारे में एक पोस्ट छपी तो टिप्पणियों में हिन्दी के स्वनामधन्य व्यक्तित्व राजभाषा हिन्दी के मानक अंकों को शान से रोमन बता गये। अन्य भाषाओं और लिपियों की बात भी कोई खास फर्क नहीं है। भारतीय देवता हों, पंचांग हों, या शास्त्र, आपको हर प्रकार की अप्रमाणिक जानकारी तुरंत मिल जायेगी।

अब तक के मेरे ब्लॉग-जीवन में सबसे फिज़ूल दुर्घटना एक प्रदेश के कुछ सरल नामों पर हुई जिसकी वजह से सही होते हुए भी एक स्कूल से अपना नाम पर्मानैंटली कट गया। बाद में सम्बद्ध प्रदेश के एक सम्माननीय और उच्च शिक्षित भद्रपुरुष की गवाही से यह स्पष्ट हुआ कि स्कूल के जज उतने ज्ञानी नहीं थे जितने कि बताये जा रहे थे। उस घटना के बाद से अब तक तो कई जगह से नाम कट चुके हैं और शायद आगे और भी कटेंगे लेकिन मेरा विश्वास है कि विश्वसनीयता की कीमत कभी भी कम नहीं होने वाली।

हिन्दी ब्लॉगिंग में अपने तीन वर्ष पूरे होने पर मैं इस विषय में सोच रहा था लेकिन समझ नहीं आया कि हिन्दी ब्लॉगिंग में विश्वसनीयता और प्रामाणिकता की मात्रा कैसे बढ़े। आपके पास कोई विचार हो तो साझा कीजिये न।