इस्कॉन की "भग्वद्गीता यथारूप" |
स्वामी प्रभुपाद की पुस्तक पर पाबंदी लगाने का यह मामला विगत जून 2011 से साइबेरिया के तोमस्क की अदालत में लम्बित था जिसमें तोमस्क नगर के अभियोजन विभाग ने स्थानीय अदालत से तोम्स्क स्थित ISKCON (इस्कॉन = अंतर्राष्ट्रीय कृष्ण चेतना समाज) की धार्मिक गतिविधियों की जाँच कराने का अनुरोध किया था। इस्कॉन स्वामी प्रभुपाद द्वारा की गयी भगवद्गीता की टीका में बताई गई वैष्णव शिक्षाओं का प्रचार करता है।
रूस के बहुत से नागरिकों ने खुलकर इस मुक़दमे को रूस में रहने वाले हिन्दुओं के अधिकारों का उल्लंघन माना। रूस के हिन्दुओं के साथ-साथ अन्य धर्मों के अनुयायियों ने भी इस मुक़दमे के बारे में अपनी नाराज़गी और रोष प्रकट किया था।
अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं च संश्रिताः। मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः।।18।।जहाँ मैं इस फैसले से बहुत प्रसन्न हूँ, वहीं इस मामले ने भारत में हो रहे एक परिवर्तन को उजागर किया है जिस पर हर जागरूक भारतीय, विशेषकर हिन्दू को ध्यान देने की आवश्यकता है। इस्कॉन व कृष्णभक्तों की प्रशंसा करनी चाहिये क्योंकि उन्होंने इस पूरे घटनाक्रम में असीमित संयम का परिचय दिया। उनके विपरीत इस मुकदमे की खबर मिलते ही कुछ तथाकथित हिन्दुओं ने इस घटनाक्रम को इंटरनैट पर ऐसे प्रस्तुत किया मानो रूस में गीता पर प्रतिबन्ध लग गया है जो कि सरासर झूठ था। मज़े की बात यह है कि ऐसा प्रचार करने वाले बहुत से लोगों ने ज़िन्दगी में कभी गीता की न तो एक प्रति खरीदी होगी न कभी गीता उठाकर पढी होगी। क्योंकि गीता को पढने, समझने वाला बात को जाने बिना असंतोष भड़काने का माध्यम नहीं बनेगा। धार्मिक मामलों को समझे बिना ऐसे अधार्मिक लोगों की बेचैनी मैं बिल्कुल नहीं समझ पाता हूँ।
तानहं द्विषतः क्रूरान्संसारेषु नराधमान्। क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु।।19।।
(श्रीमद्भग्वद्गीता, अध्याय 16)
अहंकार, बल, घमण्ड, कामना और क्रोध के परायण और दूसरों की निन्दा करने वाले व्यक्ति अपने और दूसरों के शरीर में स्थित मुझ अन्तर्यामी से द्वेष करने वाले हैं। ऐसे द्वेषी, पापाचारी और क्रूरकर्मी नराधमों को मैं संसार में बार-बार आसुरी योनियों में डालता हूँ। (योगेश्वर कृष्ण)
भारतीय धार्मिक और आध्यात्मिक परम्परा वीरता के साथ-साथ ज्ञान, संयम और सहिष्णुता की भी है। याद रहे कि हिंदुत्व के पालन और रक्षा के लिए उग्र, सांप्रदायिक, या हिंसक होना किसी भी रूप में आवश्यक नहीं है। धैर्य और उदारता पर आधारित जो सभ्यता अनंत काल से अनवरत आक्रमणों और आघातों के बावजूद सनातन चलती रही है उसे अपनी रक्षा के लिए अधैर्य की कोई आवश्यकता भी नहीं है। खतरे में होंगे कोई और धर्म, पंथ, मज़हब या राजनीतिक विचारधाराएँ; मेरा निर्भय धर्म कभी खतरे में नहीं था, न कभी होगा। गीता के नाम पर चला मुकदमा तो अपनी परिणति को प्राप्त हुआ, अब इस पर असंतोष भड़काने वाले वाक्य या आलेख लिखने वाले हर व्यक्ति का इतना फर्ज़ बनता है कि वह भगवान कृष्ण की गीता की या कम से कम स्वामी प्रभुपाद की "भगवद्गीता जस की तस" की एक प्रति अपने पैसे से खरीदकर पढ़ें, समझें और धर्म के कार्य में अपनी निष्ठा दृढ करे। जो लोग पहले से ही गीता एवम अन्य सद्ग्रंथ पढकर उन्हें अपने जीवन में यथासम्भव अपनाकर अपने को बेहतर व्यक्ति बनाने का सतत प्रयत्न करते रहे हैं, वे सात्विक व्यक्ति वाकई आदर के पात्र हैं।
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