Friday, September 12, 2025

प्रहरी की यात्रा - 2

ज़मीन पर नहीं खड़े, जो नभ में उड़े हैं,
साथियों, जीवनसाथियों से भी छले गये हैं,
द्वेष, उपेक्षा और तिरस्कार के तेल में,
जिनके निर्मल हृदय, सतत तले गये हैं।

अनुरोध, सुझाव, सलाह सब धूल हुए,
चिंतन और विश्वास से बनाई योजनाएँ
क्रूरता से तोड़ी, निर्ममता से बिखेरी गईं,
अविश्वास से हारीं, प्रेम की सब कामनाएँ।

कानाफूसी, अफ़वाहें, फिर उपहास हुआ,
कड़वी बातें, घातें, काँटे, भाले खूब चुभे,
स्वजन दूर, घर सूने और द्वार खामोश हुए,
सूनेपन से सूने मन की आशा को तुषार मिला।

संघर्ष और विजय नज़रअंदाज़ होते रहे,
अपवाद बस वही एक शिरोमणि कवच था,
महानायक के उस अंतिम सम्मान में भी,
आदर नहीं, बीमे की रकम का लालच था।

इस कठिन राह पर चलने वाला हर कोई,
जिसने कृतघ्नता का फल जान देकर चुकाया,
उनका मूल्य अवर्णनीय है, चुका नहीं सकते,
माणिक, रत्न, अशर्फ़ी देकर भी रहे बकाया।

Saturday, September 6, 2025

प्रहरी की यात्रा - 1

सूरज उगना भूल गया था,
सन्नाटा चीखों से टूट गया था,
वहाँ गया था वह, कर्तव्य निभाने, 
न सम्मान ढूंढने, न लाभ कमाने।

सज्जन, सैनिक, योद्धा, वह अधिकारी,
जिसकी प्रतिज्ञा थी मौन, लेकिन भारी,
धूसरित राहों में, अनसुनी आहों में,
जहाँ साहस के सिवा मार्गदर्शक कोई न था।

न ताज चाहा, न कवि-वंदना, न वाहवाही,
हिंसा झेली, देखी दुश्मन की आवाजाही।
जहाँ आतंक विष बेलों सा फैला रहा,
और सत्य बारूद के नीचे कुचला रहा।

बगावत जंगल में फुसफुसाती थी,
कट्टरता लहू बहाने को उकसाती थी,
मुण्डों के आसन के तानाशाहों से,
निर्भीक, वह लड़ता रहा, वर्षों तक।

उसका यौवन, एक दीपक अंधेरे में,
मार्गदर्शक रहा, मौत के घेरे में।
हर धड़कन एक प्रहरी की ताल,
हर श्वास एक चुनौती भरा सवाल।

उसने अपना जीवन अर्पित किया
राष्ट्र, मानवता, और परिवार के लिए।
वह लड़ा, कभी झुका नहीं,
वह बहा, कहीं रुका नहीं।

एक टांग पहाड़ों में छूट गई,
आँख, संगीन से टूट गई,
दो हाथ जो मानवता के रक्षक थे,
एक काँपता है, दूसरा नहीं रहा।

जिस कान ने कप्तान की पुकार सुनी,
अब उसमें भूतों की गूँज बची है।
सीने में अब भी युद्ध चलता है,
वह बेबस, अब जंजीरों से बँधा है।

न पेंशन, न बचत की छाया,
सिर्फ खाली कमरों की माया।
अपने नगर में, घर में, बेगाना है,
हर द्वार, व्यक्ति के लिये अनजाना है।

नये अभियान पर भेजा गया
शयनकक्ष से हटाकर बैठक में,
फिर बैठक से भण्डार में,
भण्डार से तहखाने की यात्रा अधूरी थी।

तहखाने से गराज तक,
गराज से फ़ुटपाथ तक,
फ़ुटपाथ से बेघर-शरणालय तक,
यात्रा चली,  सरकारी अस्पताल के बाहर, मृत्यु तक।

नायक मिट गया, कृतघ्न जगत की रीत में,
वह उड़ा, धुआँ बनकर, बेनामी चिता से।
न बिगुल, न ध्वज, न सलामी, अंतिम आहुति में,
मौन दाह, शांत श्मशान, साक्षी - एकल महाब्राह्मण।

Saturday, August 9, 2025

बड़ी क़यामत छोटों की

क़द, रुतबे, या दौलत से
लोग छोटे नहीं होते,
छोटे लोग 
दिल के छोटे होते हैं।

उनकी हर रेवड़ी 
उनके मुँह तक पहुँचती है
उनकी हर दौड़
उनके महल पर रुकती है।

हर काम लेन-देन होता है
जिसमें लेन तो लेन है ही
हर देन भी उम्मीद होती है
एक बड़े लेन की।

छोटे लोग बात भी करते हैं
तो केवल अपने बारे में
उनकी दुनिया वे ही हैं
और अपना ब्रह्माण्ड भी वही।

वे याद दिलाते हैं
आपको टोककर
अपने उस काम की 
जो आपने अभी किया नहीं।

क्योंकि आप मसरूफ़ थे
भीतर तक धँसे हुए थे 
दूसरे कामों के ढेर में
जो सब के सब उन्हीं के थे।
 
लेन-देन उनकी ज़िंदगी है, पर
उन्हें नहीं कोई लेना-देना 
आपकी ज़िंदगी से
क्योंकि आप इंसान नहीं हैं।

उनके लिये आप एक सौदा हैं
पटे तो ठीक
नहीं तो कई और हैं ठौर
मोल-भाव करने को।

मुनाफ़े का सौदा करना
उन्हें खूब आता है
ज़िंदगी भर वही किया है
वही करेंगे क़यामत तक।