Saturday, October 10, 2015

तुम और हम - कविता

(शब्द व चित्र: अनुराग शर्मा)

तुम खूब रहे हम खूब रहे
तुम पार हुए हम डूब रहे

अपना न मुरीद रहा कोई
पर तुम सबके मतलूब रहे

तुम धूप हिमाल शुमाल की
हम शामे-आबे-जुनूब रहे

दोज़ख की आग तपाती हमें
और तुम फ़िरदौसी खूब रहे

हमसे पहचान हुई न मगर
तुम दुश्मन के महबूब रहे

शब्दार्थ:
मतलूब = वांछनीय, मनवांछित; हिमाल = हिमालय; शुमाल = उत्तर दिशा; आब = जल, सागर;
शाम = संध्या; जुनूब = दक्षिण दिशा; दोज़ख = नर्क; दुश्मन = शत्रु;
महबूब = प्रिय; फ़िरदौसी = फिरदौस (स्वर्ग) का निवासी = स्वर्गलोक का आनंद उठाता हुआ

16 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (12-10-2015) को "प्रातः भ्रमण और फेसबुक स्टेटस" (चर्चा अंक-2127) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. हमसे पहचान हुई न पर
    तुम दुश्मन के महबूब रहे
    ...वाह...बहुत ख़ूबसूरत रचना

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  3. तुम खूब रहे हम खूब रहे
    तुम पार हुए हम डूब रहे
    थोड़ा तैरना आ जाय तो हम भी पार होंगे :)
    अर्थपूर्ण एक से एक, सार्थक रचना !

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  4. ये हम तुम भी खूब हुए....

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  5. दोस्ती निभाना नहीं आया
    दुश्मनों संग खूब जिये

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  6. क्या बात है सर। बहुत खूब। बेहद खास। दमदार रचना। सादर बधाई।

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  7. नफ़रत पाली तुमसे हमने
    फिर भी अपने महबूब रहे!

    बहुत खूब अनुराग सर!

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  8. तुमसे नफ़रत भी की हमने
    और तुम ही मेरे महबूब रहे!

    बहुत ख़ूब, अनुराग सर!

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