Monday, May 1, 2017

डर लगता है - कविता

सुबह-सुबह न रात-अंधेरे घर में कोई डर लगता है
बस्ती में दिन में भी उसको अंजाना सा डर लगता है

जंगल पर्वत दश्त समंदर बहुत वीराने घूम चुका है
सदा अकेला ही रहता, हो साथ कोई तो डर लगता है

कुछ दूरी भी सबसे रक्खी सबको आदर भी देता है
भिक्षुक बन दर आए रावण, पहचाने न डर लगता है

अक्खड़ और संजीदा उसकी सबसे ही निभ जाती है
भावुक लोगों से ही उसको थोड़ा-थोड़ा डर लगता है

नाग भी पूजे, गाय भी सेवी, शूकर कूकर सब पाला है
पशुओं से भी आगे है जो उस मानव से डर लगता है।
(चित्र व शब्द: अनुराग शर्मा)

13 comments:

  1. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" बुधवार 03 मई 2017 को लिंक की गई है.... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा.... धन्यवाद!

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  2. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, "नर हो न निराश करो मन को ... “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  3. सुंदर बात सही तरीके से कही है आपने। शानदार

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  4. डर लगता है..
    जैसे चोट खाकर फौलाद हुए को शीशे से भी डर लगता है.
    अच्छी कविता.

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  5. मानव में डर रूपी शंका प्राकृतिक है परन्तु सत्यवान जन इन सबसे परे होते हैं ,सुन्दर व्याख्या ,आभार।

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  6. नाग भी पूजे, गाय भी सेवी, शूकर कूकर सब पाला है
    जो पशुओं से भी आगे है उस मानव से डर लगता है ... बहुत खूब ... आज के सन्दर्भ में लिखे लाजवाब शेर हैं सभी ... मानव कहाँ रह गया है मानव ...

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  7. सुन्दर प्रस्तुति

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  8. जो सामने है वह तो स्पष्ट है पर जो आवरण में है शंका वहीं होती है -डर स्वाभाविक है.

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