Sunday, June 16, 2019

ब्राह्मण कौन 2 (उपजातियाँ, गोत्र, प्रवर, और घर)

रेखाचित्र: अनुराग शर्मा
जीवन में अब तक दो बार मेरी जाति पूछी गयी है, दोनों बार ही अमेरिका में, अभारतीय समुदाय के, ईसाई मतावलम्बी व्यक्तियों द्वारा। भारत में जाति के आधार पर मेरे साथ भेदभाव भी हुए हैं, और अपमानित करने के प्रयास भी, लेकिन जाति शायद मेरे नाम या माथे पर पहले ही दिखती रही सो उसके बारे में कोई सीधा प्रश्न कभी नहीं किया गया। हाँ, छ्द्मरूपों में वे प्रश्न लगातार किये जाते रहे हैं। इसके अतिरिक्त भारतीय संस्कृति के विरोध में कई बार अनेक मिथ्या कथनों को सार्वभौमिक सत्य की तरह प्रस्तुत किये जाते भी देखता हूँ। यही प्रवृत्तियाँ इस लेख का कारक बनीं। इसमें मेरा कुछ नहीं है - परम्परा को जैसा देखा, समझा सामने है, ताकि आप भी सत्य-असत्य में भेद कर अपना निर्णय आप कर सकें। यह लेख वृहद और विविध भारतीय परम्परा को ध्यान में रखते मुख्यतः रुहेलखण्ड क्षेत्र की साढ़े-तीन घर की सनाढ़्य परम्परा को आधार मानकर लिखा गया है। सम्भव है भविष्य के किसी लेख में अन्य समूहों, वर्गों आदि की प्रामाणिक जानकारी भी दी जाये।

भारत में ही नहीं, कबीले और जातियाँ संसार भर में पाये जाते रहे हैं। कोई समूह अपने रंग के आधार पर खुद को श्रेष्ठ मानता था, कोई अपनी क्रूरता के आधार पर, तो कोई अपनी समृद्धि के आधार पर। अपने जैसे समूह में मिलना, और स्वयं को अपने से भिन्न लगने वालों से श्रेष्ठ समझना कुछ हद तक स्वाभाविक प्रवृत्ति है।

प्राचीन भारतीय समाज और संस्कृति कई मायनों में क्रांतिकारी रही है। भारतीय समाज के अनूठे विचारों में से एक वर्णाश्रम व्यवस्था भी थी। जन्मजात श्रेष्ठता की  विश्वव्यापीधारणाओं को नकारकर, जाति के बजाय कर्म और शालीनता को महत्व देना वर्ण व्यवस्था का आधार है।

पितृसत्ता तो संसार भर में सामान्य थी, केरल के नायर समुदाय में मातृकुल आज भी मान्य है। लेकिन भारतीय संस्कृति ने जन्म या रक्त के सम्बंध से कहीं ऊपर उठकर गोत्र द्वारा गुरुकुल से जुड़ने जैसी अपूर्व धारणा की नींव रखी। शास्त्रीय परम्परानुसार, भगवान राम का वंश इक्ष्वाकु, कुल रघुकुल, परंतु गोत्र वसिष्ठ है। किसी भी गुरुकुल के शिष्यों का गोत्र सामान्यतः उस गुरुकुल के संस्थापक के नाम पर होता था और सगोत्रियों को सगे-सम्बंधियों की तरह माना जाता था। इसी कारण उनमें विवाह सम्बन्ध प्रतिबंधित थे। अंतर्गोत्रीय विवाह दो भिन्न गुरुकुलों के बीच सेतु बनकर ज्ञान के आदान-प्रदान का कार्य भी करते थे। जब सारा संसार लगभग जंगली जीवन जीता था तब इतने बड़े देश को दुग्ध और शाकाहार आधारित स्वस्थ पोषण जैसी जानकारी, दशमलव गणित, और खगोलशास्त्र जैसे विज्ञान, शर्करा जैसा बहूपयोगी उत्पाद, हीरक-खनन जैसा अद्वितीय और अपूर्व कार्य, जातिवादी अहंकार और फ़िरकापरस्ती की जगह कर्म-आधारित वर्णाश्रम व्यवस्था जैसे सिद्धांत देने में गोत्र व्यवस्था का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है।

मूल गोत्र सप्तर्षियों के नाम पर रहे। बाद के ऋषि सामान्यतः प्रवर के रूप में मान्य हुये लेकिन सम्भव है कि कुछ क्षेत्रों में वे गोत्र-प्रवर्त्तक भी मान लिये गये हों। गोत्रों के कुछ सामान्य उदाहरण पराशर, वसिष्ठ, भरद्वाज, कश्यप आदि हैं। कहीं पढ़ा था कि काशी में 47 गोत्र ऋषियों के मंदिर ज्ञात हैं। काशी में और अन्यत्र ऐसे अधिक मंदिर भी हो सकते हैं, लेकिन मुझे उसकी जानकारी नहीं है।

गोत्र का उपसमूह है प्रवर। कई प्रवरों का एक गोत्र होता है, एक गोत्र में कई प्रवर हो सकते हैं। प्रवर गोत्र के प्रवर्तक मूल ऋषि के बाद में आने वाले ऋषियों की ओर संकेत करते हैं। प्रवर उन ऋषियों के नाम पर बने हैं जिन्होंने मूल गोत्र-प्रवर्त्तक ऋषि की मान्यताओं का प्रसार किया। एक गोत्र में प्रवर कितने भी हो सकते हैं, नहीं भी होते हैं। जिन गोत्रों में आगे कोई अन्य प्रवर्त्तक ऋषि नहीं हुआ वहाँ प्रवर नहीं है। सनाढ्य ब्राह्मण समुदाय के साढे-तीन घर का अर्द्ध भाग (साढ़े) इन्हीं प्रवरहीन गोत्रों का प्रतीक है।

गोत्र से इतर एक अन्य विभाजन क्षेत्र का भी है। सागरतट से दूर उत्तरभारतीय ब्राह्मण गौड़ तथा तटीय क्षेत्र के ब्राह्मण द्रविड़ कहलाये। द्रविड़ का उद्भव द्रव से हो सकता है, जिससे उनके तटीय क्षेत्रों में निवास के साथ-साथ समृद्धि का संकेत भी मिलता है। जातिवादी गोरे शासकों द्वारा आर्यन रेस तथा आर्य-द्रविड़ संघर्ष जैसी मिथ्या मान्यताओं की स्थापना उनकी अपनी स्वार्थसिद्धि के पथ में स्वाभाविक होते हुये भी पूर्णतः निराधार है।

गौड़ क्षेत्र के ब्राह्मणों को गौड़, सारस्वत, कान्यकुब्ज, मैथिल, उत्कल, सरयूपारीण, गुर्जर, देशस्थ, कोंकणस्थ आदि अनेक वर्गों में विभक्त किया जा सकता है। इसी प्रकार द्रविड़ ब्राह्मणों को तैलंग, अय्यर, अयंगार, नम्बूदरी, आदि अनेक खण्डों में विभक्त किया जा सकता है। लेकिन इनके अतिरिक्त सनाढ्य जैसे कुछ समूह आज भी क्षेत्रीय नाम से मुक्त हैं। कश्मीरी ब्राह्मण जैसे कुछ क्षेत्रीय नाम बाद में बने हुये भी लगते हैं।

जाति व्यवस्था के विपरीत वर्ण व्यवस्था कर्म पर आधारित थी लेकिन कालांतर में वह भी लगभग जाति की समरूप ही हो गयी। विवाह सम्बंध के मामलों में अधिकांश समूह अन्य समूहों से अलग होते गये। चीन-जापान आदि अनेक देशों में कुलनाम बदलना आज भी कानून के विरुद्ध है लेकिन भारत में कुलनामों के विषय में कोई कानून न होना अपने समूह के बाहर के अपरिचितों के वास्तविक वर्ण, परम्परा, खानपान, शुचिता आदि के प्रति अविश्वास का कारण भी बना और अपनी-अपनी परम्पराओं को बाह्य आक्रमणों से बचाये-बनाये रखने का एकमात्र साधन भी।

सात्विक भोजन (प्याज़-लहसुन आदि गंधक-वनस्पति रहित शाकाहार व दुग्ध उत्पाद मात्र) के प्रति सनाढ्य ब्राह्मणों का अटूट आग्रह कुछ अन्य ब्राह्मण समूहों विशेषकर कान्यकुब्ज समूह से उनके अलगाव का कारण बना। गोत्र-प्रवर के वर्गीकरण के अनुसार सनाढ्य ब्राह्मण समुदाय स्वयं भी दो उपवर्गों दसघर और साढ़े-तीन घर में बँट गया। जहाँ दसघर कुल 10 गोत्रों का समूह था वहीं साढ़े तीन घर में दो प्रकार के गोत्र थे, पहले वे जिनके हर गोत्र में तीन अल्ल (शासन, प्रवर या कुलनाम) हैं, और दूसरे वे जिनमें कोई प्रवर नहीं। तीन प्रवर वाले गोत्रों का एक उदाहरण पाराशर गोत्र है जिसमें तीन कुलनाम पाण्डेय, पाराशरी, व त्रिगुणायत पाये जाते हैं तथा एकल-प्रवर वाले गोत्र का उदाहरण च्यवन है जिनका कुलनाम कष्टहा (तद्भव कटिहा) है। सांख्यधर (तद्भव शंखधार) कुलनाम भी भी साढ़े-तीन घर के सनाढ्यों के एकल-प्रवर कुल का एक उदाहरण है। साढ़े-तीन घर में प्रयुक्त अर्थ इन्हीं एकल-प्रवर कुलों के प्रतीक हैं।

गोत्र के सामान्य नियमों के अनुसार दसघर के गोत्र एक-दूसरे में विवाह सम्बंध बनाते रहे हैं। परम्परानुसार उनकी कन्याओं का विवाह साढ़े-तीन घर के वरों के साथ हो सकता था, यद्यपि उसके विलोम से सामान्यतः बचा जाता था, लेकिन पूर्ण मनाही जैसी स्थिति नहीं थी। हाँ ये दोनों ही वर्ग अन्य ब्राह्मण या अब्राह्मण समूहों में विवाह नहीं करते थे। मुख्य बाधा खानपान की पवित्रता की अवधारणा ही थी। स्नान के बिना या चप्पल आदि पहनकर रसोई में प्रवेश प्रतिबंधित था। दिन का भोजन कच्चा अर्थात, दाल, भात, रोटी, रायता, सलाद आदि होता था जबकि शाम का भोजन पक्का अर्थात पूरी, पराँठे, सब्ज़ी (तली हुई) आदि होते थे। इनके सामान्य व्यवसायों में कथावाचन, वैद्यकी, ज्योतिष, व पौरोहित्य भी थे। पौरोहित्य व्यवसाय के कारण इनका खानपान सभी हिंदू जातियों में होता था। लेकिन उसमें पका खाना और कच्चा खाना के नियम थे जिसके अनुसार दाल, चावल, रोटी आदि जैसे बिना-तले पदार्थ घर से बाहर के पके नहीं खाये जाते थे। पवित्रता का ध्यान रखते हुए फलाहार, तथा पक्का खाना आवश्यकतानुसार बाहर की रसोई का भी खाया जा सकता था। इनके हाथ के बनाये हुए कच्चे भोजन सहित सभी सामग्री सभी जातियों और धर्मों में भोज्यपदार्थ के लिये समान रूप से विश्वसनीय और स्वीकार्य थी। शायद इसी कारण यह समुदाय भोजन, मिष्ठान्न आदि के व्यवसाय से भी जुड़ा रहा है। खाना पकाने वाले कर्मी को महाराज कहने का रिवाज़ भी इनके इस व्यवसाय से ही आया है क्योंकि इस समुदाय के व्यक्तियों को आदर से 'पण्डित जी महाराज', पण्डितजी, या महाराज कहने की प्रथा है। इसीलिये कुछ क्षेत्रों में रसोइये को ही महाराज कहा जाने लगा।

नमस्कार के लिये सामान्यतः पण्डित जी पालागन या दण्डवत महाराज जैसे सम्बोधन सामान्य थे। मुझे याद है कि बरेली में मेरे मुस्लिम अध्यापक भी मुझे पण्डित जी महाराज कहकर ही बुलाते थे।

अधिकांश सनाढ्य अपने नाम में अपनी अल्ल/अल्ह (कुलनाम) का प्रयोग करते हैं, कुछ सामान्य ब्राह्मण नाम 'शर्मा' का भी प्रयोग करते हैं और कोई-कोई अपने गोत्र का। उपराष्ट्रपति गोपाल स्वरूप पाठक, मुख्य न्यायाधीश रामस्वरूप पाठक, केंद्रीय विद्यालय संगठन के मुख्य आयुक्त श्री रमेश चंद्र शर्मा आदि इस समुदाय के ही हैं। कुछ कुलनामों का प्रयोग इसलिये नहीं किया जाता था क्योंकि वे अन्य समुदायों के कुछ अन्य कुलनामों से मिलते-जुलते होने के कारण सुनने वाले को भ्रमित कर सकते थे। उदाहरण के लिये सनाढ्य शब्द को ही कुलनाम में प्रयुक्त नहीं किया जाता था क्योंकि वह अब्राह्मण जाति सनौढ़िया से भ्रमित कर सकता था। इसी प्रकार कष्टहा, या कटिहा कुलनाम वाले सामान्यतः शर्मा लिखते थे ताकि उन्हें कट्ट्या महाब्राह्मण न समझ लिया जाये। ज्ञातव्य है कि महाब्राह्मण हिंदुओं का अंतिम संस्कार कराने वाले ब्राह्मण वर्ग के लिये रूढ़ नाम है जो श्मशान में अंतिम संस्कार कराने के कारण सामान्य पूजा-पाठ से अलग हो गये थे, और सामान्य व्यवहार में लगभग अब्राह्मण जैसे ही समझे जाने लगे थे। सामाजिक, शैक्षिक, आर्थिक स्थिति में भी कट्ट्या समुदाय देश के सर्वाधिक पिछड़े वर्गों में से एक और दलितों में भी अति-दलित जैसे हैं। आर वी रसैल (R. V. Russell) ने भी अपने अज्ञान के कारण ही 'The Tribes and Castes of the Central Provinces of India - Volume II' में जब साढ़े-तीन घर के सनाढ्यों को एक बार महाब्राह्मणों में विवाहित (*Further, it is said that the Three-and-a-half group were once made to intermarry with the degraded Kataha or Maha-Brahmans, who are funeral priests.) बताया है तो उसका कारण कष्टहा तथा कट्ट्या को समान समझने का भ्रम ही है।
सनेन तपसा वेदेन च सना निरंतरमाढ्य: पूर्ण सनाढ्य:
साढ़े-तीन घर के कई कुलनाम दसघर के कुलनामों के समान होते हुए भी अलग हैं। इसी प्रकार दसघर के अधिकांश कुलनाम कान्यकुब्ज या गौड़ ब्राह्मणों के समान होते हुए भी वास्तव में उनसे भिन्न हैं। महाराष्ट्र से नेपाल तक पाया जाने वाला पाण्डेय कुलनाम अलग-अलग क्षेत्र में अलग-अलग ब्राह्मण समूहों का प्रतिनिधित्व करता है। सनाढ्यों के मिश्र में ही भेद (सरैय के मिसर, या कटैय्या के मिसर) हैं। इसी प्रकार साढ़े-तीन घर के पाठक दसघर के पाठकों से भिन्न हैं।

सनाढ्यों में प्रचलित कुछ कुलनाम
साढ़े-तीन घर: मिश्र (गोत्र: कश्यप), पाठक (गोत्र: कश्यप), पाण्डेय (गोत्र: पाराशर), कटिहा (गोत्र: च्यवन), पाराशरी (गोत्र: पाराशर), त्रिगुणायत (गोत्र: पाराशर), शंखधार (गोत्र: अगस्त्य),
दसघर: मिश्र, पाठक (गोत्र: भरद्वाज), उपाध्याय, चतुर्वेदी


विषय विस्तृत है, इस पर प्रकाशित प्रामाणिक जानकारी का अभाव है। अधिकांश उपलब्ध जानकारी अपने-अपने क्षेत्र या कुल को औरों से श्रेष्ठ बताने के पूर्वाग्रह से युक्त, तथ्यहीन, और असत्य है। अंतर्जाल पर उपलब्ध जानकारी में अनेक ऊलजलूल कहानियाँ कट-पेस्ट करके दोहरायी गयी हैं। इसके अतिरिक्त नई पीढ़ी के बच्चे अपने गोत्र-प्रवर-समूह आदि की जानकारी से वंचित भी हैं। इस आलेख का उद्देश्य लुप्त हो रही जानकारी को लिपिबद्ध करना है। लेखक का विश्वास किसी भी जाति को उच्च या निम्न न मानते हुये प्राणिमात्र की उन्नति की भारतीय अवधारणा में है।

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःख भाग्भवेत्।



7 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (17-06-2019) को "पितृत्व की छाँव" (चर्चा अंक- 3369) (चर्चा अंक- 3362) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    पिता दिवस की
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. भारतीय गोत्र परंपरा के बारे में शोधपरक, रोचकता पूर्ण लेख

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  3. सनेन तपसा वेदेन च सना निरंतरमाढ्य: पूर्ण सनाढ्य:...सनाढयों के बारे में विस्‍तृत जानकारी देेेने के लिए आपका धन्‍यवाद, मैं इस पेज को बुकमार्क कर रही हूंं।

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  4. आपनी जड़ों को जानने की स्वाभाविक इच्छा शक्ति ही इस प्रकार के शोध की जनक है.
    साधुवाद!

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  5. शोधपूर्वक विस्तृत और भरपूर जानकारी उपलब्ध कराई है आपने ...
    अपने इतिहास को सही अर्ढ़ में दुबारा लिपिबद्ध कररने की जरूरत है ... सरल भाषा में करने की जरूरत है जिससे इसका दुरूपयोग और भ्रामक बातें फैलने से रोकी जा सकें ... साधुवाद है आपको ...

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  6. बहुत अच्छा सारगर्भित लेख है । वर्ण व्यवस्था के मूल प्रयोजन को समझे बिना इसका विरोध होता रहा है । पालागन, कच्ची और पक्की रसोई terms पढ़ कर बहुत आनन्द आया ।

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मॉडरेशन की छन्नी में केवल बुरा इरादा अटकेगा। बाकी सब जस का तस! अपवाद की स्थिति में प्रकाशन से पहले टिप्पणीकार से मंत्रणा करने का यथासम्भव प्रयास अवश्य किया जाएगा।