मन में इक सूना कोना है
जिसमें छिप-छिपके रोना है
अपनी पीर सम्भालो आप ही
कहके किससे क्या होना है॥
गलियों-गलियों फिरता मारा
रात विवश और दिन बेचारा
जागृत मनवा चैन न पाता
भाग्य में अपने कब सोना है॥
ग़र्द-गुबार और छींटें गंदी
इधर-उधर से हम पर पड़तीं
दुनिया धोने निकले थे अब
तन-मन अपना ही धोना है॥
सीमित रिश्ते सतही नाते
खुद से बाहर सोच न पाते
जीते जी जिससे भी मिल लो
शव अपना खुद ही ढोना है॥
सुख आभासी दुःख आभासी
जीवन माया, या बस छाया
जो भी मिला इसी जीवन का
अपना क्या था जो खोना है॥
अपना क्या था जो खोना है॥
वाह
ReplyDeleteजय मां हाटेशवरी.......
ReplyDeleteआपने लिखा....
हमने पढ़ा......
हम चाहते हैं कि इसे सभी पढ़ें.....
इस लिये आप की ये खूबसूरत रचना.......
दिनांक 20/ 07/2021 को.....
पांच लिंकों का आनंद पर.....
लिंक की जा रही है......
आप भी इस चर्चा में......
सादर आमंतरित है.....
धन्यवाद।
जय मां हाटेशवरी.......
आपने लिखा....
हमने पढ़ा......
हम चाहते हैं कि इसे सभी पढ़ें.....
इस लिये आप की ये खूबसूरत रचना.......
दिनांक 20/ 07/2021 को.....
पांच लिंकों का आनंद पर.....
लिंक की जा रही है......
आप भी इस चर्चा में......
सादर आमंतरित है.....
धन्यवाद।
धन्यवाद
Deleteबहुत बेहतरीन काव्य रचना
Deleteसुन्दर।
ReplyDeleteमन में इक सूना कोना है
ReplyDeleteजिसमें छिप-छिपके रोना है
अपनी पीर सम्भालो आप ही
कहके किससे क्या होना है॥
बहुत सुंदर रचना । जीवन के यथार्थ को कहती हुई ।
अंतर के दर्द को सुंदर शब्दों में पिरोया है, जीवन के यथार्थ को जीकर ही उससे पार ज़ाया जा सकता है
ReplyDeleteसुंदर और अनुपम सृजन।
ReplyDeleteअति सुन्दर भाव सृजन ।
ReplyDeleteभाव पूर्ण अभिव्यक्ति। सुंदर सरल
ReplyDelete