थे रक़ीबों से घिरे तुम, हम बुलाते भी तो क्या
वस्ल के क़िस्से ही सारे, नींद अपनी ले गये
विरह के सपने तुम्हारे, फिर डराते भी तो क्या
जो कहा, या जैसा समझा, वह कभी तुम थे नहीं
नक़्शा-ए-बुत-ए-काफ़िर, हम बनाते भी तो क्या
भावनाओं के भँवर में, हम फँसे, तुम तीर पर
बिक गये बेभाव जो, क़ीमत चुकाते भी तो क्या
अनुराग है तुमने कहा, पर प्रीत दिल में थी नहीं
हम किसी अहसान की, बोली लगाते भी तो क्या
Waah kya baat hai
ReplyDeleteBahut badhiya
वाह
ReplyDeleteअति सुंदर
ReplyDeleteविराग ना राग रहे
ReplyDeleteअनुराग बहे भीतर,
प्रमाद पिघल जाये
बस जाग रहे भीतर !
कोमल भावों से सजी बेहतरीन ग़ज़ल,
बहुत सुन्दर
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