(अनुराग शर्मा)
स्वर्णमयी है लंका अपनी, जनता रोती क्यूं रहती है
दीनों को धकियाकर देखो भाई भतीजे पास आ गये॥
दो रोटी को निकला बेटा घर लौटे तो रामकृपा है
प्रगतिवादी और जिहादी, बारूदी सुरंग लगा गये ॥
परदेसी बेदर्द पाशविक, मुश्किल से पीछा छूटा था
सपना देखा स्वराज्य का जाने कैसे लोक आ गये॥
वैसे तो आज़ाद सभी हैं, कोई ज़्यादा कोई कम है
दारू की बोतल बंटवाकर नेताजी सब वोट पा गये॥
टूटी सडकें बहते नाले, फूटी किस्मत, जेबें खाली
योजनायें कागज़ पर बनतीं, ठेके रिश्तेदार पा गये॥
गिद्ध चील नापैद हो गये, गायें कचरा खाकर मरतीं
गधे बेचारे भूखे रह गये, मुख्यमंत्री घास खा गये॥
गर्मी भर छलके जाते हैं, बरसातों में बान्ध टूटते
बूंदों को तरसा करते थे लहरों की गोदी समा गये॥