(अनुराग शर्मा)
वेतन निर्धारण एक जटिल प्रक्रिया है। भारत में एक सरकारी बैंक की नौकरी के समय उच्चाधिकारियों द्वारा जो एक बात बारम्बार याद दिलाई जाती थी, वह यह थी कि हम 24 घंटे के कर्मचारी थे। यह सर्वज्ञात था कि हमारा वेतन हमारे उस अतिरिक्त समय के हिसाब से तय नहीं किया जाता था। मेरे कितने ही अधीनस्थ मुझसे अधिक वेतन भत्ते पाते थे। कम्युनिस्ट देशों में तो वेतन कर्मचारी के काम, अनुभव या शिक्षा आदि पर आधारित न होकर सरकार द्वारा आँकी गई उनकी व्यक्तिगत आवश्यकताओं के आधार पर निर्धारित होता था।
आज समय बदल चुका है। कम्युनिस्ट तंत्र तो अपनी विद्रूपताओं के चलते दुनिया भर से लगभग साफ़ ही हो चुके हैं। नये संचार माध्यम और व्यापक जागरूकता के कारण सैन्य और धार्मिक तानाशाहियाँ भी समाप्ति के कगार पर ही हैं। लोकतंत्र का दायरा बढता जा रहा है। और इसके साथ ही बढ रही है व्यक्तिगत सम्पत्ति, और व्यवसाय चुनने की स्वतंत्रता। भारत, जापान, जर्मनी और अमेरिका जैसे लोकतंत्रीय राष्ट्रों में सिद्धांततः प्रत्येक व्यक्ति को अपनी मर्ज़ी का काम करने की पूरी स्वतंत्रता है। और उसी तरह कम्पनियों को भी आवश्यकतानुसार सुशिक्षित, कुशल और पद के लिये सटीक व्यक्ति चुनने और उन्हें भरपूर वेतन-भत्ते देने का अधिकार है।
श्रम है तो उसके मूल्य की बात उठना स्वाभाविक ही है। विभिन्न कर्मचारियों के कार्य की परिस्थितियाँ एक दूसरे से अलग होती हैं, और उसी प्रकार उनके वेतन की संरचना भी अलग होती है। कुछ दशक पहले के भारत में व्यक्ति एक बार एक नौकरी में घुसता था तो रिटायर होकर ही निकलता था लेकिन अब हालात दूसरे हैं। सूचना-संचार क्रांति और अंतर्राष्ट्रीय निगमों के आने के बाद से नौकरी के क्षेत्र में गलाकाट प्रतिस्पर्धा चल रही है। कर्मचारियों को ऊँची तनख्वाह देना नियोक्ताओं का नैतिक कर्तव्य ही नहीं उनकी मजबूरी भी बन गया है। “पैकेज” आज के युवा का मूलमंत्र सा है।
विज्ञान की प्रगति के साथ संसार भी सिकुड़ सा गया है। एक-दूसरे देश में आना जाना पहले से कहीं आसान हुआ है। इसके साथ ही अपने घर बैठे-बैठे दूर देश के नियोक्ता के लिये काम कर पाना भी सम्भव है। नियोक्ता और कर्मचारी के देशों के बीच की प्रति-व्यक्ति आय में अंतर होना भी स्वाभाविक है। अमेरिका में रहकर काम करते हुए भारत से अधिक वेतन पाना सामान्य बात है क्योंकि वहाँ का जीवन स्तर और जीवन यापन की लागत दोनों ही अलग हैं। कार्य-संस्कृति भी अलग है लेकिन उस पर बात फिर कभी होगी। भारत में रहते हुए किसी विदेशी संस्थान में काम करना एक अलग ही अनुभव है क्योंकि तब आप भारतीय परिवेश में रहते हुए भी अमेरिकी जीवन-स्तर के निकट होते हैं। इन विदेशी संस्थानों के सामने अपने मानव संसाधनों को न केवल बनाये रखने की चुनौती है बल्कि उसी संस्थान में रहते हुए उनको आगे बढने की प्रेरणा देने का ज़िम्मा भी है। ये संस्थान एक बड़ी चुनौती का सामना कर रहे हैं। बिल्कुल भिन्न वातावरण से आये, बल्कि कई बार दूर देश में ही रहते हुए काम कर रहे कर्मियों को अपनी कार्य संस्कृति से परिचित कराना, उन्हें एक अपरिचित नियमितता में ढालना आसान काम नहीं है। नैतिक, सामाजिक भेदों के अलावा बहुत से वैधानिक अंतर भी हैं जिन्हें समझने के लिये कर्मचारी चयन प्रक्रिया का एक उदाहरण काफ़ी है। भारत से आने वाले बहुत से आवेदनों में आवेदक के शिक्षा-वृत्त में जन्मतिथि, डिग्री पाने की तारीखें और माता-पिता के नाम आदि सामान्य सी बातें है जबकि अमेरिका में किसी आवेदक के जीवनवृत्त में सामान्यतः ऐसा कुछ नहीं होता जिससे उसकी आयु, सामाजिक स्थिति आदि का पता लग सके। बस काम से काम रखना शायद इसी को कहते हैं। भेदभाव से बचने के लिये, साक्षात्कार के जटिल नियमों के अनुसार किसी आवेदक के राष्ट्रीय मूल, आयु आदि के बारे में पूछना ग़ैर-क़ानूनी बनाया गया है। खासकर अमेरिका में पनपी बहुविध संस्कृति ने अपने द्वार दुनिया भर के योग्य कर्मचारियों के खोल रखे हैं।
बुद्धि-श्रम सम्मान के इस भौगोलिक परिदृश्य में आज के इस समय में भारत की स्थिति विशिष्ट है। भारतीय संस्कृति ने अनेक धार्मिक, ऐतिहासिक कारणों से शिक्षा को सदैव ही मूर्धन्य स्थान दिया है। भले ही आज़ादी के दशकों बाद भी देश का निर्धन वर्ग मूलभूत साक्षरता से वंचित हो, भले ही खेलों में हमारी दशा अति-शोचनीय हो, हमारे शिक्षण संस्थानों से आज भी किसी अन्य देश से अधिक चिकित्सक, अभियंता और अनुसन्धानकर्ता निकलते हैं। सूचना क्रांति के आरम्भिक दिनों की बात है जब बैंगळूरु जैसे नगरों में सूचना प्रौद्योगिकी में काम कर रहे कर्मचारी भोजनावकाश के समय भर्ती करनेवालों के दलों द्वारा घेर लिये जाते थे। समय के साथ तरीके बदले हैं लेकिन आधुनिक तकनीक की बढती मांग को न कोई मन्दी, और न कोई युद्ध ही मिटा सका है।
किसी भारतीय को बहुराष्ट्रीय संस्थान द्वारा उच्च पद या अद्वितीय रूप से बड़ा वेतन दिया जाना अक्सर अखबारों की सुर्खी बनता है। पिछले दिनों फ़ेसबुक ने भोपाल के मौलाना आजाद नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (मैनिट) में कैंपस प्लेसमेंट के लिए छात्रों के वृत्तांत मांगे थे जिनमें से चुने गये छात्रों को अस्सी लाख रुपये से लेकर सवा करोड़ तक का वेतन दिये जाने की सम्भावना है। यह वेतन अब तक के सबसे बड़े प्रस्तावों में से एक है। ऐसी खबर पढकर जहाँ प्रसन्नता होती है वहीं कई प्रश्न भी उठते हैं, यथा: ऐसा कौन सा काम है कि जिसके लिये इतना बड़ा पैकेज प्रदान किया जाता है? आखिर बड़े वेतन तय कैसे होते हैं? बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के कामकाज और उनके प्रतिभा खोज अभियान कैसे काम करते हैं? आदि। सरकारी क्षेत्रों के वेतन अक्सर किसी व्यापक अध्ययन या किसी आयोग की सिफ़ारिशों पर आधारित होते हैं। कुछ क्षेत्रों में आज भी मज़दूर संघ हैं जो प्रबन्धन से बातचीत करके एक नियमित अंतराल के लिये वेतन करार करते हैं। कम कर्मचारी, विशिष्ट तकनीक, नवोन्मेषी उत्पाद, और विश्वव्यापी व्यवसाय वाले संस्थान अक्सर अपने वेतन तय करने के लिये पद की अर्हतायें, योग्यता की सुलभता, जन-संसाधन के बारे में उपलब्ध जानकारी व तकनीक आदि के साथ साथ नवागंतुक की व्यक्तिगत विशेषताओं को भी ध्यान में रखते हैं। अधिकांश कार्यस्थलों की संरचना इस प्रकार की होती है कि शारीरिक विकलांगता, लिंगभेद आदि के कारण किसी कर्मचारी के साथ जाने-अनजाने भेदभाव न हो।
बहुत से पदों के वेतनमान कार्य की विशेषता और नियोक्ता की भौगोलिक स्थिति से रूढ होते हैं लेकिन तब भी सक्षम कम्पनियाँ अपनी पहल बनाये रखने के लिये अधिक वेतन व सुविधायें देकर बेहतर कर्मचारी पाने को लालायित रहती हैं। लेकिन कई बार ऐसा भी होता है कि पद और वेतन का कार्य निष्पादन से कोई खास संतुलन नहीं बन पाता। कितनी ही बार बड़ी कम्पनियाँ किसी बड़े सौदे की आशा में कर्मचारियों की फ़ौज खड़ी कर लेती हैं ताकि काम मिलने की स्थिति में उसे कुशलता से निबटाया जा सके। काम आया तो ठीक वर्ना ऐसे कर्मचारियों को स्थानांतरण या बर्खास्तगी का सामना भी करना पड़ता है।
रोज़गार के क्षेत्र में नित नई जानकारी का प्रयोग भी धड़ल्ले से हो रहा है। कर्मचारियों का मनोबल ऊँचा कैसे रहे? उनकी अभिप्रेरणा क्या हो? ऐसा क्या किया जाये कि काम से उन्हें उदासी नहीं, प्रसन्नता मिले। भारत में केनरा बैंक में नौकरी के समय से मुझे मनन-कक्ष (मेडिटेशन रूम) का विचार याद है। अमेरिका की अधिकांश कम्पनियाँ अपने कर्मचारियों को मूलभूत से अधिक सुविधायें देने का प्रयास करती हैं। फ़्लेक्सि-ऑवर्स यानि कर्मचारी की सुविधानुसार कार्य-समय का निर्धारण, स्वास्थ्य सुविधा, जीवन बीमा, आवागमन, पार्किंग स्थल आदि से कहीं आगे बढकर कर्मचारियों को उच्च या विशिष्ट शिक्षा की सुविधायें देना, घर से काम करने का सुरक्षित वातावरण प्रदान करना, दूसरे नगर, देश आदि से आने पर आने-जाने, सामान पहुँचाने से लेकर पुराना घर बेचने और नया घर लेने आदि जैसे कार्य भी कई बार नये नियोजक द्वारा निष्पादित किये जाते हैं। भारत से आये कर्मचारियों के लिये विधिक प्रायोजन और ग्रीन कार्ड आदि से सम्बन्धित खर्च करना भी एक आम बात है।
यदि कम्पनी किसी पद के लिये अनुभव के साथ-साथ प्रबन्धन की शिक्षा की आवश्यकता महसूस करती है तो उसके सामने कई विकल्प दिखते हैं। किसी अनुभवी कर्मचारी को शिक्षित करना या पहले से शिक्षित अनुभवी कर्मचारी को लेना। क्या किया जायेगा यह अनेक बातों पर निर्भर करता है, जैसे आवश्यकता की योजना कितने पहले बनाई जा चुकी है, अनुभवी एमबीए कितने सुलभ हैं और बाहर से उन्हें बुलाने में क्या-क्या अड़चनें हैं। कुल मिलाकर आज के बहुराष्ट्रीय संस्थानों का का मूलमंत्र है, सर्वश्रेष्ठ कर्मचारी पाना जो संख्या में भले ही कम हों मगर काम में किसी से भी कम न हों और इस काम के लिये धन कोई बाधा नहीं है।
वेतन निर्धारण एक जटिल प्रक्रिया है। भारत में एक सरकारी बैंक की नौकरी के समय उच्चाधिकारियों द्वारा जो एक बात बारम्बार याद दिलाई जाती थी, वह यह थी कि हम 24 घंटे के कर्मचारी थे। यह सर्वज्ञात था कि हमारा वेतन हमारे उस अतिरिक्त समय के हिसाब से तय नहीं किया जाता था। मेरे कितने ही अधीनस्थ मुझसे अधिक वेतन भत्ते पाते थे। कम्युनिस्ट देशों में तो वेतन कर्मचारी के काम, अनुभव या शिक्षा आदि पर आधारित न होकर सरकार द्वारा आँकी गई उनकी व्यक्तिगत आवश्यकताओं के आधार पर निर्धारित होता था।
आज समय बदल चुका है। कम्युनिस्ट तंत्र तो अपनी विद्रूपताओं के चलते दुनिया भर से लगभग साफ़ ही हो चुके हैं। नये संचार माध्यम और व्यापक जागरूकता के कारण सैन्य और धार्मिक तानाशाहियाँ भी समाप्ति के कगार पर ही हैं। लोकतंत्र का दायरा बढता जा रहा है। और इसके साथ ही बढ रही है व्यक्तिगत सम्पत्ति, और व्यवसाय चुनने की स्वतंत्रता। भारत, जापान, जर्मनी और अमेरिका जैसे लोकतंत्रीय राष्ट्रों में सिद्धांततः प्रत्येक व्यक्ति को अपनी मर्ज़ी का काम करने की पूरी स्वतंत्रता है। और उसी तरह कम्पनियों को भी आवश्यकतानुसार सुशिक्षित, कुशल और पद के लिये सटीक व्यक्ति चुनने और उन्हें भरपूर वेतन-भत्ते देने का अधिकार है।
श्रम है तो उसके मूल्य की बात उठना स्वाभाविक ही है। विभिन्न कर्मचारियों के कार्य की परिस्थितियाँ एक दूसरे से अलग होती हैं, और उसी प्रकार उनके वेतन की संरचना भी अलग होती है। कुछ दशक पहले के भारत में व्यक्ति एक बार एक नौकरी में घुसता था तो रिटायर होकर ही निकलता था लेकिन अब हालात दूसरे हैं। सूचना-संचार क्रांति और अंतर्राष्ट्रीय निगमों के आने के बाद से नौकरी के क्षेत्र में गलाकाट प्रतिस्पर्धा चल रही है। कर्मचारियों को ऊँची तनख्वाह देना नियोक्ताओं का नैतिक कर्तव्य ही नहीं उनकी मजबूरी भी बन गया है। “पैकेज” आज के युवा का मूलमंत्र सा है।
विज्ञान की प्रगति के साथ संसार भी सिकुड़ सा गया है। एक-दूसरे देश में आना जाना पहले से कहीं आसान हुआ है। इसके साथ ही अपने घर बैठे-बैठे दूर देश के नियोक्ता के लिये काम कर पाना भी सम्भव है। नियोक्ता और कर्मचारी के देशों के बीच की प्रति-व्यक्ति आय में अंतर होना भी स्वाभाविक है। अमेरिका में रहकर काम करते हुए भारत से अधिक वेतन पाना सामान्य बात है क्योंकि वहाँ का जीवन स्तर और जीवन यापन की लागत दोनों ही अलग हैं। कार्य-संस्कृति भी अलग है लेकिन उस पर बात फिर कभी होगी। भारत में रहते हुए किसी विदेशी संस्थान में काम करना एक अलग ही अनुभव है क्योंकि तब आप भारतीय परिवेश में रहते हुए भी अमेरिकी जीवन-स्तर के निकट होते हैं। इन विदेशी संस्थानों के सामने अपने मानव संसाधनों को न केवल बनाये रखने की चुनौती है बल्कि उसी संस्थान में रहते हुए उनको आगे बढने की प्रेरणा देने का ज़िम्मा भी है। ये संस्थान एक बड़ी चुनौती का सामना कर रहे हैं। बिल्कुल भिन्न वातावरण से आये, बल्कि कई बार दूर देश में ही रहते हुए काम कर रहे कर्मियों को अपनी कार्य संस्कृति से परिचित कराना, उन्हें एक अपरिचित नियमितता में ढालना आसान काम नहीं है। नैतिक, सामाजिक भेदों के अलावा बहुत से वैधानिक अंतर भी हैं जिन्हें समझने के लिये कर्मचारी चयन प्रक्रिया का एक उदाहरण काफ़ी है। भारत से आने वाले बहुत से आवेदनों में आवेदक के शिक्षा-वृत्त में जन्मतिथि, डिग्री पाने की तारीखें और माता-पिता के नाम आदि सामान्य सी बातें है जबकि अमेरिका में किसी आवेदक के जीवनवृत्त में सामान्यतः ऐसा कुछ नहीं होता जिससे उसकी आयु, सामाजिक स्थिति आदि का पता लग सके। बस काम से काम रखना शायद इसी को कहते हैं। भेदभाव से बचने के लिये, साक्षात्कार के जटिल नियमों के अनुसार किसी आवेदक के राष्ट्रीय मूल, आयु आदि के बारे में पूछना ग़ैर-क़ानूनी बनाया गया है। खासकर अमेरिका में पनपी बहुविध संस्कृति ने अपने द्वार दुनिया भर के योग्य कर्मचारियों के खोल रखे हैं।
बुद्धि-श्रम सम्मान के इस भौगोलिक परिदृश्य में आज के इस समय में भारत की स्थिति विशिष्ट है। भारतीय संस्कृति ने अनेक धार्मिक, ऐतिहासिक कारणों से शिक्षा को सदैव ही मूर्धन्य स्थान दिया है। भले ही आज़ादी के दशकों बाद भी देश का निर्धन वर्ग मूलभूत साक्षरता से वंचित हो, भले ही खेलों में हमारी दशा अति-शोचनीय हो, हमारे शिक्षण संस्थानों से आज भी किसी अन्य देश से अधिक चिकित्सक, अभियंता और अनुसन्धानकर्ता निकलते हैं। सूचना क्रांति के आरम्भिक दिनों की बात है जब बैंगळूरु जैसे नगरों में सूचना प्रौद्योगिकी में काम कर रहे कर्मचारी भोजनावकाश के समय भर्ती करनेवालों के दलों द्वारा घेर लिये जाते थे। समय के साथ तरीके बदले हैं लेकिन आधुनिक तकनीक की बढती मांग को न कोई मन्दी, और न कोई युद्ध ही मिटा सका है।
किसी भारतीय को बहुराष्ट्रीय संस्थान द्वारा उच्च पद या अद्वितीय रूप से बड़ा वेतन दिया जाना अक्सर अखबारों की सुर्खी बनता है। पिछले दिनों फ़ेसबुक ने भोपाल के मौलाना आजाद नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (मैनिट) में कैंपस प्लेसमेंट के लिए छात्रों के वृत्तांत मांगे थे जिनमें से चुने गये छात्रों को अस्सी लाख रुपये से लेकर सवा करोड़ तक का वेतन दिये जाने की सम्भावना है। यह वेतन अब तक के सबसे बड़े प्रस्तावों में से एक है। ऐसी खबर पढकर जहाँ प्रसन्नता होती है वहीं कई प्रश्न भी उठते हैं, यथा: ऐसा कौन सा काम है कि जिसके लिये इतना बड़ा पैकेज प्रदान किया जाता है? आखिर बड़े वेतन तय कैसे होते हैं? बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के कामकाज और उनके प्रतिभा खोज अभियान कैसे काम करते हैं? आदि। सरकारी क्षेत्रों के वेतन अक्सर किसी व्यापक अध्ययन या किसी आयोग की सिफ़ारिशों पर आधारित होते हैं। कुछ क्षेत्रों में आज भी मज़दूर संघ हैं जो प्रबन्धन से बातचीत करके एक नियमित अंतराल के लिये वेतन करार करते हैं। कम कर्मचारी, विशिष्ट तकनीक, नवोन्मेषी उत्पाद, और विश्वव्यापी व्यवसाय वाले संस्थान अक्सर अपने वेतन तय करने के लिये पद की अर्हतायें, योग्यता की सुलभता, जन-संसाधन के बारे में उपलब्ध जानकारी व तकनीक आदि के साथ साथ नवागंतुक की व्यक्तिगत विशेषताओं को भी ध्यान में रखते हैं। अधिकांश कार्यस्थलों की संरचना इस प्रकार की होती है कि शारीरिक विकलांगता, लिंगभेद आदि के कारण किसी कर्मचारी के साथ जाने-अनजाने भेदभाव न हो।
बहुत से पदों के वेतनमान कार्य की विशेषता और नियोक्ता की भौगोलिक स्थिति से रूढ होते हैं लेकिन तब भी सक्षम कम्पनियाँ अपनी पहल बनाये रखने के लिये अधिक वेतन व सुविधायें देकर बेहतर कर्मचारी पाने को लालायित रहती हैं। लेकिन कई बार ऐसा भी होता है कि पद और वेतन का कार्य निष्पादन से कोई खास संतुलन नहीं बन पाता। कितनी ही बार बड़ी कम्पनियाँ किसी बड़े सौदे की आशा में कर्मचारियों की फ़ौज खड़ी कर लेती हैं ताकि काम मिलने की स्थिति में उसे कुशलता से निबटाया जा सके। काम आया तो ठीक वर्ना ऐसे कर्मचारियों को स्थानांतरण या बर्खास्तगी का सामना भी करना पड़ता है।
रोज़गार के क्षेत्र में नित नई जानकारी का प्रयोग भी धड़ल्ले से हो रहा है। कर्मचारियों का मनोबल ऊँचा कैसे रहे? उनकी अभिप्रेरणा क्या हो? ऐसा क्या किया जाये कि काम से उन्हें उदासी नहीं, प्रसन्नता मिले। भारत में केनरा बैंक में नौकरी के समय से मुझे मनन-कक्ष (मेडिटेशन रूम) का विचार याद है। अमेरिका की अधिकांश कम्पनियाँ अपने कर्मचारियों को मूलभूत से अधिक सुविधायें देने का प्रयास करती हैं। फ़्लेक्सि-ऑवर्स यानि कर्मचारी की सुविधानुसार कार्य-समय का निर्धारण, स्वास्थ्य सुविधा, जीवन बीमा, आवागमन, पार्किंग स्थल आदि से कहीं आगे बढकर कर्मचारियों को उच्च या विशिष्ट शिक्षा की सुविधायें देना, घर से काम करने का सुरक्षित वातावरण प्रदान करना, दूसरे नगर, देश आदि से आने पर आने-जाने, सामान पहुँचाने से लेकर पुराना घर बेचने और नया घर लेने आदि जैसे कार्य भी कई बार नये नियोजक द्वारा निष्पादित किये जाते हैं। भारत से आये कर्मचारियों के लिये विधिक प्रायोजन और ग्रीन कार्ड आदि से सम्बन्धित खर्च करना भी एक आम बात है।
यदि कम्पनी किसी पद के लिये अनुभव के साथ-साथ प्रबन्धन की शिक्षा की आवश्यकता महसूस करती है तो उसके सामने कई विकल्प दिखते हैं। किसी अनुभवी कर्मचारी को शिक्षित करना या पहले से शिक्षित अनुभवी कर्मचारी को लेना। क्या किया जायेगा यह अनेक बातों पर निर्भर करता है, जैसे आवश्यकता की योजना कितने पहले बनाई जा चुकी है, अनुभवी एमबीए कितने सुलभ हैं और बाहर से उन्हें बुलाने में क्या-क्या अड़चनें हैं। कुल मिलाकर आज के बहुराष्ट्रीय संस्थानों का का मूलमंत्र है, सर्वश्रेष्ठ कर्मचारी पाना जो संख्या में भले ही कम हों मगर काम में किसी से भी कम न हों और इस काम के लिये धन कोई बाधा नहीं है।
प्रस्तुत आलेख गर्भनाल पत्रिका के नवंबर 2012 अंक में प्रकाशित हुआ था जिसकी प्रति यहां उपलब्ध है