Saturday, November 1, 2008

सब कुछ ढह गया - 2

तीन खंडों की यह कहानी अगले अंक में समाप्य है। पिछ्ला अंक पढने के लिए यहाँ क्लिक करें

कंडक्टर को पास आता देखकर उसने अंटी में से सारी रेजगारी निकाल ली। कई बार गिना। टिकट के पैसे बिल्कुल बराबर, यह भी अजब इत्तफाक था। उसके हाथ में जो सिक्के थे बस वही उसके घर का सम्पूर्ण धन था। पत्नी का अन्तिम गहना, उसकी पाजेब की जोड़ी बेचने के बाद जितने भी पैसे मिले थे उसमें से अब बस यही सिक्के बचे थे। कंडक्टर ने एक हाथ में टिकट थमाया और उसने दूसरे हाथ से सिक्के उसकी हथेली में रख दिए। कंडक्टर ने सिक्के देखे, विद्रूप से मुँह बनाया और सिक्के शीशा-टूटी खिड़की से बाहर फैंकते हुए बोला, "अब तो भिखारी भी टिकट खरीदने लगे हैं।"

अपनी संपत्ति की आख़िरी निशानी उन सिक्कों को इस बेकद्री से बस की खिड़की के बाहर कोहरे के सफ़ेद समुद्र में खोते हुए देखकर उसका सर भन्ना गया। दिल में आया कि इस कंडक्टर को भी उसी खिड़की से बाहर फेंककर अपने सिक्के वापस मंगवाए मगर मुँह से उतना ही निकला, "बाहर काहे फेंक दिए जी?"

"तुझे टिकट मिल गया न? अब चुपचाप बैठा रह, अपना स्टाप आने तक।" कंडक्टर गुर्राकर अगली सवारी को टिकट पकड़ाने चल दिया।

वह सोचने लगा कि कब तक वह अकारण ही जानवरों की तरह दुत्कारा जाता रहेगा। यह कंडक्टर तो कोई सेठ नहीं है और न ही पढा-लिखा बाबू है। यह तो शायद उसके जैसा ही है। अगर यह भी उसे इंसान नहीं समझ सकता तो फिर बड़े आदमियों से क्या उम्मीद की जा सकती है।

आखिरकार बस उसके ठिये तक पहुँच गयी। वह बस से उतरकर सेठ की गद्दी की तरफ़ चलने लगा। कोहरे की बूँदें उसके कुरते पर मोतियों की तरह चिपकने लगीं। पास में ही एक चाय के खोखे के आस पास कुछ लोग खड़े अखबार पढ़ रहे थे। उसे पता था कि अंटी खाली है। फिर भी उसका हाथ वहाँ चला गया। कुछ क्षणों के लिए उसके कदम भी ठिठके मगर सच्चाई से समझौता करना तो अब उसकी आदत सी ही हो गयी थी, सो गद्दी की तरफ़ चल पडा। मन ही मन मनाता जा रहा था कि कुछ न कुछ काम उसके लिए बच ही गया हो।

"लो आ गए अपने बाप की बरात में से!" सेठ का बेटा उसे देखकर साथ खड़े मुंशी से बोला। कल का लड़का, लेकिन कभी किसी मजदूर से सीधे मुँह बात नहीं करता है। फिर उसकी तरफ़ मुखातिब होकर बोला, "अबे ये आने का टाइम है क्या?"

"जी बाउजी, कोई काम है?" उसने सकुचाते हुए पूछा।

"किस्मत वाला है रे तू, हफ्ते भर का काम है तेरे लिए..." मुंशी ने आशा के विपरीत कहा, "ठेकेदार आता ही होगा बाहर, ट्रक में साथ में चला जइयो।"

ट्रक आने में ज़्यादा देर नहीं लगी। ठेकेदार ने अन्दर आकर सेठ के मुंशी के हाथ में कुछ रुपये पकडाए और मुंशी ने लगभग धकियाते हुए उसे आगे कर दिया।

"चल आजा फ़टाफ़ट" ठेकेदार ने ड्राइवर के बगल में बैठते हुए कहा।

वह ट्रक के पीछे जाकर ऊपर चढ़ गया। कुछ मजदूर वहाँ पहले से ही मौजूद थे। कुदाली वगैरह औजार भी एक कोने में पड़े थे। ट्रक खुला था और ठण्ड भी थी। सूरज चढ़ने लगा था मगर धूप भी उसकी तरह ही बेदम थी।

उसने साथ बैठे आदमी को जय राम जी की कही और पूछा, "कहाँ जा रहे हैं?"

"जाने बालीगंज की तरफ़ है जाने कहाँ!" साथी ने कुछ अटपटा सा जवाब दिया।

[क्रमशः]

Thursday, October 30, 2008

सब कुछ ढह गया - 1

रह-रहकर बाईं आँख फड़क रही थी। आँख को कई बार मला मगर कोई फायदा न हुआ। उसे याद आया कि माँ बाईं आँख फड़कने को कितना बुरा मानती थी। छोटा था तो वह भी इस बात पर यकीन करता था। अब जानता है कि अमीरों को किसी भी आँख के फड़कने से कोई नुक्सान नहीं होता और मुसीबत के मारों से तो भगवान् राम भी अप्रसन्न ही रहते हैं। उन पर फटने के लिए दुर्भाग्य का बादल भला किसी आँख के फड़कने का इंतज़ार क्यों करेगा। उसकी समझ में यह नहीं आ रहा था कि आज वह इतना उदास क्यों था। पहले भी कितनी बार ऐसा हुआ है जब बीमार बच्चे को घर छोड़कर काम पर निकला था। गरीब आदमी और कर भी क्या सकता है? मजदूरी नहीं करेगा तो क्या ख़ुद खायेगा और क्या घर में खिलायेगा? बाबूजी ठीक ही तो कहते थे कि गरीब का दिल तो बेबसी का ठिकाना होता है। बाबूजी कितने ज़हीन थे। अगर किसी खाते-पीते घर में पैदा होते तो शायद पढ़ लिख कर बहुत बड़े आदमी बनते। वह भी जींस टी-शर्ट पहनकर घूमता। स्कूल गया होता और शायद आज किसी आलीशान दफ्तर में बैठकर कोई अच्छी सी नौकरी कर रहा होता। ऊपर से यह सर्दी का मौसम। कडाके की ठंड है। हाथ को हाथ नहीं सूझता। गाँव में तो आंगन में पुआल जलाकर थोड़ी देर बदन गर्म करने को मिल जाता था। शहर में अव्वल तो पुआल कहाँ से आये, और अगर कहीं से जुगाड़ हो भी गया तो चार फ़ुट की कोठरी में खुद बैठें कि पुआल जलाएं। आने वाली रात नए साल की पहली रात है। पैसेवालों की क्या बात है। हर तरफ जश्न मनाने की तैय्यारी होती दिख रही है। बस में भी ठिठुरता रहा। एक ही तो सदरी थी, कितनी सर्दियां चलती। नामालूम, बस ही धीरे चल रही थी या फिर रास्ता आज कुछ ज़्यादा लंबा हो गया था. बस वक़्त गुज़रता जा रहा था लेकिन उसके काम का ठिया तो आने का नाम ही न ले रहा था। अपनी सीट पर सिकुड़ा सा बैठा रहा। सारे रास्ते खैर मनाता रहा कि आज देर होने के बावजूद भी कोई न कोई काम मिल जाए। अगर खाली हाथ वापस आना पडा तो बहुत मुश्किल होगी। आज तो मुन्ने की दवा के लिए भी घर में एक कानी कौडी नहीं बची है। [क्रमशः]

Wednesday, October 29, 2008

बेघर का वोट नहीं

एक पिछली पोस्ट में मैंने कार्तिक राजाराम की आत्महत्या का ज़िक्र किया था। बेरोजगारी आर्थिक मंदी का सिर्फ़ एक पहलू है। एक दूसरा पहलू है बेघर होना। और यह समस्या आम अंदाज़ से कहीं ज़्यादा व्यापक है।

कैलिफोर्निया की तिरपन वर्षीया वांडा डन (Wanda Dunn) भी ऐसी ही एक गृहस्वामिनी थीं। यह उनका पैतृक घर था जो उनके बेरोजगार होने, विकलांग होने और कुछ आर्थिक कारणों की वजह से उनके हाथ से निकल गया। सहृदय नए खरीददार ने उनकी भावनाओं की कद्र करते हुए उन्हें किराए पर रहने दिया। मगर, अफ़सोस यह गृह-ऋण की समस्या, नए मालिक को यह घर उसके ऋणदाता को वापस सुपुर्द करना पडा। वांडा डन यह बर्दाश्त न कर सकीं और उन्होंने अपने घर को आग लगा दी और अपने सर में गोली मार ली।

छिटपुट लोग इस तरह के कदम उठा चुके हैं मगर समस्या जैसी दिखती है उससे कहीं अधिक बड़ी है। २००८ के पहले आठ महीनों में ही क़र्ज़ के लिए बंधक रहे घरों में से लगभग बीस लाख घरों पर ऋणदाताओं का कब्ज़ा हो गया है। घर छोड़ने वालों में से अनेकों लोग घर का कोई स्थायी पता न होने के कारण वोट देने के लिए पंजीकृत नहीं हैं। वैसे भी जब ज़िंदगी ही एक समस्या हो जाए तो वोट देने जैसी बात के बारे में कौन सोच सकता है।

देखते हैं कि चुनाव आयोग या राष्ट्रपति पद के दोनों प्रत्याशी इस बारे में क्या करते हैं। आख़िर गरीब की भी कोई आवाज़ है। संत कबीर ने कहा है:
निर्बल को न सताइए जाकी मोटी हाय,
मरे जीव की स्वास सौं लौह भस्म हुई जाय।