(शब्द और चित्र: अनुराग शर्मा)
आदमी यह आम है बस इसलिये नाकाम है
कामना मिटती नहीं, कहने को निष्काम है।
ज़िंदगी है जब तलक उम्मीद भी कैसे मिटे
चार कंधों के लिये तो भारी तामझाम है।
काली घटा छाई हुई उस पे अंधेरा पाख है
रात ही बाकी है इसकी सुबह है न शाम है।
तारे हैं गर्दिश में और चाँद पे छाया गहन
धूप से चुंधियाते दीदों को मिला आराम है।
अश्व हो आरोही या, तृष्णा कभी जाती नहीं
घास भी मिलती नहीं पर चाहता बादाम है।
सात पीढ़ी को सँवारे दौड़ाभागी में जुटा
दो घड़ी का हो बसेरा, इतना इंतज़ाम है।
वीतरागी होने का, उपदेश डाकू दे रहे
बोलबाला झूठ का, सच अभी गुमनाम है।
बेईमानी का सफ़र, पूरा नहीं जिसका हुआ
वह डकैती का सभी पर थोपता इल्जाम है।
अपराध अपना हो भले पर दोष दूजे को ही दें
बच्चे बगल में छिप गये, नगर में कोहराम है।
हाशिये पर कर दिये निर्देश जिनसे लेना था
रहनुमा कारा गये जब पातकी हुक्काम है।
पाप पहले भी हुए अफ़सोस उनका लाज़मी
पर और भी होते रहेंगे, क्यों नहीं विश्राम है?
निस्सार है संसार इसमें अर्थ सारा व्यर्थ है
एक बेघर* ही यहाँ हर गाँव का खैयाम है।
प्रात से हर रात तक, भागना है बदहवास
ज़िंदगी के द्वीप की यह यात्रा अविराम है।
यात्रा लम्बी रही और फिर स्थानक आ गया
हो गये जो भस्मसात, उनको मिला आराम है।
* अनिकेत