मुद्रा खरी खरी
कहती है
खोटे सिक्के चलते हैं।
साँप फ़ुंकारे
ज़हर के थैले
क्यों उसमें पलते हैं।
रोज़ लड़ा पर
कहती है
खोटे सिक्के चलते हैं।
साँप फ़ुंकारे
ज़हर के थैले
क्यों उसमें पलते हैं।
रोज़ लड़ा पर
हारा सूरज
दिन आखिर ढलते हैं।
पाँव दुखी कि
बदन सहारे
उसके ही चलते हैं।
मैल हाथ का पैसा
सुनकर
हाथ सभी मलते हैं।
आग खफ़ा हो
जाती क्योंकि
उससे सब जलते हैं॥
वाह ! बहुत खूब..कितना ही मिल जाये, यहाँ सभी
ReplyDeleteशिकायत करते लगते हैं
खरी खरी
ReplyDeleteलय भरी!
सुन्दर ।
ReplyDeleteबहुत खूब ... आग खफा की उससे सब जलते हैं या ... उससे सब जल जाते हैं ...
ReplyDeleteसब विधि का विधान है. कौन खोज पाया है इन सवालों के जवाब! न जाने ऐसे कितने ही सवाल मैं भी पूछता हूँ परमात्मा से, लेकिन वो चुप मुस्कुरा भर देता है!
ReplyDeleteआपकी इन रचनाओं के अंदर समाहित भाव और शब्दों की जादूगरी प्रभावशाली है अनुराग भाई साहब!
very interesting anurag ji
ReplyDeleteवाह ...बहुत उम्दा
ReplyDeleteविचारणीय भाव
वाह ..जलते हैं का कितना सुन्दर प्रयोग है .
ReplyDeleteबहुत खूब
ReplyDeleteभला कोई क्या करे , सब अपने ढंग से चलते हैं.
ReplyDeleteशिकायत में ही असंतोष है, संतोष और शिकायत शायद कभी नहीं मिलते
ReplyDeleteया फिर संतोष हो तो शिकायत नहीं रहती ! बहुत सुन्दर रचना !
आपकी कुछ कविताएं वाकई दिल को बहुत भा जाती है
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर प्रस्तुति ... शानदार पोस्ट .... Nice article with awesome depiction!! :) :)
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