Sunday, August 21, 2016

शिकायत - कविता

मुद्रा खरी खरी
कहती है
खोटे सिक्के चलते हैं।

साँप फ़ुंकारे
ज़हर के थैले
क्यों उसमें पलते हैं।

रोज़ लड़ा पर 
हारा सूरज 
दिन आखिर ढलते हैं।

पाँव दुखी कि
बदन सहारे
उसके ही चलते हैं।

मैल हाथ का पैसा
सुनकर
हाथ सभी मलते हैं।

आग खफ़ा हो
जाती क्योंकि
उससे सब जलते हैं॥

(अनुराग शर्मा)

13 comments:

  1. वाह ! बहुत खूब..कितना ही मिल जाये, यहाँ सभी
    शिकायत करते लगते हैं

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  2. बहुत खूब ... आग खफा की उससे सब जलते हैं या ... उससे सब जल जाते हैं ...

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  3. सब विधि का विधान है. कौन खोज पाया है इन सवालों के जवाब! न जाने ऐसे कितने ही सवाल मैं भी पूछता हूँ परमात्मा से, लेकिन वो चुप मुस्कुरा भर देता है!
    आपकी इन रचनाओं के अंदर समाहित भाव और शब्दों की जादूगरी प्रभावशाली है अनुराग भाई साहब!

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  4. वाह ...बहुत उम्दा
    विचारणीय भाव

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  5. वाह ..जलते हैं का कितना सुन्दर प्रयोग है .

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  6. भला कोई क्या करे , सब अपने ढंग से चलते हैं.

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  7. शिकायत में ही असंतोष है, संतोष और शिकायत शायद कभी नहीं मिलते
    या फिर संतोष हो तो शिकायत नहीं रहती ! बहुत सुन्दर रचना !

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  8. आपकी कुछ कविताएं वाकई दिल को बहुत भा जाती है

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  9. बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति ... शानदार पोस्ट .... Nice article with awesome depiction!! :) :)

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