मरेंगे हम किताबों में, वरक होंगे कफ़न अपना
किसी ने न हमें जाना, न पहचाना सुख़न अपना
बनाया गुट कोई अपना, न कोई वाद अपनाया
आज़ादी सोच में रखी, यहीं हारा है फ़न अपना
कभी बांधा नहीं खुद को, पराये अपने घेरों में
मुहब्बत है ज़ुबाँ अपनी, जहाँ सारा वतन अपना
नहीं घुड़दौड़ से मतलब, हुए नीलाम भी न हम
जो हम होते उन्हीं जैसे, वही होता पतन अपना
भले न नाम लें मेरा, मेरा लिखा वे जब बोलें
किसी के काम में आये, यही सोचेगा मन अपना
भीगें प्रेम से तन-मन, न जीवन हो कोई सूखा
न कोई प्रेम का भूखा, नहीं टूटे स्वपन अपना
मीठे गीत सब गायें, लबों पर किस्से हों अपने
चले जाने के बरसों बाद, हो पूरा जतन अपना॥
लाजवाब
ReplyDeleteबनाया गुट कोई अपना, न कोई वाद अपनाया
आज़ादी सोच में रखी, यहीं हारा है फ़न अपना
हर किताब यानि जीवन के हर पहलू में लागू ।
हर शेर लाजबाब
ReplyDeleteबेहतरीन ग़ज़ल।
ReplyDeleteबहुत खूब ! नेक सोच पक्का इरादा !
ReplyDeleteबहुत बढ़िया
ReplyDeleteलाजवाब आदरणीय। बहुत बहुत ही सुन्दर
ReplyDeleteवाह !
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