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Saturday, November 21, 2015

आतंकियों का मजहब

सवाल पुराना है। पहले भी पूछा जाता था लेकिन आज का विश्व जिस तरह सिकुड़ गया है, पुराना प्रश्न अधिक सामयिक हो गया है। आतंकवाद जिस प्रकार संसार को अपने दानवी अत्याचार के शिकंजे में कसने लगा है, लोग न चाहते हुए भी बार-बार पूछते हैं कि अधिकांश नृशंस आतंकवादी किसी विशेष मजहब या राजनीतिक विचारधारा से ही सम्बद्ध क्यों हैं?

इस प्रश्न का उद्देश्य किसी मज़हब को निशाने पर लाना नहीं है बल्कि एक निर्दोष उत्सुकता और सहज मानवाधिकार चिंता है। कोई कहता है कि किसी व्यक्ति के पापकर्म के लिए किसी भी समुदाय को दोषी ठहराना जायज़ नहीं है जबकि कोई कहता है कि यदि ऐसा होता तो फिर आतंकवादियों की पृष्ठभूमि में भी वैसी ही विभिन्नता दिखती जैसी विश्व में है। लेकिन हमारा अवलोकन ऐसा नहीं कहता। अधिकांश आतंकवादी कुछ सीमित मजहबी और राजनीतिक विचारधाराओं से जुड़े हुये हैं।

किसी व्यक्ति के मन में नृशंसता का क्रूर विचार चाहे उसके अपने चिंतन से आया हो चाहे उसे बाहर से पढ़ाया-सिखाया गया हो, उसे अपनाने का दोष सबसे पहले उसका अपना ही हुआ। हत्यारा किसी भी धर्म का हो उसका पाप उसका ही है। लेकिन अगर संसार भर के आतंकवादियों की प्रोफाइल देखने पर निष्कर्ष किसी मजहब या विचारधारा विशेष के विरुद्ध जाता है और एक आम धारणा यही बनती है कि उस पंथ या समुदाय की नीतियों और शिक्षा में कहीं भारी कमी हो सकती है तो हमें गहराई तक जाकर यह ज़रूर देखना पडेगा की ऐसा क्यों हो रहा है।

पंजाब के आतंकवाद के आगे जब सुपरकॉप कहे जाने वाले रिबेरो जैसे मशहूर अधिकारी बुरी तरह असफल हो गए तो खालसा के नाम पर फैलाये जा रहे उस आतंकवाद को एक सिख के. पी. एस. गिल और उसकी सिख टीम ने ही कब्जे में लिया। जितने सिख आतंकवाद के साथ थे उससे कहीं अधिक उसके ख़िलाफ़ न सिर्फ़ लड़े बल्कि शहीद हुए। इसी तरह मिजोरम, नागालैंड, उत्तरी असम, या झारखंड, छत्तीसगढ़ आदि के ईसाई आतंकवादियों की बात करें तो भी कभी भी किसी भी चर्च या मिशनरी ने निर्दोषों की हत्याओं का समर्थन नहीं किया।

"एकम् सत विप्र: बहुधा वदंति" के पालक हिन्दुओं की तो बात ही निराली है। अहिंसा और विश्वबंधुत्व, हिन्दुत्व के मूल में है। मानव के आपसी प्रेम की बात आज के सभ्य समाज में अब आम है लेकिन भारतीय परंपरा में मानव के आपसी प्रेम के आत्मानुशासन से कहीं आगे जीवमात्र के प्रति भूतदया की अवधारणा है। भूतदया और अहिंसा की यह हज़ारों साल पुरानी अवधारणा भारतीय धार्मिक और आध्यात्मिक विचारधाराओं के मूलभूत सिद्धांतों में से एक है। हिन्दुत्व के "सर्वे भवन्तु सुखिन:" जैसे निर्मल सिद्धांतों के पालकों के लिए, असहिष्णुता और मजहबी आक्रोश की बात करने वाले लोग, धर्म के ऐसे दुश्मन हैं जो कभी भी प्रमुख धार्मिक नेताओं का समर्थन नहीं पा सकते।

दुर्भाग्य से इस मामले में इस्लाम की स्थिति थोड़ी अलग है। आतंकवादी घटनायें दुनिया में कहीं भी हों, जांच से पहले ही लोगों का शक इस्लाम के अनुयायियों पर जाता है। कम्युनिस्ट, हिन्दू या ईसाई बहुल देश ही नहीं, आतंकी घटना जब किसी इस्लामिक राष्ट्र में हो तो भी शक किसी न किसी इस्लामी समुदाय की संलिप्तता पर ही जाता है। शर्म की बात है कि ऐसे शक शायद ही कभी गलत साबित होते हों।

लोगों की धारणाएं बनती हैं जुम्मे की नमाज़ के बाद के बाद आने वाले भड़काऊ बयानों से जिन्हें दुनिया भर की मस्जिदों में इस्लाम के नाम पर परोसा जाता है। ये बनती हैं ओसामा बिन लादेन, सद्दाम हुसैन, मुअम्मर गद्दाफी, जिया उल हक़ और जनरल मुशर्रफ़ जैसे निर्दयी तानाशाहों को हीरो बनाने से। मुसलमानों के असहिष्णु होने का संदेश जाता है जब तसलीमा नसरीन और सलमान रश्दी की जान भारत में खतरे में पड़ती है और उनको इस "अतिथि देवो भवः" देश से बाहर जिंदगी गुजारनी पड़ती है। इस्लाम की ग़लत छवि बनती है जब गांधी की अहिंसा की धारणा को इस्लाम-विरोधी करार दिया जाता है और हिन्दू बहुल धर्म-निरपेक्ष और सहिष्णु राष्ट्र को नकारकर पाकिस्तान को मुसलमानों की जन्नत के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। देश को काटकर पाकिस्तान बनाने के लिए जिन हिंदुओं के गाँव के गाँव काट दिये गए थे, उनके बच्चे असहिष्णुता का असली अर्थ समझते हैं। कश्मीर से लेकर कुनमिंग, न्यूयॉर्क, पेरिस, जेरूसलम, बमाको, मयादुगुरी, मुंबई, संसार भर में कहीं भी, निर्दोषों के हत्यारे अपने कुकृत्यों को इस्लाम पर आधारित धर्मयुद्ध ही बताते हैं।  

तैमूर लंग की तकनीकी क्षमता के अभाव के कारण मामूली क्षति मात्र झेलने वाले बमियान के बुद्ध को नष्ट करने के धार्मिक एजेंडा का काम जब तालेबान पूरा करती है तब राम जन्मभूमि को बाबरी मस्जिद कहने वालों की नीयत पर शक स्वाभाविक लगता है। और इसके नाम पर इस्लाम को खतरे में बताकर देश के विभिन्न क्षेत्रों में आतंक फैलाने की कार्यवाही करनेवालों की मजहबी प्रतिबद्धता छिपने का कोई बहाना नहीं बचता।  

मुझे ग़लत न समझें लेकिन जब बकरा ईद आने से हफ्तों पहले जानबूझकर ऐसा दुष्प्रचार किया जाता है कि पशुबलि हिंदू धर्म की अनिवार्यता है तो उसका अच्छा प्रभाव नहीं पड़ता। जब खास होली के दिन कुछ लोग जानबूझकर बुर्राक सफ़ेद कपड़े पहन कर तमंचे लेकर रंग डालने वाले बच्चों को "ये हिंदू पागल हो गए हैं" कहते हुए धमकाते हैं तब पूरा समुदाय बदनाम होता है और तब भी जब दीवाली के दिन पर्यावरण की और गंगा दशहरा के दिन जल-प्रदूषण की बढ़-चढ़कर चिंता की जाती है। जब अबू कासिम और याक़ूब मेमन जैसे आतंकियों के जनाज़े में मजहब के नाम पर लाखों की भीड़ जुटती है तो वह कुछ और ही कहानी कहती है। जब कश्मीर में AK-47 चला रहे आतंकवादियों को आड़ देने के लिए बुर्काधारी महिलायें ढाल बनकर चल रही होती हैं या जब लाखों पंडितों के पुश्तैनी घरों के दरवाज़े पर एक तारीख चस्पा करके कहा जाता है कि - धर, इस दिन के बाद यहाँ रहे तो ज़िंदा नहीं रहोगे और एक प्राचीन राज्य के मूल निवासी समुदाय को अपने ही देश में शरणार्थी बनकर भटकना पड़ता है - तब इस्लाम बदनाम होता है। अफ़सोस कि इस्लाम के अनुयाइयों की ओर से  ऐसे गंदे काम करने वाले हैवानों का स्पष्ट विरोध किये जाने के बजाय उनके कृत्यों को हर बार अमरीकी-यहूदी (और अब तो हिन्दू भी) साजिश बताया जाता है। आतंक के ख़िलाफ़ मुसलमानों द्वारा दबी ढकी ज़ुबाँ में कुछ सुगबुगाहट, कवितायें आदि तो मिलती हैं मगर करारा और स्पष्ट विरोध कतई नहीं दिखता है। बल्कि ऐसे हर कुकृत्य के बाद जब लश्कर-ए-तोएबा से लेकर अल कायदा और हिज़्बुल-मुजाहिदीन होते हुए बोको हराम तक सभी इस्लामिक आतंकी संगठनों के कुकर्मों का दोष अमेरिका और इसराएल पर डालने का प्रोपेगेंडा किया जाता है तब आतंक का इस्लाम से संबंध कमजोर नहीं होता बल्कि उसकी कड़ियाँ स्पष्ट होने लगती हैं।

आतंकवाद और धर्म की बात चलने पर एक और पक्ष अक्सर छिपा रह जाता है। जिस प्रकार किसी देश, धर्म, जाति या संप्रदाय मेँ सब लोग अच्छे नहीँ होते उसी प्रकार सब देश, धर्म, जाति, संविधान, विचारधारायें, या संप्रदाय अच्छे और सहिष्णु हों ही यह ज़रूरी नहीं। एक खराब इंसान का इलाज अच्छे संविधान, प्रशासन, कानून या अन्य वैकल्पिक सामाजिक तंत्र से किया जा सकता है। लेकिन यदि कोई तंत्र ही आधा-अधूरा असहिष्णु या असंतुलित हो तो स्थिति बड़ी खतरनाक हो जाती है। क्योंकि उस तंत्र के अंतर्गत पाये गए उदार और बुद्धिमान लोग विद्रोही मानकर उड़ा दिये जाते हैं और कट्टर, कायर, हिंसक, अल्पबुद्धि, असहिष्णु रोबोट उसके योगक्षेम और प्रसार-प्रचार का साधन बनते हैं। जब लोग एक बुरे देश, धर्म, जाति या संप्रदाय की बात करते हैं तो उनका संकेत अक्सर इस नियंत्रणवादी असंतुलन की ओर ही होता है जो अपने से अलग दिखने वाली हर संस्कृति के प्रति असहिष्णु होता है और उसे नष्ट करना अपना उद्देश्य समझता है।

ऐसी स्थिति में जमिअत-उल-उलमा-ए-हिंद, मुंबई के मौलाना मंज़र हसन खाँ अशरफी मिसबही, केरल के नदवातउल मुजाहिदीन आदि की पहल पर भारत में जारी ताज़े फतवे एक स्वागतयोग्य पहल हैं। भारत में पहले भी इस प्रकार के फतवे सामने आए हैं लेकिन इससे आगे बढ़कर आतंकवाद के मसले पर संसारभर को  एकमत होकर दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखाने की आवश्यकता है।
संबन्धित कड़ियाँ
* माओवादी नक्सली हिंसा हिंसा न भवति
* मुम्बई - आतंक के बाद

Monday, December 10, 2012

बेशक मंदिर मस्जिद तोड़ो

अनुराग शर्मा

पाकिस्तान में अल्पसंख्यक वर्ग के लोगों, विशेषकर सिख और हिंदुओं के प्रति हिंसा और अत्याचार के मामले नए नहीं हैं। लेकिन इस साल तो जैसे इन मामलों की संख्या में बाढ़ सी आ गई है। कराची के हिंदुओं द्वारा अदालत से स्थगनादेश ले आने के बावजूद वहाँ के सोल्जर बाज़ार स्थित एक सौ वर्ष से अधिक पुराना राम पीर मंदिर और उसके परिसर में रहने वाले हिंदुओं के घर एक बिल्डर द्वारा दिन दहाड़े भारी पुलिस की उपस्थिति में गिरा दिये गये है जिसे लेकर वहां का हिंदू समुदाय दुखी है। स्थानीय हिंदुओं ने सरकार से कहा है कि यदि वह उनकी, उनके घरों तथा धार्मिक स्थलों की हिफाजत नहीं कर सकती है, तो वह उन्हें सुरक्षित भारत भिजवाने की व्यवस्था करे। अपने गैर-मुस्लिम नागरिकों के दमन के लिए बदनाम पाकिस्तान के इस कृत्य से वहां अल्पसंख्यकों के अधिकारों पर एक बार फिर प्रश्न चिह्न लगा है। मंदिर परिसर में रहने वाले लगभग 40 हिन्दू बेघर हो गए हैं और सर्दी की रातें अपने बच्चों के साथ खुले में आसमान के नीचे बिताने को मजबूर हैं। उनका आरोप है कि पुलिस मंदिर में रखी अनेक मूर्तियां तथा उन पर चढ़ाए गए सोने के आभूषण भी उठाकर ले गई।

अपने अस्तित्व में आने के साथ ही पाकिस्तान में मंदिर नष्ट करने के सुनियोजित प्रयास चलते रहे हैं। कराची में ही पिछले दिनों इवेकुई बोर्ड ने एक मंदिर को एक ऑटो वर्कशॉप चलाने के लिए लीज पर दे दिया था। पाकिस्तान हिंदू कांउसिल (PHC) ने इस बारे में पाकिस्तान के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को पत्र भी लिखे थे और कोई कार्यवाही न होने पर मन मसोस कर रह गए थे।

कराची के बाहरी इलाके में स्थित श्री कृष्ण राम मंदिर पर इस एक साल में ही दो बार हमला हुआ है। चेहरा छिपाने की कोई ज़रूरत न समझते हुए इन हमलावरों ने नकाब भी नहीं पहन रखा था। उन्होंने हवा में पिस्तौल लहराई, हिन्दुओं के खिलाफ नारे लगाए और प्रतिमाओं से छेड़छाड़ की। मंदिर में उपस्थित किशोर ने बताया कि पाकिस्तानी मुसलमान उन्हें अपने समान नागरिक नहीं समझते हैं और जब चाहे उन्हें मारते-पीटते हैं और मंदिरों पर हमले करते रहते हैं।

वैसे तो मंदिरों पर हमला करने के लिए पाकिस्तान में किसी बहाने की ज़रूरत नहीं पड़ती, लेकिन जब बहाना मिल जाये तो ऐसी घटनाएँ और भी आसानी से घटती हैं। शरारती तत्वों द्वारा यूट्यूब पर डाली गयी बेहूदा वीडियो क्लिप 'इंनोसेंस ऑफ मुस्लिम्स' के खिलाफ 21 सितंबर को पाकिस्तान भर में हुए विरोध प्रदर्शन ने पाकिस्तान के कई बड़े शहरों में हिंसक रूप ले लिया था जिनमें 19 अल्पसंख्यक मारे गए थे और जमकर तोड़फोड़ हुई थी। उसी दिन कराची के गुशलन-ए-मामार मुहल्ले के 25-30 हिन्दू परिवारों के एक मंदिर में रखी देवी-देवताओं की मूर्तियों को हबीउर्रहमान नाम के एक मौलवी के नेतृत्व में आयी एक भीड़ ने क्षतिग्रस्त किया। डर के कारण हिंदू परिवार इस मामले की रिपोर्ट तक दर्ज नहीं कराना चाहते थे।

छोटे शहरों या कम प्रसिद्ध मंदिरों की तो कोई खबर पाकिस्तान से बाहर पहुँचती ही नहीं है। इस साल के आरंभ में पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत में स्थित प्रसिद्ध हिंगलाज माता मंदिर की सालाना तीर्थयात्रा शुरू होने से महज दो दिन पहले वहाँ की प्रबंध समिति के अध्यक्ष महाराज गंगा राम मोतियानी का पुलिस की वर्दी में आए लोगों ने अपहरण कर लिया था।

अल्लाहो-अकबर के नारे लगाती एक भीड़ ने मई 2012 में पेशावर में गोर गाथरी इलाके के एक पुरातात्विक परिसर के बीच में स्थित 200 साल पुराने गोरखनाथ मंदिर को क्षतिग्रस्त कर दिया था। हमलावरों ने मंदिर में रखे धर्म ग्रन्थों और चित्रों में आग लगाई, शिवलिंग को खंडित कर दिया और मूर्तियां अपने साथ ले गये। मंदिर के संरक्षक ने बताया कि दो महीने में मंदिर पर यह तीसरा हमला था।

सिंध प्रांत के उमरकोट स्थित 3 एकड़ में फैले आखारो मंदिर की चारदीवारी के पास करीब 50 दुकानें हैं। फरवरी 2012 में वहाँ के एक व्यापारी जुल्फिकार पंजाबी और उसके भाई हाफिज पंजाबी ने अपनी किराए की दुकान बढ़ाने के लिए बिना मंदिर प्रशासन की इजाजत लिए निर्माण कार्य शुरू कर दिया और मंदिर समिति की आपत्ति पर गोलीबारी कर दी जिसमें दो हिन्दू बुरी तरह घायल हो गए थे।

मंदिर ही नहीं हिन्दुओं की शमशान भूमि पर भी पाकिस्तान के भू-माफियाओं की नज़र है। मुसलमानों की शह और सरकार की फिरकापरस्ती के चलते न जाने कितने हिंदुओं को मरने के बाद अग्नि संस्कार भी नसीब नहीं हो पाता है। पाकिस्तान से भागकर आए शरणार्थी अपने साथ न जाने कितनी दर्दनाक कहानियाँ लाये हैं। बीस वर्षीय रुखसाना ने कहा कि पाकिस्तान में कट्टरपंथियों के चलते हिन्दुओं को अपनी पहचान छिपानी पड़ती है और बहुत से लोग इसके लिए वहां मुसलमानों जैसे नाम रख लेते हैं। कभी पाकिस्तान के बलूचिस्तान में एक मंदिर के पुजारी रहे रामश्रवण ने कहा कि उनके यहां तालिबान जैसे धर्मांध संगठनों के डर का आलम यह था कि वह मंदिर जाते समय या घर लौटते समय मुसलमानी टोपी लगाकर चलते थे। 13 वर्षीय लक्ष्मी ने कहा कि उसे भारत में पहली बार एक स्कूल में दाखिला मिला है, जबकि पाकिस्तान में वह कभी स्कूल का मुँह नहीं देख सकी थी। वहां हिन्दू-सिख घरों में घुस कर धर्म परिवर्तन को लेकर मार-पीट करते हुए महिलाओं से बदसलूकी करना सामान्य है। सिन्धी समिति के समक्ष एक व्यक्ति ने बताया कि उन्हें बार-बार अपमानित किया जाता है और जबरदस्ती मांस खिलाया जाता है। 45 वर्षीय शांति देवी ने कहा कि वह कभी पाकिस्तान नहीं लौटेंगी और भारत में ही मरना पसंद करेंगी क्योंकि पाकिस्तान में हिन्दुओं को हिन्दू रीति रिवाज से अंतिम संस्कार तक नहीं करने दिया जाता है। डेरा इस्माइल खान में 1947 से अब तक एक मात्र हिंदू पंडित खडगे लाल के शव को ही हिंदू रीतिरिवाजों के तहत अंतिम संस्कार करने की अनुमति दी गई है। डेरा इस्माइल खान में पहले मेडियन कॉलोनी और टाउन हॉल में एक-एक श्मशान घाट था जिनकी नीलामी हो चुकी हैं।

मंदिरों पर हमलों के अलावा पाकिस्तान में हिंदुओं को लगातार ही महिलाओं के अपहरण और जबरन धर्मांतरण का सामना करना पड़ता है। मुसलमानों के निगरानी गुट अल्पसंख्यक हिंदुओं पर दबाव बनाते रहते हैं। सिंध प्रांत में मीरपुर माथेलो से गायब हुई 17 वर्षीय हिंदू लड़की रिंकल कुमारी बाद में एक स्थानीय दरगाह के एक प्रभावशाली मुस्लिम मिट्ठू मियां के परिवार की देख-रेख में मिली थी और उसका धर्म परिवर्तन कराकर एक स्थानीय मुसलमान युवक से उसकी शादी करा दी गई थी। एक तरफ खुशी मनाने और शक्ति प्रदर्शन के लिए दरगाह के हथियारबंद ज़ायरीन हवा में गोलियां चला रहे थे वहीं दूसरी तरफ सामाजिक कार्यकर्ता मिट्ठू मियां पर हिन्दू लड़कियों के संगठित अपहरण और विक्रय के आरोप लगा रहे थे।

26 मार्च 2012 को रिंकल कुमारी ने पाकिस्तान के मुख्य न्यायाधीश इफित्खार मुहम्मद चौधरी को बताया कि नवीद शाह ने उसका अपहरण किया था और अब उसे अपनी माँ के घर जाने दिया जाए। रिंकल के इस साहस के बदले में उसके दादा को गोली मार दी गई और अगली पेशी में उसकी अनुपस्थिति में अदालत को उसका एक वीडियो दिखाया गया जिसके आधार पर उसके अपहरण और धर्मपरिवर्तन को स्वेच्छा बताकर अपहरण, बलात्कार और जबरिया धर्म परिवर्तन के आरोप निरस्त कर दिये गए।

अमेरिकी विदेश विभाग की ताज़ा रिपोर्ट में गहरी चिंता जताते हुए कहा गया है कि पाकिस्तान में हिंदुओं को अपहरण और जबरन धर्म-परिवर्तन का डर लगा रहता है। पाकिस्तान मानवाधिकार परिषद के अनुसार वहाँ हर महीने 20-25 हिंदू लड़कियां अपहृत कर ली जाती हैं और उन्हें जबरन इस्लाम स्वीकार करने के लिए कहा जाता है। हिन्दू होने भर से किसी को ईशनिन्दा कानून में फंसाकर मृत्युदंड दिलाना या दिन दहाड़े मारना आसान हो जाता है। नवंबर 2011 में चार हिंदू डॉक्टरों की सिंध प्रांत के शिकारपुर जिले में सरेआम गोली मारकर हत्या कर दी गई थी।

असहिष्णुता के इस जंगल में जहां तहां एकाध आशा की किरण भी नज़र आ जाती है। मारवी सिरमेद जैसी समाज सेविका जहां अल्पसंख्यकों पर हो रहे अपराधों के विरुद्ध मीडिया और अदालत में अडिग खड़ी दिखती हैं वहीं वकील जावेद इकबाल जाफरी पाकिस्तान सरकार को अल्पसंख्यक समुदाय के अधिकारों एवं संपत्ति की रक्षा करने के संवैधानिक कर्तव्य की याद दिलाते हुए पाकिस्तान के मंदिरों को अवैध कब्जों से मुक्त कराने और उनके पुनर्निर्माण की मांग करते हैं। पाकिस्तानी अखबार डॉन ने अपने संपादकीय में सरकार से मांग की है कि राम पीर मंदिर गिराने के लिए हिंदू समुदाय से माफी मांगने की जरूरत है।

[आभार: चित्र व सूचनाएँ विभिन्न समाचार स्रोतों से]