मेरे पास आओ, मेरे दोस्तों - बहुवचन सम्बोधन में अनुस्वार का प्रयोग व्याकरणसम्मत है
हिन्दी बहुवचन सम्बोधन और अनुस्वार
अनुस्वार सम्बोधन, राजभाषा विभाग के एक प्रकाशन से |
सुनने में आया कि आकाशवाणी के कुछ केन्द्रों पर नए आने वाले उद्घोषकों को ऐसा बताया जाता है कि किसी शब्द के बहुवचन में अनुस्वार होने के बावजूद उसी शब्द के संबोधन में बहुवचन में अनुस्वार का प्रयोग नहीं होता है। इन्टरनेट पर ढूंढने पर कई जगह इस नियम का आग्रह पढ़ने को मिला। इस आग्रह के अनुसार "ऐ मेरे वतन के लोगों" तथा "यारों, सब दुआ करो" जैसे प्रयोग तो गलत हुए ही "बहनों और भाइयों" या "देवियों, सज्जनों" आदि जैसे आम सम्बोधन भी गलत कहे जाते हैं।
बरसों से न, न करते हुए भी पिछले दिनों अंततः मुझे भी इसी विषय पर एक चर्चा में भाग लेना पड़ा तो हिन्दी व्याकरण के बारे में बहुत सी नई बातें सामने आईं। आज वही सब अवलोकन आपके सामने प्रस्तुत हैं। मेरा पक्ष स्पष्ट है, मैं अनुस्वार हटाने के आग्रह को अनुपयोगी और अनर्थकारी समझता हूँ। आपके पक्ष का निर्णय आपके विवेक पर छोडता हूँ।
1) 19 वीं शताब्दी की हिन्दी और हिन्दुस्तानी व्याकरण की कुछ पुस्तकों में बहुवचन सम्बोधन के अनुस्वाररहित होने की बात कही गई है। मतलब यह कि किसी को सम्बोधित करते समय लोगों की जगह लोगो, माँओं की जगह माँओ, कूपों की जगह कूपो, देवों की जगह देवो के प्रयोग का आग्रह है।2) कुछ आधुनिक पुस्तकों और पत्रों में भी यह आग्रह (या नियम) इसके उद्गम, कारण, प्रचलन या परंपरा की पड़ताल किए बिना यथावत दोहरा दिया गया है।
ऐ मेरे वतन के लोगो (logo) |
3) हिन्दी व्याकरण की अधिसंख्य पुस्तकों में ऐसे किसी नियम का ज़िक्र नहीं है अर्थात बहुवचन के सामान्य स्वरूप (अनुस्वार सहित) का प्रयोग स्वीकार्य है।
4) जिन पुस्तकों में इस नियम का आग्रह है, वे भी इसके उद्गम, कारण और लाभ के बारे में मूक है।
5) भारत सरकार के राजभाषा विभाग सहित अधिकांश प्रकाशन ऐसे किसी नियम या आग्रह का ज़िक्र नहीं करते हैं।
6) हिन्दी उर्दू के गीतों को आदर्श इसलिए नहीं माना जा सकता क्योंकि उनमें गलत उच्चारण सुनाई देने की घटनाएँ किसी सामान्य श्रोता के अनुमान से कहीं अधिक हैं। एक ही गीत में एक ही शब्द दो बार गाये जाने पर अलग-अलग सुनाई देता है। सम्बोधन ही नहीं बल्कि हमें, तुम्हें, उन्होंने आदि जैसे सामान्य शब्दों से भी अक्सर अनुस्वार गायब लगते हैं।
7) ध्यान से सुनने पर कुछ अहिंदीभाषी गायक तो अनुस्वार को नियमित रूप से अनदेखा करते पाये गए हैं। यद्यपि कुछ गीतों में में ये माइक्रोफोन द्वारा छूटा या संगीत द्वारा छिपा हुआ भी हो सकता है। पंकज उधास और येसूदास जैसे प्रसिद्ध गायक भी लगभग हर गीत में मैं की जगह मै या मय कहते हैं।
आकाशवाणी के कार्यक्रम "आओ बच्चों" की आधिकारिक वर्तनी |
8) मुहम्मद रफी और मुकेश बहुवचन सम्बोधन में कहीं भी अनुस्वार का प्रयोग करते नहीं सुनाई देते हैं। अन्य गायकों पर असहमतियाँ हैं। मसलन, किशोर "कुछ ना पूछो यारों, दिल का हाल बुरा होता है" गाते हैं तो दोनों बार अनुस्वार एकदम स्पष्ट है। अमिताभ बच्चन भी आम हिंदीभाषियों की तरह बहुवचन सम्बोधन में भी सदा अनुस्वार का प्रयोग करते पाये गए हैं।
9) ऐ मेरे वतन के लोगों गीत की इन्टरनेट उपस्थिति में बहुवचन सम्बोधन शब्द लोगों लगभग 16,000 स्थानों में अनुस्वार के साथ और लगभग 4,000 स्थानों में अनुस्वार के बिना है। सभी प्रतिष्ठित समाचारपत्रों सहित भारत सरकार द्वारा जारी डाक टिकट में भी "ऐ मेरे वतन के लोगों" ही छपा है। लता मंगेशकर के गायन में भी अनुस्वार सुनाई देता है।
11) rekhta.org और बीबीसी उर्दू जैसी उर्दू साइटों पर सम्बोधन को अनुस्वार रहित रखने के उदाहरण मिलते हैं।
अनुस्वार हटाने से बने अवांछित परिणामों के कुछ उदाहरण - देखिये अर्थ का अनर्थ:10) कवि प्रदीप के प्रसिद्ध गीत "इस देश को रखना मेरे बच्चों सम्हाल के" गीत के अनुस्वार सहित उदाहरण कवि प्रदीप फाउंडेशन के शिलापट्ट तथा अनेक प्रतिष्ठित समाचार पत्रों पर हैं जबकि अधिकांश अनुस्वाररहित उदाहरण फेसबुक, यूट्यूब या अन्य व्यक्तिगत और अप्रामाणिक पृष्ठों पर हैं।
उपरोक्त उदाहरणों में 1, 2 व 3 में लोटे, भेड़ और बस को बहुवचन में सम्बोधित करते समय यदि आप अनुस्वार हटा देंगे तो आपके आशय में अवांछित ही आ गए विरोधाभास के कारण वाक्य निरर्थक हो जाएँगे। साथ ही लोटों, भेड़ों और बसों के संदर्भ भी अस्पष्ट (या गायब) हो जाएँगे। इसी प्रकार चौथे उदाहरण में भी अनुस्वार लगाने या हटाने से वाक्य का अर्थ बदल जा रहा है। मैंने आपके सामने चार शब्दों के उदाहरण रखे हैं। ध्यान देने पर ऐसे अनेक शब्द मिल सकते हैं जहाँ अनुस्वार हटाना अर्थ का अनर्थ कर सकता है।
- लोटों, यहाँ मत लोटो (सही) तथा लोटो, यहाँ मत लोटो (भ्रामक - लोटो या मत लोटो? लोटा पात्र की जगह भूमि पर लोटने या न लोटने की दुविधा)
- भेड़ों, कपाट मत भेड़ो (सही) तथा भेड़ो, कपाट मत भेड़ो (भ्रामक - भेड़ों का कोई ज़िक्र ही नहीं?)
- बसों, यहाँ मत बसो (सही) तथा बसो, यहाँ मत बसो (भ्रामक - बस वाहन का ज़िक्र ही नहीं बचा, बसो या न बसो की गफ़लत अवश्य आ गई?)
- ऐ मेरे वतन के लोगों (देशवासी) तथा ऐ मेरे वतन के लोगो (देश का प्रतीकचिन्ह, अशोक की लाट)
ऐ मेरे वतन के लोगों - टिकट पर अनुस्वार है |
12) इस विषय पर छिटपुट चर्चायें हुई हैं। इस नियम (या आग्रह) के पक्षधर, बहुसंख्यक जनता द्वारा इसके पालन न करने को प्रचलित भूल (ग़लतुल-आम) बताते हैं।
13) अर्थ का अनर्थ होने के अलावा इस पूर्णतः अनुपयोगी आग्रह/नियम के औचित्य पर कई सवाल उठते हैं, यथा, "ऐ दिले नादाँ ..." और "दिले नादाँ तुझे हुआ क्या है" जैसी रचनाओं में एकवचन में भी अनुस्वार हटाया नहीं जाता तो फिर जिस बहुवचन में अनुस्वार सदा होता है उससे हटाने का आग्रह क्योंकर हो?
14) अनुस्वार हटाकर बहुवचन का एक नया रूप बनाने के आग्रह को मैं हिन्दी के अथाह सागर का एक क्षेत्रीय रूपांतर मानता हूँ और अन्य अनेक स्थानीय व क्षेत्रीय रूपांतरों की तरह इसके आधार पर अन्य/भिन्न प्रचलित परम्पराओं को गलत ठहराए जाने का विरोधी हूँ। हिंदी मातृभाषियों का बहुमत बहुवचन में सदा अनुस्वार का प्रयोग स्वाभाविक रूप से करता रहा है।
15) भारोपीय मूल की अन्य भाषाओं में भी ऐसा कोई आग्रह नहीं है। उदाहरण के लिए अङ्ग्रेज़ी में boy का बहुवचन boys होता है तो सम्बोधन में भी वह boys ही रहता है। सम्बोधन की स्थिति में boys के अंत से s हटाने या उसका रूपांतर करने जैसा कोई नियम वहाँ नहीं है, उसकी ज़रूरत ही नहीं है। ज़रूरत हिंदी में भी नहीं है।
16) इस नियम (या आग्रह) से अपरिचित जन और इसके विरोधी, इसके औचित्य पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए एक आपत्ति यह रखते हैं कि इस नियम के कारण एक ही शब्द के दो बहुवचन संस्करण बन जाएँगे जो अनावश्यक तो हैं ही, कई बार भिन्न अर्थ वाले समान शब्द होने के कारण अर्थ का अनर्थ करने की क्षमता भी रखते हैं। उदाहरणार्थ बिना अनुस्वार के "ऐ मेरे वतन के लोगो" कहने से अशोक की लाट (भारत का लोगो) को संबोधित करना भी समझा जा सकता है जबकि लोगों कहने से लोग का बहुवचन स्पष्ट होता है और किसी भी भ्रांति से भली-भांति बचा जा सकता है।
कुल मिलाकर निष्कर्ष यही निकलता है कि हिन्दी के बहुवचन सम्बोधन से अनुस्वार हटाने का आग्रह एक फिजूल की बंदिश से अधिक कुछ भी नहीं। कुछ पुस्तकों में इसका ज़िक्र अवश्य है और हिन्दुस्तानी के प्रयोगकर्ताओं का एक वर्ग इसका पालन भी करता है। साथ ही यह भी सच है कि हिंदीभाषियों और व्याकरणकारों का एक बड़ा वर्ग ऐसे किसी आग्रह को जानता तक नहीं है, मानने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। इस आग्रह का कारण और उद्गम भी अज्ञात है। इसके प्रायोजक, प्रस्तोता और पालनकर्ता और पढने के बाद इसे दोहराने वाले, इसके उद्गम के बारे में कुछ नहीं जानते हैं। संभावना है कि हिन्दी की किसी बोली, संभवतः लश्करी उर्दू या क्षेत्र विशेष में इसका प्रचालन रहा है और उस बोली या क्षेत्र के लोग इसका प्रयोग और प्रसार एक परिपाटी की तरह करते रहे हैं। स्पष्टतः इस आग्रह के पालन से हिन्दी भाषा या व्याकरण में कोई मूल्य संवर्धन नहीं होता है। इस आग्रह से कोई लाभ नहीं दिखता है, अलबत्ता भ्रांति की संभावना बढ़ जाती है। ऐसी भ्रांतियों के कुछ उदाहरण इस आलेख में पहले दिखाये जा चुके हैं।कुछ समय से यह बहस सुनता आया हूँ, फिर भी इस पर कभी लिखा नहीं क्योंकि उसकी ज़रूरत नहीं समझी। लेकिन अब जब इस हानिप्रद आग्रह के पक्ष में लिखे हुए छिटपुट उदाहरण सबूत के तौर पर पेश किए जाते देखता हूँ और इस आग्रह का ज़िक्र न करने वाली पुस्तकों को सबूत का अभाव माना जाता देखता हूँ तो लगता है कि शांति के स्थान पर नकार का एक स्वर भी आवश्यक है ताकि इन्टरनेट पर इस भाषाई दुविधा के बारे में जानकारी खोजने वालों को दूसरा पक्ष भी दिख सके, शांति का स्वर सुनाई दे। इस विषय पर आपके अनुभव, टिप्पणियों और विचारों का स्वागत है। यदि आपको बहुवचन सम्बोधन से अनुस्वार हटाने में कोई लाभ नज़र आता है तो कृपया उससे अवगत अवश्य कराएं। धन्यवाद!
ऐ मेरे वतन के लोगों - लता मंगेशकर का स्वर, कवि प्रदीप की रचना
* हिन्दी, देवनागरी भाषा, उच्चारण, लिपि, व्याकरण विमर्श *
अ से ज्ञ तक
लिपियाँ और कमियाँ
उच्चारण ऋ का
लोगो नहीं, लोगों
श और ष का अंतर