जीवन को रेहन रखा था
स्वार्थी लालों के तालों में॥
निर्मल अमृत व्यर्थ बहाया
सीमित तालों या नालों में॥
परपीड़क हर ओर मिले पर
जगह मिली न दिलवालों में॥
अब जब इतना बोध हो गया
सोच रहा मैं किस पथ जाऊँ॥
स्वाद उठाऊँ जीवन का
या मुक्तमना छुटकारा पाऊँ॥
या मुक्तमना छुटकारा पाऊँ॥
धरती उठा उधर रख दूँ या
चल दूँ खिसके मतवालों में॥
चल दूँ खिसके मतवालों में॥
चलूँ चाल न अपनी लेकिन
न उलझूँ ठगिनी चालों में॥
न उलझूँ ठगिनी चालों में॥