Tuesday, September 2, 2008

लागले बोलबेन

हमारे एक परिचित कलकत्ता में रहते हैं। एक दिन वे रेल में सफर कर रहे थे। भारतीय रेल का द्वितीय श्रेणी का अनारक्षित डब्बा। ज़ाहिर है, भीड़ बहुत थी। साथ में बैठे हुए एक महाशय चौडे होकर अखबार पढ़ रहे थे। जब पन्ना पलटते तो कागज़ के कोने दोनों और बैठे लोगों की आँख के करीब तक पहुँच जाते। कुछ देर तक तो लोगों ने बर्दाश्त किया। आखिरकार एक भाई से रहा न गया। अपने थैले में से एक पत्रिका निकालकर बड़ी विनम्रता से बोले, "भाई साहब आप अखबार पढने के बजाय इस पत्रिका को पढ़ लें तो अच्छा हो, अखबार जब आँख के बिल्कुल पास आ जाता है तो असुविधा होती है।"

उन महाशय ने पहले तो आँखें तरेर कर देखा फिर वापस अपने अखबार में मुँह छिपाकर बड़ी बेरुखी से बोले, "लागले बोलबेन" (या ऐसा ही कुछ और)

सामने की सीट पर बैठे हुए पहलवान से दिखने वाले एक साहब काफी देर से महाशय के पड़ोसियों की परेशानी को देख रहे थे। वे अपनी सीट से उठे और अपनी हथेली पूरी खोलकर महाशय की आँखों और अखबार के बीच इस तरह घुमाने लगे कि वे कुछ भी पढ़ न सकें। जब महाशय ने सर उठाकर उन्हें गुस्से से घूरा तो वे तपाक से बोले, "लागले बोलबेन"

सारे सहयात्री हँस पड़े। महाशय ने अपना अखबार बंद करते हुए पड़ोसी से पत्रिका माँगी और आगे का सफर हंसी-खुशी कट गया।

Monday, September 1, 2008

तरह तरह के बिच्छू

भारतीय परम्परा के अनुसार पृथ्वी पर चौरासी लाख योनियाँ हैं। मतलब यह कि इस भरी दुनिया में किस्म किस्म के प्राणी हैं। हर प्राणी की अपनी प्रकृति है जिसके अधीन रहकर वह काम करता है। मनुष्य ही संभवतः एक ऐसा प्राणी है जो अपनी प्राकृतिक पाशविक प्रवृत्तियों से मुक्त होकर अपने विवेकानुसार काम कर सकता है। मगर अन्य प्राणी इतने खुशनसीब कहाँ? पिछले दिनों मैंने अपने दो अलग अलग मित्रों से दो अलग अलग नदियों की कहानियाँ सुनीं। इन कहानियों में अन्तर भी है और साम्य भी। दोनों कहानियों के केन्द्र में है एक बिच्छू परिवार। सोचा आपसे बाँट लूँ।

कथा १:एक साधु जब गंगा स्नान को गया तो उसने देखा कि एक बिच्छू जल में बहा जा रहा है। साधु ने उसे बचाना चाहा। साधु उसे पानी से निकालता तो बिच्छू उसे डंक मार देता और छूटकर पानी में गिर जाता। साधु ने कई बार प्रयास किया मगर बिच्छू बार-बार छूटता जाता था। साधु ने सोचा कि जब यह बिच्छू जब अपने तारणहार के प्रति भी अपनी डंक मारने की पाशविक प्रवृत्ति को नहीं छोड़ पा रहा है तो मैं इस प्राणी के प्रति अपनी दया और करुणा की मानवीय प्रवृत्ति को कैसे छोड़ दूँ। बहुत से दंश खाकर भी अंततः साधु ने उस बिच्छू को मरने से बचा लिया।

बिच्छू ने वापस अपने बिल में जाकर अपने परिवार को उस साधु की मूर्खता के बारे में बताया तो सारा बिच्छू सदन इस साधु को डसने को उत्साहित हो गया। जब साधु अपने नित्य स्नान के लिए गंगा में आता तो एक-एक करके सारा बिच्छू परिवार नदी में बहता हुआ आता। जब साधु उन्हें बचाने का प्रयास करता तो वे उसे डंक मारकर अति आनंदित होते। तीन साल तेरह महीने तक यह क्रम निरंतर चलता रहा।

एक दिन साधु को ऐसा लगा कि उसकी सात पीढियां भी ऐसा करती रहें तो भी वह सारे बिच्छू नहीं बचा सकता है इसलिए उसने उन बहते कीडों को ईश्वर की दया पर छोड़ दिया। बिच्छू परिवार के अधिकाँश सदस्य बह गए मगर उन्हें मरते दम तक उन्हें यह समझ न आया कि एक साधु कैसे इतना हृदयहीन हो सकता है।

तब से बिच्छूओं के स्कूल में पढाया जाता है कि इंसान भले ही निस्वार्थ होकर संन्यास ले लें वह कभी भी विश्वास-योग्य नहीं हो सकते हैं

कथा २:
एक बार जब नदी में बाढ़ आयी तो समूचा बिच्छू महल उसमें डूब गया। बिच्छू डूबने लगे तो उन्होंने इधर उधर नज़र दौडाई। उन्होंने देखा कि तमाम मेंढक मज़े से पानी में घूम रहे हैं। एक बुद्धिमान बिच्छू को विचार आया कि वे मेंढकों की पीठ पर बैठकर बहाव के किनारे तक जा सकते हैं। फिर क्या था बिच्छू-परिवार ने मेंढक-परिवार के पास उनकी मेंढ़कियत का हवाला देते एक संदेशा भिजवाया। मेंढ़कियत का तकाजा था इसलिए न तो नहीं कर सके मगर एक युवा मेंढक ने बिच्छूओं की दंश-प्रकृति पर शंका व्यक्त की। बिच्छूओं ने अपनी प्रकृति की सीमाओं को माना मगर वचन देते हुए कहा कि अपनी जीवन-रक्षा के लिए वे अपने डंक बाँध कर रखेंगे।

नियत समय पर हर बिच्छू एक मेंढक की पीठ पर बैठ गया और मेंढक बेडा चल पडा किनारे की ओर। कुछ ही देर में बिच्छूओं के पेट में सर-दर्द होना शुरू हो गया। काफी देर तक तो बेचारे बिच्छू कसमसाते रहे मगर आखिर मेंढकों का अत्याचार कब तक सहते। धीरे-धीरे अपने डंक के बंधनों को खोला। किनारा बहुत दूर न था, जब लगभग हर मेंढक को अपनी पीठ पर तीखा, ज़हरीला, दंश अनुभव हुआ। बुद्धिमान मेंढकों ने स्थिति को समझ लिया। डूबने से पहले मेंढकों के सरदार ने बिच्छूओं के सरगना से पूछा कि उसने ऐसा क्यों किया। अगर मेंढक सरे-राह मर गए तो बिच्छू भी जीवित किनारे तक नहीं पहुँच सकेंगे। सरगना ने कंधे उचकाते हुए कहा, "हम डसना कैसे छोड़ते, यह तो हमारी प्रकृति है।"

सारे मेंढक डूब कर मर गए और इसके साथ ही अधिकाँश बिच्छू भी। कुछ बिच्छू, जैसे तैसे किनारे तक पहुँचे। तब से बिच्छूओं के स्कूल में पढाया जाता है कि मेंढकों पर कभी भी विश्वास नहीं किया जा सकता है

Saturday, August 30, 2008

मुझे क्या मिलेगा?

हमारे एक सहकर्मी थे। निहायत ही भले और सुसंस्कृत। कभी किसी ने ऊंची आवाज़ में बोलते नहीं सुना। प्रबंधक थे, कार्यालय की सारी खरीद-फरोख्त उनके द्वारा ही होती थी। कभी भी बेईमानी नहीं की। न ही किसी विक्रेता से भेदभाव किया। सबसे बराबर का कमीशन ही लेते थे। कम-ज़्यादा का सवाल ही नहीं। जब होली के मौके पर सबके लिए उपयुक्त शीर्षक चुने गए तो उनका शीर्षक भी उनकी महानता के अनुरूप ही था:

इस ब्रांच में मेरी मर्जी के बगैर कोई पत्ता नहीं हिलेगा,
कुछ खरीदने से पहले यह बताओ कि मन्नै के मिलेगा।

अफ़सोस की बात यह है कि "मन्नै के मिलेगा" की यह सोच सार्वभौमिक सी होती जा रही है। हर बात में हम "मुझे क्या मिलेगा" से ही चलायमान होते हैं। आरक्षण इसका ज्वलंत उदाहरण है। मेरी जाति को मिलता है तो अच्छा है, मुझे नहीं मिलता तो अन्याय है।

मेरी पत्नी खाना अच्छा बना लेती हैं। जब भी कोई नया (भारतीय) व्यक्ति हमारे घर पहली बार खाता है, उसका पहला सवाल यही होता है, "आप अपना रेस्तराँ क्यों नहीं खोल लेते?"

"क्यों भाई?"

"पैसा बहुत मिलेगा!"

घर खरीदने निकले तो एजेंट बताता कि हमें वह घर खरीदने चाहिए जिनमें लकडी जलाने वाले असली फायरप्लेस हों। सुरक्षा की दृष्टि से मैं आग से खेलने के विचार से बहुत प्रभावित नहीं था। यह जानकर एजेंट ने बताया, "बेचने में आसानी होती है। "

बेचना महत्वपूर्ण नहीं है, ऐसा मैं नहीं कहता, मगर आम मध्यम वर्ग के लिए घर खरीदने का पहला उद्देश्य उसमें रहना है - न कि बेचना। मगर हमारी सोच यही है। कार खरीदें या स्कूटर, उसकी विशेषताओं या उपयोगिता से पहले रीसेल वैल्यू का विचार आता है।