पिट्सबर्ग में पतझड़ का मौसम आ चुका है। पत्ते गिर रहे हैं, ठंडी हवाएं चल रही हैं। हैलोवीन के इंतज़ार में बैठे बच्चों ने अपने घरों के बाहर नकली कब्रें और कंकाल इकट्ठे करने शुरू कर दिए हैं। पेड़ों पर जहाँ-तहाँ बिल्कुल असली जैसे नरकंकाल टंगे दीख जाते हैं। ऐसे मौसम का दूसरा पक्ष यह भी है कि प्रकृति रंगों से भर उठी है। धूप की गुनगुनाहट बड़ी सुखद महसूस होती है। काफी पहले पतझड़ शीर्षक से एक कविता लिखी थी आज उसी शीर्षक से एक कुंडली लिखने का प्रयास किया है जिसका प्रथम और अन्तिम शब्द पतझड़ ही है:
पतझड़ में पत्ते गिरैं, मन आकुल हो जाय।
गिरा हुआ पत्ता कभी, फिर वापस ना आय।।
फिर वापस ना आय, पवन चलै चाहे जितनी ।
बात बहुत है बड़ी, लगै चाहे छोटी कितनी ।।
अंधड़ चलै, तूफ़ान मचायै कितनी भगदड़।
आवेगा वसंत पुनः, जावैगा पतझड़।।
(अनुराग शर्मा)
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Tuesday, October 13, 2009
Friday, September 26, 2008
पतझड़
निष्ठुर ठंडी काली रातें रिसते घाव रुलाती रातें। फूल पात सब बीती बातें सूने दिन और रीती रातें। मुरझाया कुम्हलाया तन-मन उजड़ी सेज कंटीली रातें। मिलन बिछोहा सब झूठा था सत्य भयानक हैैं ये रातें। फटी पुरानी यादें लाकर पैबन्दों को बिछाती रातें। सूखे पत्ते सूनी शाखें पतझड़ में सताती रातें।। |
(रेखाचित्र: अनुराग शर्मा)
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