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Saturday, August 16, 2008

भाई बहन का त्यौहार?

यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत् सहजं पुरस्तात।
आज रक्षाबंधन जैसा महत्वपूर्ण त्यौहार भाई बहन के रिश्ते तक सिमटकर रह गया है। सच ही है, वर्षों की गुलामी ने हमें दूसरों के मामलों से कन्नी काटना सिखाया है। अनेक आक्रमणों के बाद जब हमारी व्यवस्था का पतन हो गया तो देश-धर्म और संस्कृति की रक्षा जैसी चीज़ें प्रचलन से बाहर (आउट ऑफ फैशन) हो गयीं। तथाकथित वीरों की जिम्मेदारियाँ भी सिकुड़कर बहुत से बहुत अपनी बहन की रक्षा तक ही सीमित रह गयीं। कोई आश्चर्य नहीं कि बहुत से अंचलों में वीर शब्द का अर्थ भी सिमटकर भाई तक ही सीमित रह गया। इन बोलियों में वीरा या वीर जी आज भाई का ही पर्याय है।

संध्यावंदन (1931) से साभार  
प्राचीन काल में श्रावण पूर्णिमा के दिन यज्ञोपवीत बदलने की परम्परा थी। विशेषकर दक्षिण भारत में, आज भी बहुत से मंदिरों में सामूहिक रूप से इस परम्परा का पालन होता है। इसी दिन ब्राह्मण अपने धर्म-परायण राजा को रक्षा बांधकर विजयी होने का आशीर्वाद देते थे और राजा ब्राह्मणों को धर्म की रक्षा का वचन देता था।

बचपन में मैंने देखा था कि हमारे समुदाय में शासक के नाम की राखी कृष्ण भगवान् को बांधी जाती थी। राम जाने किस राजा के समय से यह परम्परा शुरू हुई परन्तु कभी तो ऐसा हुआ जब यथार्थ शासक को धार्मिक रूप से अमान्य कर के सिर्फ़ श्री कृष्ण को ही धर्म पालक राजा के रूप में स्वीकार किया गया। शायद किसी आतताई मुग़ल शासक के समय में या ब्रिटिश शासन में ऐसा हुआ होगा।

भविष्य पुराण के अनुसार पहली बार इन्द्र की पत्नी शची ने देवासुर संग्राम में विजय के उद्देश्य से अपने पति को रक्षा बंधन बांधा था जिसके कारण देव अजेय बने रहे थे। एक वर्ष बाद उसकी काट के लिए असुरों के विद्वान् गुरु शुक्राचार्य ने भक्त प्रहलाद के पौत्र असुरराज बलि को दाहिने हाथ में रक्षा बांधी थी। पुरोहित आज भी रक्षा या कलावा/मौली आदि बांधते समय इसी घटना को याद करते हुए निम्न मन्त्र पढ़ते है:

येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबलः तेन त्वामभिबध्नामि रक्षे मा चल मा चल

बाकी बातें बाद में क्योंकि कुछ ही देर में मुझे एक स्थानीय रक्षा बंधन समारोह में राखी बंधाने के लिए निकलना है।

Saturday, August 9, 2008

भविष्य अब भूत हुआ

भविष्य अगर भूत हो जाय तो उसे क्या कहेंगे - विज्ञान कथा (साइंस फिक्शन)? शायद! मेरी नज़र में उसे कहेंगे - पुराना भविष्य या भविष्य पुराण। भविष्य पुराण की गिनती प्रमुख १८ पुराणों में होती है। अरब लेखक अल बरूनी की किताब-उल-हिंद में इस पुराण का ज़िक्र भी अठारह पुराणों की सूची में है।

भविष्य पुराण की एक खूबी है जो उसे अन्य समकक्ष साहित्य से अलग करती है। यह पुराण भविष्य में लिखा गया है। अर्थात, इसमें उन घटनाओं का वर्णन है जो कि भविष्य में होनी हैं। खुशकिस्मती से हम भविष्य में इतना आगे चले आए हैं कि इसमें वर्णित बहुत सा भविष्य अब भूत हो चुका है।

भारत में भविष्य में अवतीर्ण होने वाले विभिन्न आचार्यों व गुरुओं यथा शंकराचार्य, नानक, सूरदास आदि का ज़िक्र तो है ही, भारत से बाहर ईसा मसीह, हजरत मुहम्मद से लेकर तैमूर लंग तक का विवरण इस ग्रन्थ में मिलता है।

इस पुराण के अधिष्ठाता देव भगवान् सूर्य हैं। श्रावण मास में नाग-पंचमी के व्रत की कथा एवं रक्षा-बंधन की महिमा इस पुराण से ही आयी है। कुछ लोग सोचते हैं कि प्राचीन भारतीय ग्रंथों में सिर्फ़ परलोक की बातें हैं। इससे ज्यादा हास्यास्पद बात शायद ही कोई हो। इस पुराण में जगह जगह जनोपयोग के लिए कुँए, तालाब आदि खुदवाने का आग्रह है। वृक्षारोपण और उद्यान बनाने पर जितना ज़ोर इस ग्रन्थ में है उतना किसी आधुनिक पुस्तक में मिलना कठिन है।

पुत्र-जन्म के लिए हर तरह के टोटके करने वाले तथाकथित धार्मिक लोगों को तो इस ग्रन्थ से ज़रूर ही कुछ सीखना चाहिए। यहाँ कहा गया है कि वृक्षारोपण, पुत्र को जन्म देने से कहीं बड़ा है क्योंकि एक नालायक पुत्र (आपके जीवनकाल में ही) कितने ही नरक दिखा सकता है जबकि आपका रोपा हुआ एक-एक पौधा (आपके दुनिया छोड़ने की बाद भी) दूसरों के काम आता रहता है।

अब आप कौन सा पौधा लगाते हैं इसका चयन तो आपको स्वयं ही करना पडेगा। संत कबीर के शब्दों में:
करता था सो क्यों किया, अब कर क्यों पछिताय ।
बोया पेड़ बबूल का, आम कहाँ से खाय ॥

और हाँ, पेड़ लगाने के बहाने गली पर कब्ज़ा न करें तो अच्छा है।