Showing posts with label sucide. Show all posts
Showing posts with label sucide. Show all posts

Monday, June 7, 2010

अंधा प्यार - एक कहानी

आज एक छोटी सी कहानी कुछ अलग तरह की...

रीना
ज़िंदगी मुकम्मल तो कभी भी नहीं थी। बचपन से आज तक कहीं न कहीं, कोई न कोई कमी लगातार बनी रही। बाबा कितनी जल्दी हमें छोड़कर चले गए। अर्थाभाव भी हमेशा ही बना रहा। हाँ, ज़िंदगी कितनी अधूरी थी इसका अहसास उससे मुलाक़ात होने से पहले नहीं हुआ था। समय के साथ हमारा प्यार परवान चढ़ा। ज़िन्दगी पहली बार भरी-पूरी दिखाई दी। हर तरफ बहार ही बहार। जिससे प्यार किया वह विकलांग है तो क्या हुआ? मगर अच्छे दिन कितनी देर टिकते हैं? पहले विवाह और फिर उसके साल भर में ही युद्ध शुरू हो गया। इनकी पलटन भी सीमा पर थी। कितनी बहादुरी से लड़े। मगर फिर भी... हार तो हार ही होती है। कितने दिए बुझ गए। यही क्या कम है कि ये वापस तो आये। मगर लड़ाई ने ज़िंदगी को बिलकुल ही बदल दिया। देश पर जान न्योछावर करने के लिए हँसते-हँसते सीमा पर जाने वाला व्यक्ति कोई और था और हर बात पर आग-बबूला हो जाने वाला जो उदास, हताश, कुंठित, और कलही व्यक्ति वापस आया वह कोई और।

अमित
आँखें नहीं बचीं है तो क्या हुआ? क्या-क्या नहीं देखा है इस छोटी सी ज़िंदगी में। और क्या-क्या नहीं किया है। साम्राज्यवाद की सूली पर इंसानों को गाजर-मूली की तरह कटते देखा है। खुद भी काटा है, इन्हीं हाथों से। बस यही सब देखना बाकी था। आँखें तो भगवान् ने ले ही लीं, जीवन भी उसी युद्धभूमि में क्यों न ले लिया? क्यों छोड़ दिया यह दिन देखने को? तीन साल पहले ही तो रीना से विवाह हुआ था। कितने सपने संजोये थे। क्या-क्या उम्मीदें थीं। हालांकि बाद में दरार आ गई। कितना प्यार दिया रीना को। फिर यह सब कैसे हो गया? वे दोनों एक ही कॉलेज में थे। शायद शादी से पहले ही कुछ रहा होगा। तभी तो इतना नज़दीकी होने के बावजूद दिनेश आया नहीं था शादी में। और उसके बाद भी महीनों तक बचता रहा था। मैं समझता था कि काम के सिलसिले में व्यस्त है। और अब यह छलावा... हे भगवान्! यह कैसी परीक्षा है? यह क्या हो गया है मुझे? मैं तो कभी भी इतना कायर नहीं था? नहीं! मैं हार मानने वाला नहीं हूँ। अगर मेरे जीवन में कुछ गलत हो रहा है तो उसे ठीक करने की ज़िम्मेदारी भी मेरी ही है। एक सच्चा सैनिक प्राणोत्सर्ग से नहीं डरता। पत्नी रीना व बचपन का दोस्त दिनेश, दोनों ऐसे लोग जिनकी खुशी के लिए मैं हँसते-हँसते प्राण दे दूँ। मैं ही हूँ उनकी राह का रोड़ा, उनकी खुशी में बाधक। आज यह रोड़ा हटा ही देता हूँ। वे और परेशान न हों इसलिए इसलिए आत्महत्या ही कर लूंगा... आज ही... उनके सामने। कब तक इस अंधे की छड़ी बनकर अपनी कुर्बानी देती रहेगी?

दिनेश
अपने से ज़्यादा यकीन करता था मेरे ऊपर। मगर लगता है वह बात नहीं रही अब। शक का कीड़ा उसके दिमाग में बैठ गया है। हमेशा मुस्कराता रहता था। मैं रीना को कभी मज़ाक में भाभी जान कहता तो कभी केवल उसे चिढाने के लिए सिर्फ जान भी कह देता था। कभी भी बुरा नहीं मानता था। मगर जब से लड़ाई से वापस आया है सब कुछ बदल गया है। हम दोनों की आवाज़ भी एकसाथ सुन ले तो उबल पड़ता है। हरदम खटका सा लगा रहता है। कहीं कुछ ऊँच-नीच न हो जाये।

रीना
पति के हाथ में भरी हुई पिस्तौल... किसलिए? अपनी पत्नी को मारने के लिए? जितना हुआ बहुत हुआ। क्या-क्या नहीं किया मैंने? इस शादी के लिए अपने प्यार की कुर्बानी। लड़ाई के दिनों में हर रोज़ विधवा होकर फिर से अनाथ हो जाने का वह भयावह अहसास। और... उसके बाद आज का यह नाटक... आज के बाद एक दिन भी इस घर में नहीं रह सकती मैं।

अमित
अपने ऊपर शर्म आ रही है। अपनी जान से भी ज़्यादा प्यारी अपनी पत्नी पर शक किया मैंने। उसका नाम किसी और के साथ जोड़ा। और वह भी उस दोस्त के साथ जिसे मैं बचपन से जानता हूँ। जिसने मेरी खुशी के लिए अपना प्यार भी कुर्बान कर दिया मुझे बताये बिना। आज अगर बिना बताये घर नहीं पहुँचता और उनकी बातें कान में नहीं पडतीं तो शायद कभी सच्चाई नहीं जान पाता। असलियत जाने बिना अपनी जान भी ले लेता और उन्हें भी जीते जी मार दिया होता। दिनेश ने हँसते हँसते मेरी शादी रीना से कराई और उस दिन से आज तक उसे अपनी सगी भाभी से भी बढ़कर आदर दिया। ईश्वर कितना दयालु है जो इन दोनों का त्याग मेरे सामने उजागर हो गया और मेरे हाथ से इतना बड़ा पाप होने से बच गया।

दिनेश
बहुत सह लिया यार। अब भाड़ में गयी दोस्ती। मैं जा रहा हूँ आज ही अपना बोरिया-बिस्तरा बाँध कर। आज तो बाल-बाल बचा हूँ। भरी हुई पिस्तौल थी उसके हाथ में। आज मैं यह लाइन लिख नहीं पाता। गिड़गिड़ाने पर अगर जान बख्श भी देता तो भी मेरी बची हुई टांग तो तोड़ ही डालता शायद। रीना को भी जान से मार सकता था। ये कहो कि बाबा जी की किरपा से हमारी किस्मत अच्छी थी कि हमने उसकी कार बेडरूम की खिड़की से ही देख ली थी और उसके घर में घुसने से पहले ही अपने संवाद बोलने लगे। वरना तो बस राम नाम सत्य हो ही गया था... अपने को बहुत होशियार समझता है... अंधा कहीं का।

[अनुराग शर्मा]