Wednesday, November 26, 2008

गोली का बदला गोली


जब आतंकवादी किसी भीड़ भरी ट्रेन या बस में चुपचाप कोई सूटकेस बम छोड़कर गायब हो जाते थे तब बात और थी। बुर्के में धरना प्रदर्शन कर रही महिलाओं के पीछे बुर्के में ही छिपे हुए जब अचानक वे अपनी ऐ-के-४७ निकालकर निरीह जानें लेने लगते थे तब भी बात और थी। बात तब भी और थी जब देश के दुश्मन कश्मीर के पंडितों को उनके घरों से खींचकर और पंजाब में गैर-सिखों को बसों से खींचकर गोली से उड़ा रहे थे। उत्तर-पूर्व या झारखंड के घने जंगलों में छिपे हुए आतंकवादी जब सेना या अर्ध-सैनिक बालों की किसी गाडी को घेरकर हमला करते थे या चुपचाप बारूदी सुरंग बिछाकर गायब हो जाते थे वह बात भी और थी।

चित्र सौजन्य: राइटर्स (Reuters)
मगर आज जब इन हैवानों की हिम्मत इतनी बढ़ गयी है कि वे मुम्बई जैसे शहर में खुलेआम इतनी जगहों पर न सिर्फ़ एक साथ सुनियोजित हमले कर रहे थे बल्कि आतंक-निरोधी दस्ते के प्रमुख सहित कई पुलिस-कर्मियों का खून कर सके, यह सचमुच बहुत ही दुखद, निराशाजनक और खून खौला देने वाली घटना है।

इन हालिया घटनाओं से यह साफ़ है कि पिछले वर्षों में आतंक का जाल हमारे अनुमानों से कहीं बड़ा, घना, ताक़तवर और जालिम हुआ है। समय-समय पर पुराने तस्करों के साथ-साथ कल के टिकियाचोट्टों को भी पैसे के लालच में इन गतिविधियों में शामिल किया जाता रहा है। कुछ गैर-जिम्मेदार नेताओं की भड़काऊ और घटिया बयानबाजी इन आतंकवादियों को जितना बल मिला है उतना ही अदालत के सामने सबूत रखने के मामले में प्रशासन की लापरवाही बरतने से भी। सताया हुआ होने का ड्रामा करने वाले छिछले धार्मिक नेता और तथाकथित सामाजिक अभिनेता और उनके साथ ही हम में से ही कुछ लोगों द्वारा इस वहशीपन को धर्म की दीवारों में बांटना भी दहशतगर्दों के दुस्साहस को बढावा ही देता है।

पुलिस और प्रशासन को तो अधिक चुस्ती और मुस्तैदी की ज़रूरत है ही, आम जनता को भी आत्म-रक्षा और जन-सहायता के प्रशिक्षण की बड़ी मात्रा में ज़रूरत है। बेहतर हो कि सरकार और समाज सेवी संस्थायें इस तरह का कोई सार्थक कार्यक्रम देश भर के विद्यालयों में शुरू करें और यदि सम्भव हो तो उसे सभी कार्यालयों और घरों तक भी पहुँचाया जाए।

समय आ गया है जब हम सब एकजुट होकर इन पशुओं को और इनके पालने वालों को चुन-चुनकर उनके कर्मों का फल दिलाकर पीडितों के प्रति न्याय करने में सहायक बनें। इसके लिए इनकी पहचान और पकडा जाना तो ज़रूरी है ही, पक्के सबूत भी बहुत ज़रूरी हैं ताकि इस बार ये लोग हमेशा की तरह "अपराध साबित नहीं हुआ" की ढाल लेकर अपनी गतिविधियों को चला न सकें।

प्रभु पीडितों की आत्मा को शान्ति दे!

[चित्र सौजन्य: राइटर्स (Reuters), सीमा गुप्ता एवं ताऊ रामपुरिया]

Saturday, November 22, 2008

ज़माने की बातें - कविता

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जो करते थे सारे
ज़माने की बातें

वो करते हैं अब
दिल दुखाने की बातें

मेरे साथ होते जो
थकते नहीं थे

वो करते कभी अब
न आने की बातें

है सब कुछ हमारा
था जिनका यह दावा

वो करते हैं सब कुछ
छिपाने की बातें

ग़मे दिल को अपने
मना लूंगा आख़िर

मैं कैसे भुलाऊँ
ज़माने की बातें।

Thursday, November 20, 2008

लिखने को बहुत कुछ है

कभी-कभी यूँ भी होता है कि कहने को बहुत कुछ होता है मगर इतनी सारी बातों में यह समझ नहीं आता कि क्या कह दिया जाए और क्या रह दिया जाए. कुछ ऐसा ही आजकल मेरे आसपास हो रहा है. मौसम तेज़ी से बदल रहा है. कल तक तरह-तरह के रंगों से सुशोभित पेड़ ठूँठ से नज़र आने लगे हैं. सुबह घर से जल्दी निकलो तो बर्फ की चादर से ढँकी घास का रंग सफ़ेद दिखता है. आज रात में तीन इंच बर्फ जमने की संभावना है.

पिछले हफ्ते की बेरोजगारी की दर पिछले सोलह साल में सर्वाधिक थी. लोग मंदी की मार के मारे हुए हैं. शेयर बाज़ार तो कलाबाजियां खाता जा रहा है. सिटीबैंक का शेयर आज पाँच डॉलर से नीचे चला गया. बहुत पैसा डूब गया. मगर ऐसा भी नहीं कि सब कुछ ख़राब ही हो रहा हो. हर स्टोर में सेल लगी हुई है. सेल तो वैसे हर साल ही लगती है मगर इस साल तो हर कोई किसी तरह करके भी अपना माल बेचने का भरसक प्रयत्न कर रहा है. और उसके लिए वे ग्राहक को लुभाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं. बहुत सी दुकानों को डर है कि अगर इस सीज़न में पैसा नहीं बना सके तो शायद अगले सीज़न तक धंधे से बाहर ही न हों. पेट्रोल की कीमतों में गिरावट भी जारी है. कुछ स्थानों में प्रति-गैलन पेट्रोल भी दो डॉलर से कम आ गया.

दफ्तर के बाहर के बड़े से सजावटी फव्वारे को जब लकडी के फट्टों से ढंका जाने लगा तो यही सोचा कि शायद बर्फ से बचने के लिए ऐसा किया जा रहा हो. मगर जब उस पर बाकायदा सेट तैयार होने लगा तो ध्यान आया कि यहाँ भी त्योहारों का मौसम आ चुका है. बाज़ार में सड़क-किनारे लगे पेड़ों को बिजली की झालरों से सजाया जाने लगा है. जगह-जगह ईसा मसीह के जन्म के दृश्य की झाँकियाँ बननी शुरू हो गयी हैं. दफ्तर के बाहर के फव्वारे के ऊपर हर साल एक बहुत बड़ी झांकी लगती है.शुक्रवार को शहर की सालाना "लाईट अप नाईट" है जो कि आधिकारिक रूप से त्यौहार के मौसम का आरम्भ मानी जा सकती है.

ऐसा भी नहीं है कि सब लोग त्यौहार की खुशी में शरीक ही हों. कुछ लोग तो गिरती बर्फ में शून्य से नीचे के तापक्रम में खड़े होकर काम मांगते दिख जाते हैं ताकि अपने बच्चों के लिए क्रिसमस के उपहार खरीद सकें. मगर कुछ लोग अकारण भी नाखुश रहने की कला जानते हैं. पिछली बार कुछ दलों ने इस बात पर हल्ला मचाया था कि कुछ दुकानों ने "शुभ क्रिसमस" के चिह्न क्यों लगाए थे. यह दल चाहते थे कि दुकानें सिर्फ़ एक "सीजंस ग्रीटिंग" जैसा धर्म-निरपेक्ष नारा ही लिखें.

समाज सेवी संस्थायें भी काम पर निकल पडी हैं ताकि बालगृह और अनाथालय आदि में रह रहे बच्चों तक उपहार और बेघरबार लोगों तक ऊनी कपड़े आदि पहुँचाए जा सकें. कुल मिलाकर यह समय विरोधाभास का भी है और संतुष्टि का भी. कोई उपहार पाकर संतुष्ट है और कोई उपहार देकर!

चित्र सौजन्य: अनुराग शर्मा
ओमनी विलियम पेन होटल में लाईट अप नाईट का दृश्य

चित्र सौजन्य: अनुराग शर्मा
मेरे कार्यालय के बाहर यीशु के जन्म का दृश्य

दोनों चित्र: अनुराग शर्मा द्वारा ::  Photos by Anurag Sharma
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