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Wednesday, November 10, 2010

कमाकुरा के दाइ-बुत्सू

एक अन्य मन्दिर का आकर्षक द्वार
वृहद टोक्यो का जिला कामाकुरा आज भले ही उतना मशहूर न हो परंतु एक समय में यह जापान के एक राजवंश की राजधानी हुआ करता था। तब इसे कमाकुरा बकाफू, कमाकुरा शोगुनाते और रेंपू के नाम से भी पहचाना जाता था। राज-काज का केन्द्र होने का गौरव आज भले ही काफूर हो चुका हो परंतु कमाकुरा आज भी अपने दाइ-बुत्सू के लिये प्रसिद्ध है। दाइ-बुत्सू यानी आसीन बुद्ध यद्यपि आजकल इस शब्द को विशाल बुद्ध के रूप में प्रयुक्त किया जाता है। जापान में शाक्यमुनि बुद्ध की कई विशाल और प्राचीन प्रतिमायें हैं। कमाकुरा के दाइ-बुत्सू भी उनमें से एक हैं।


दाइ-बुत्सू

तीन ओर से पर्वतों से घिरे कामाकुरा के दक्षिण में मनोहर सागर तट (सगामी खाड़ी) है। वैसे तो यह नगर रेल और सड़क मार्ग से टोक्यो से जुड़ा है परंतु दाइ-बुत्सु के दर्शन के लिये कमाकुरा से ट्रेन बदलकर एक छोटी उपनगरीय विद्युत-रेल लेकर हासे नामक ग्राम तक जाना होता है। इस स्टेशन का छोटा सा प्लेटफार्म स्कूल से घर जाते नौनिहालों से भरा हुअ था। गोरा रंग, पतली आंखें और चेहरे पर छलकती खुशी और मुस्कान उत्तरांचल की सहजता का अहसास दिला रही थी। यहाँ यह बताता चलूं कि जापान में मुझे ऐसा कभी नहीं लगा कि मैं परदेस में था। लगातार ऐसा प्रतीत होता था जैसे कि मैं भारत के एक ऐसे प्रदेश में हूँ जहाँ की भाषा मुझे अभी भी सीखनी बाकी है।


दर्शन से पहले ॐ अपवित्राय पवित्रो वा ...
कमाकुरा की अमिताभ बुद्ध की विशाल काँस्य प्रतिमा (दाइ-बुत्सू) लगभग बारह सौ वर्ष पुरानी है। यह जापान की तीसरी सबसे विशाल प्रतिमा है।  पांच शताब्दी पहले आये एक त्सुनामी में काष्ठ-मंडप के नष्ट हो जाने के बाद से ही यह प्रतिमा खुले आकाश में अवस्थित है। विश्व में जापान को पहचान दिलाने वाले प्रतीकों में से एक दाइ-बुत्सू के अतिरिक्त पाँच प्रमुख ज़ेन मन्दिर भी कमाकुरा क्षेत्र में पडते हैं।




सिंहद्वार के संगमर्मरी वनराज
1923 के भयानक भूकम्प में जब कमाकुरा के बहुत से स्थल नष्टप्राय हो गये थे तब जापानियों ने उनमें से अधिकांश का उद्धार किया परंतु अमिताभ बुद्ध का मन्दिर दोबारा बनाया न जा सका। पता नहीं अपने मन्दिर में बुद्ध कितने सुन्दर दिखते मगर मुझे तो खुले आकाश के नीचे पद्मासन में बैठे ध्यानमग्न शाक्यमुनि के मुखारविन्द की शांति ने बहुत प्रभावित किया। जापानी भक्त हाथ जोडकर धूप भी जला रहे थे और हुंडियों में येन भी डालते जा रहे थे।


बुद्ध के विशाल खडाऊं

मन्दिर के विशाल परिसर से उसके मूलरूप की भव्यता का आभास हो जाता है। बुद्ध की कांस्य-प्रतिमा अन्दर से पोली है और उसके भीतर जाने का मार्ग भी है। मूर्ति के पार्श्व भाग में दो खिड़कियाँ भी हैं। प्राचीन काल में प्रतिमा एक खिले हुए कमल के ऊपर स्थापित थी जो अब नहीं बचा है परंतु उसकी बची हुई चार विशाल पंखुडियाँ आज भी प्रतिमा के चरणों में रखी देखी जा सकती हैं।



बुद्ध के दर्शनाभिलाषी दादा-पोता
प्रवेश शुल्क २०० येन (सवा सौ रुपये?) है। देश-विदेश से हर वय और पृष्ठभूमि के लोग वहाँ दिख रहे थे। परिसर में अल्पाहार और स्मृति चिन्हों के लिये भारतीय तीर्थस्थलों जैसे ही छोटी-छोटी अनेक दुकानें थीं। अधिकांश दुकानों में महिलाओं की उपस्थिति इम्फाल, मणिपुर के ईमा कैथेल की याद ताज़ा कर रही थी। अलबत्ता यहाँ मत्स्यगन्ध नहीं थी। एक बच्चे को अपने पितामह के आश्रय में आइस्क्रीम खाते देखा तो उनकी अनुमति लेकर मैने उस जीवंत क्षण को कैमरे में कैद कर लिया। अगले अंक में हम चलेंगे समृद्धि के देवता का मन्दिर: रेंकोजी - जापान का एक गुमनाम सा परंतु अनूठा तीर्थस्थल जहाँ हम भारतीयों का दिल शायद जापानियों से भी अधिक धडकता है।

बुद्धम् शरणम् गच्छामि!
[सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा :: Photos by Anurag Sharma]

टोक्यो टॉवर

टोक्यो टॉवर की छत्रछया में
1958 में बना टोक्यो टॉवर विश्वप्रसिद्ध आयफ़ैल टॉवर से न केवल अधिक ऊंचा है बल्कि इसमें काम आने वाले कुल इस्पात का भार (4000 टन) आयफ़ैल टॉवर के भार (7000+) से कहीं कम है। कोरियन युद्ध में मार खाये अमेरिकी टैंकों के कबाड़ से पुनर्प्राप्त किये इस्पात से बने इस स्तम्भ की नींव जून 1957 में रखी गयी थी। 14 अक्टूबर 1958 में यह विश्व का सबसे ऊँचा स्तम्भ बन गया। उसके बाद संसार में कई बड़ी-इमारतें अस्तित्व में आईं परंतु यह स्तम्भ आज भी विश्व के सबसे ऊँचे स्वतंत्र स्तम्भ के रूप में गौरवांवित है।

रात्रि में टोक्यो टॉवर का सौन्दर्य
इस स्तम्भ का मुख्य उपयोग रेडिओ और टी वी के प्रसारण के लिये होता है। परंतु साथ ही टोक्यो के मिनातो-कू के प्रसिद्ध ज़ोजोजी मन्दिर परिसर के निकट स्थित यह स्तम्भ एक बड़ा पर्यटक आकर्षण भी है। इसकी स्थापना से आज तक लगभग 15 करोड़ पर्यटक यहाँ आ चुके हैं।

टोक्यो टॉवर के आधार पर एक चार मंज़िला भवन है जिसमें संग्रहालय, अल्पाहार स्थल, बाल-झूले और जापान यात्रा के स्मृतिचिन्ह बेचने वाली अनेकों दुकानें हैं। पर्यटक एक लिफ्ट के द्वारा स्तम्भ के ऊपर बनी दोमंज़िला दर्शनी-ड्योढी तक पहुँचते हैं जहाँ से टोक्यो नगर का विहंगम दृश्य देखा जा सकता है। यदि आपकी किस्मत से आकाश साफ है तो फिर आप फूजी शिखर का दर्शन टोक्यो से ही कर सकते हैं। इस दर्शक दीर्घा के फर्श में दो जगह शीशे के ब्लॉक लगे हैं ताकि आप अपने पांव के डेढ़ सौ मीटर तले ज़मीन खिसकती हुई देख कर अपने रोंगटे खडे कर सकें। वैसे यहाँ से एक और टिकट लेकर एक और ऊंची ड्योढी तक जाया जा सकता है। हालांकि हम जैसे कमज़ोर दिल वालों के लिये यहाँ से "ऊपर जाने" की कोई आवश्यकता नज़र नहीं आयी।

टोक्यो टॉवर
जापान के हर कोने और गली कूचे की तरह इस टॉवर के ऊपर बनी दर्शक ड्योढी में भी एक छोटा सा सुन्दर मन्दिर बना हुआ है। यदि यह विश्व के सबसे ऊंचे मन्दिरों में से एक हो तो कोई आश्चर्य नहीं। क्रिसमस के मद्देनज़र स्तम्भ की तलहटी में आजकल वहाँ एक क्रिसमस-पल्लव भी लगाया जा रहा है।

सलीका और सौन्दर्यबोध जापानियों के रक्त में रचा बसा है। इसीलिये इस्पात का यह विशाल खम्भा भी 28000 लिटर लाल और श्वेत रंग में रंगकर उन्होने इसकी सुन्दरता को कई गुणा बढा दिया है।

टोक्यो टॉवर की दर्शन ड्योढी का लघु मन्दिर् 

[सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा :: Tokyo Tower Photos: Anurag Sharma]

Thursday, September 2, 2010

अई अई आ त्सुकू-त्सुकू

(अनुराग शर्मा की त्सुकुबा जापान यात्रा संस्मरण)

सृजनगाथा पर जापान के अपने यात्रा संस्मरण में मैंने त्सुकुबा पर्वत की यात्रा का वर्णन किया था। इसी पर्वत की तलहटी में, टोक्यो से ५० किलोमीटर की दूरी पर शोध और तकनीकी विकास के उद्देश्य से सन १९६३ में त्सुकुबा विज्ञान नगर परियोजना ने जन्म लिया और १९८० तक यहाँ ४० से अधिक शोध, शिक्षा और तकनीकी संस्थानों की स्थापना हो गयी थी। जापान के भीड़भरे नगरों की छवि के विपरीत त्सुकूबा (つくば?) एक शांत सा नगर है जो भारत के किसी छावनी नगर जैसा शांत और स्वच्छ नज़र आता है।

त्सुकुबा विश्वविद्यालय सहित कई राष्ट्रीय जांच और शोध संस्थान यहाँ होने के कारण जापान के शोधार्थियों का ४० प्रतिशत आज त्सुकुबा में रहता है। त्सुकुबा में लगभग सवा सौ औद्योगिक संस्थानों की शोध इकाइयाँ कार्यरत हैं। सड़कों के जाल के बीच ३१ किलोमीटर लम्बे मार्ग केवल पैदल और साइकिल सवारों के लिए आरक्षित हैं। और इन सबके बीच बिखरे हुए ८८ पार्क कुल १०० हेक्टेयर के क्षेत्र में फैले हुए हैं। ऐसे ही एक पार्क में मेरा सामना हुआ त्सुकुबा के अधिकारिक पक्षी त्सुकुत्सुकू (Tsuku-tsuku) से।

जापान में दो लिपियाँ एक साथ चलती हैं - कांजी और हिरागाना। कांजी लिपि चीन की लिपि का जापानी रूप है जबकि हिरागना जापानी है। नए नगरों के नाम हिरागना में ही लिखे जाते हैं। त्सुकुबा का नाम भी हिरागना में ही लिखा जाता है और यहाँ के अधिकारिक पक्षी का नाम त्सुकुत्सुकू जब हिरागना में लिखा जाए तो उसका अर्थ होता है असीमित विकास एवं समरसता।

सोचता हूँ कि भारत में यदि ज्ञान की नगरी के लिए कोई राजपक्षी चुना जाता तो वह क्या होता? राजहंस, शुक, सारिका, वक या कुछ और? परन्तु त्सुकुबा का त्सुकुत्सुकू नामक राजपक्षी है एक उल्लू। वैसे तो जापान में पशु-पक्षी अधिक नहीं दिखते हैं, उस पर उल्लू तो वैसे भी रात में ही निकलते हैं सो हमने वहां सचमुच का एक भी उल्लू नहीं देखा मगर फिर भी वे थे हर तरफ। दुकानों, पार्कों, रेल और बस के अड्डे पर - चित्र, मूर्ति और कलाकृतियों के रूप में त्सुकुत्सुकू हर ओर मौजूद था।

विश्व विद्यालय परिसर का एक पार्क तो ऐसा लगता था जैसे उसी को समर्पित हो। इस उपवन में विचरते हुए शायर की निम्न पंक्तियाँ स्वतः ही जुबां पर आ गईं: हर शाख पे उल्लू बैठा है, अंजामे गुलिस्ताँ क्या होगा?

आइये देखें कुछ झलकियाँ त्सुकुबा के उलूकराज श्रीमान त्सुकुत्सुकू की।


1. परिवहन अड्डे पर श्रीमान त्सुकुत्सुकू

2. उलूकराज

3. विनम्र उल्लू

4. भोला उल्लू

5. दार्शनिक उल्लू

6. उल्लू परिवार

7. उल्लू के पट्ठे

8. जापान की दुकान में "मेड इन चाइना" उल्लू

9. और अंत में - दुनिया भर में प्रसिद्ध काठ के उल्लू

[Photographs by Anurag Sharma || सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा]