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Sunday, July 9, 2017

आह्वान या आवाहन? दोनों का अंतर

हिंदी के बहुत से शब्दों का दुरुपयोग होता है, अक्सर बोलने में उनके मिलते-जुलते होने के कारण। ऐसा ही एक उदाहरण आवाहन और आह्वान का भी है। जैसा कि पहले कह चुका हूँ, हिंदी के बहुत से शब्दों का सत्यानाश आलसी मुद्रकों और अज्ञानी सम्पादकों ने भी किया है। संयुक्ताक्षर को सटीक रूप से अभिव्यक्त करने वाले साँचे के अभाव में वे उन्हें ग़लत लिखते रहे हैं, ह्व, ह्य, ह्र आदि भी कोई अपवाद नहीं। आह्वान का ह्व न होने की स्थिति में वे कभी आहवान तो कभी आवाहन छाप कर काम चला लेते थे। इस शब्द पर लिखने की बात पहले भी कई बार मन में आई लेकिन हर बार किसी अन्य अधिक महत्वपूर्ण प्राथमिकता के कारण पीछे छूट गई। गत एक जुलाई को 'भारतीय नागरिक-Indian Citizen' की पोस्ट पर निम्न प्रश्न देखा तो आज लिखने का योग बना:

प्रश्न: आह्वान और आवाहन दोनों में अंतर है, क्या है मुझे इस समय बड़ा भ्रम है, कृपया बताएँ 

उत्तर: आह्वान एक पुकार, विनती, या ललकार है। मतलब यह कि आह्वान में बोलकर कहना प्रमुख है। जबकि आवाहन में किसी को आमंत्रित करने की क्रिया है। वाहन चलने-चलाने के लिये है, आवागमन का साधन है। आवाहन में आपके देव अपने वाहन से आकर आपके सामने स्थापित होते हैं। जबकि उससे पहले आप उनके आने का आह्वान कर सकते हैं। आह्वान आप देश की जनता का भी कर सकते हैं कि वह भ्रष्टाचार का विरोध करे। आव्हान एक वचन है जबकि आवाहन एक कर्म है। आह्वान में कथन है जबकि आवाहन में विचलन है।

Wednesday, May 25, 2011

मोड़ी (मुड़िया लिपि) - एक मृतप्राय लिपि?

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फरवरी 2011 में रतलाम के माणक चौक विद्यालय की स्थापना के 100 वर्ष पूर्ण होने के उपलक्ष्य में 1847 से 1947 तक के 101 वर्ष की पुस्तक प्रदर्शनी एवम् अन्य समारोह किये गये। उसी दौरान विद्यालय के पुस्तकालय में जब विष्णु बैरागी जी को देवनागरी और गुजराती से मिलती-जुलती लिपि में लिखी एक दुर्लभ सी पुस्तक दिखाई दी तो उन्होंने नगर के वृद्धजनों की सहायता मांगी। गुजरातियों ने उस भाषा/लिपि के गुजराती होने से इनकार कर दिया और मराठी भाषा के जानकारों ने उसके मराठी होने को नकार दिया। तब विष्णु जी ने उस पुस्तक के दो पृष्ठ स्थानीय अखबार में छपवाने के साथ-साथ अपने ब्लॉग पर भी रख दिये। "यह कौन सी भाषा है" नामक प्रविष्टि में उन्होंने हिन्दी ब्लॉगजगत से इस बारे में जानकारी मांगी।

एक नज़र देखने पर मुझे इतना अन्दाज़ तो हो गया कि यह देवनागरी की ही कोई भगिनी है। बल्कि लिपि देवनागरी से इतना मिल रही थी कि थोडा सा ध्यान देते ही कुछ शब्द यथा "वचनसार" और "भाग तीसरा" पढने में भी आ गये। एक स्थान पर मुम्बई समझ में आया तो इतना तय सा लगने लगा कि भाषा तो हिन्दी या मराठी ही है। इतने शब्द समझ आने पर आगे का काम कुछ और आसान हुआ। कुछ और स्वतंत्र शब्दों पर दृष्टिपात करने पर एक शब्द और समझ आया "कींमत" म से पहले की बिन्दी ने यह विश्वास दिला दिया कि भाषा मराठी ही थी। अभी तक मैं नागरी के दो सीमित रूपांतरों के बीच में अटका हुआ था - कायथी और मोड़ी। एक राजकीय कामकाज की लिपि थी जोकि मुख्यतः कायस्थ जाति में प्रचलन में रही थी और दूसरी मोड़ी या मुड़िया जिसे हम अज्ञानवश वणिक वर्ग की लिपि समझते रहे थे। मैंने अपने परनानाजी द्वारा बम्बैया फॉंट की देवनागरी में लिखी हिन्दी तो देखी थी परंतु मोड़ी या कायथी का कोई उदाहरण मेरी आँख से नहीं गुज़रा था।

मोड़ी और कायथी की खोज के लिये जब इंटरनैट खोजना चालू किया तो यह तय हो गया कि है तो यह मोड़ी ही। इस जानकारी के बाद काम और आसान हो गया। इंटरनैट पर मोड़ी के अंक, स्वर और व्यंजन तो मिले परंतु मात्रायें नहीं थीं। ऊपर से मराठी मेरी मातृभाषा नहीं है। और फिर वह पुस्तक भी सवा सौ वर्ष से अधिक पुरानी थी। तब भाषा का स्वरूप भी भिन्न हो सकता है। इस समय तक मेरे पास इतनी जानकारी इकट्ठी हो चुकी थी कि मैं अपने सहृदय मराठीभाषी मित्र श्री हर्षद भट्टे को तकलीफ दे सकता था। रात के 11 बजे थे। पिट्सबर्ग के निवासी हम दोनों ही पिट्सबर्ग से बाहर सुदूर विभिन्न राज्यों में थे। मैंने सारे लिंक उन्हें भेजे और हम दोनों अपने अपने फोन, कम्प्यूटर, कागज़, कलम आदि लेकर काम पर जुट गये।

आरम्भ किया लेखक के नाम से तो सामान्य बुद्धि, क्रमसंचय और संयोग के सूत्र जोडकर शब्द मिलाते-मिलाते एक ब्रिटिश पुस्तकालय की सूची से इतना पता लगा कि मोड़ी लिपि सिखाने के लिये मोड़ी वचनसार नाम की पुस्तक शृंखला लिखी गयी थी। लेखक का कुलनाम "पोद्दार" हमें पता लग चुका था परंतु उनके जिस दत्तनाम को हम लोग वयतिदेव समझ रहे थे वह वसुदेव निकला। इसके बाद तो पुस्तक के उन पृष्ठों में जितने वाक्य पूरे दिखे, हमने सारे पढ़ डाले और रात के एक बजे एक दूसरे को शुभरात्रि कहकर फोन रखा। जानकारी विष्णु जी तक पहुँचा दी।

मोड़ी क्या है और अब कहाँ है?

भारतीय ज्ञान और साहित्य की परम्परा मुख्यतः श्रौत रही है फिर भी ज्ञान को लिखे जाने के विवरण हैं। खरोष्ठी, ब्राह्मी आदि से आधुनिक भारतीय लिपियों तक की यात्रा सचमुच बहुत रोचक और उतार-चढ़ाव भरी रही है। लिपियों को उन्नत करने का काम दो स्तरों पर चलता रहा। मुख्य स्तर तो लिपि को विस्तृत करके उसे भाषा के यथासम्भव निकट लाने का श्रमसाध्य काम रहा। अधिकांश भारतीय लिपियों के आपसी अंतर और अब अप्रचलित अधिकांश लिपियों की सीमायें इस वृहत कार्य के साक्षी हैं। दूसरा स्तर लेखन के माध्यम पर निर्भर रहा। यहाँ नयी लिपियाँ शायद कम जन्मीं, परंतु स्थापित लिपियों में प्रयोगानुकूल परिवर्तन हुए। उदाहरण के लिए कील से बन्धे ताड़पत्रों पर लिखी जाने वाली ग्रंथ, मलयालम या उडिया लिपि में अक्षरों की गोलाई इसका एक उदाहरण है। इसके विपरीत शिलालेख और सिक्कों की लिपियाँ अक्सर सीधी रेखाओं और स्वतंत्र अक्षरों का प्रदर्शन करती हैं। तिब्बती लिपि और उड़िया लिपि के अक्षरों के अंतर इन लिपियों के माध्यमों के अंतर को भी उजागर करते हैं।

प्राचीन काल में जब लिपियों का प्रयोग मुख्यतः धार्मिक और शासकीय कार्यों के लिये हुआ तब पत्थरों पर राजाज्ञायें लिखते समय की लिपियाँ उस कार्य के उपयुक्त रही हैं। सिक्के, ताम्रपत्र या अन्य धातुओं जैसे कड़े माध्यमों की लिपियाँ उस प्रकार की रहीं। लेकिन कागज़-कलम का प्रयोग आरम्भ होने के बाद लेखन कभी भी कहीं भी तेज़ गति से किया जा सकता था। दुनिया भर में कातिब/पत्र लेखक जैसे नये व्यवसाय सामने आये। तब लिपियों के कुछ ऐसे रूपांतर हुए जिनमें गतिमान लेखन किया जा सके। इन प्रकारों को एक प्रकार से शॉर्टहैंड का पूर्ववर्ती भी कहा जा सकता है। लेखन के घसीट (कर्सिव) तरीके से एक लेखक अपनी कलम कागज़ से हटाये बिना तेज़ काम कर सकता था। नस्तालिक़/खते शिकस्ता, काइथी/कैथी और मोड़ी/मुड़िया लिपि इसी प्रकार की लिपियाँ थीं।

मोड़ी में देवनागरी से विशेष अंतर तो नहीं है। लगभग वही अक्षर और लगभग सभी स्वर। कुछ मात्राओं में लघु व दीर्घ का अंतर नहीं है। मात्राओं के रूप में यह परिवर्तन भी केवल इस कारण है कि कलम उठाये बिना वाक्य पूर्ण हो सके। कोई नुक़्ता नहीं, कोई खुली हुई मात्रा या अर्धाक्षर नहीं। इसकी एक और विशेषता यह थी कि इसके लेखक और पाठक को देवनागरी का ज्ञान होना अपेक्षित था क्योंकि मोड़ी की सीमाओं में जो कुछ लिखना सम्भव नहीं था उसके लिये देवनागरी का प्रयोग खुलकर होता था जैसा कि मोड़ी वचन सार के मुखपृष्ठ से ही ज़ाहिर है। माना जाता है कि सन् 1600 से 1950 तक मोड़ी ही मराठी की प्रचलित लिपि रही। टाइपराइटर, शॉर्टहैंड, छापेखाने आदि साधनों के आगमन से ही कर्सिव लिपियों के पतन का काल आरम्भ हो गया था और अब कम्प्यूटर के युग में शायद इन लिपियों का भविष्य संग्रहालयों और लिपि/भाषा-विशेषज्ञों के हाथों में सुरक्षित है।

स्पष्टीकरण
टिप्पणियाँ पढने के बाद इस लिपि के बारे में कुछ और स्पष्टीकरण देना ज़रूरी हो गया है अन्यथा कुछ भ्रम बने रह जायेंगे।
1. मात्रायें मोड़ी लिपि का अभिन्न अंग हैं।
2. मोड़ी और महाजनी दो अलग लिपियाँ हैं। महाजनी राजस्थान से पंजाब तक प्रचलित थी जबकि मोड़ी लिपि राजस्थान से महाराष्ट्र और कर्नाटक आदि तक।
3. मोड़ी लिपि केवल व्यापार या मुनीमी तक सीमित नहीं थी। मध्य-पश्चिम भारत में राजस्थान से महाराष्ट्र तक इसका प्रयोग हर क्षेत्र में होता था। मराठा साम्राज्य का बहुत सा पत्र-व्यवहार इस लिपि में है। सन 1950 तक मराठी की अधिकांश पुस्तकें मोड़ी में लिखी गयी थीं।
4. यह कूटलिपि नहीं है। इसका उद्देश्य गुप्त हिसाब-किताब या कूट संदेश नहीं था।
5. यह ऐसी संक्षिप्त लिपि भी नहीं है जैसी कि इंटरनैट चैट में प्रयुक्त होती है। हर शब्द देवनागरी जैसे ही लिखा जाता है।
6. मानक देवनागरी की तुलना में मोड़ी लिपि में लेखन अपेक्षाकृत गतिमान है परंतु लिपि की सीमायें हैं।
7. भारत के विभिन्न पुस्तकालयों और धार्मिक केन्द्रों जैसे श्रवणवेळगोला में मोड़ी लिपि के उदाहरण उपलब्ध हैं।
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सम्बंधित कड़ियाँ
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* श्री मोडी वैभव
* मोड़ी - विकिपीडिया
* यह कौन सी भाषा है (विष्णु बैरागी)
* मोड़ी लिपि का इतिहास (मराठी में)
* मोड़ी = जल्दी में लिखी हुई अस्पष्ट लिपि
* श्री केशवदास अभिलेखागार
* Modi script - Wikipedia
* Modi alphabet - Omniglot
* माणकचौक विद्यालय की पुस्तक प्रदर्शनी में मोड़ी पुस्तकें
* राजस्थान की प्रमुख बोलियाँ (प्रेम कुमार)

Thursday, June 19, 2008

अ से ज्ञ तक - From A to Z

क्या आप बता सकते हैं कि मराठी के द्नयानेश्वर, पंजाबी के ग्यानी जी, उर्दू के अन्जान, गुजराती के कृतग्नता और संस्कृत के ज्ञानपीठ में क्या समानता है? बोलने में न हो परन्तु लिखने में यह समानता है कि इन सभी शब्दों में संयुक्ताक्षर ज्ञ प्रयोग होता है।

भारतीय लिपियों में संभवतः सर्वाधिक विवादस्पद ध्वनि "ज्ञ" की ही है। काशी तथा दक्षिण भारत में इसकी ध्वनि [ज + न] की संधि जैसी होती है. हिन्दी, पंजाबी में यह [ग् + य] हो जाता है। गुजराती में यह [ग् + न] है और महाराष्ट्र के कुछ हिस्सों में [द् + य + न] बन जाता है। खुशकिस्मती से नेपाली भाषा ने इसके मूल स्वरुप को काफी हद तक बचा कर रखा है. संस्कृत में यह [ज्+ न्+अ] है, हालांकि कई बार विभिन्न अंचलों के लोग संस्कृत पढ़ते हुए भी मूल ध्वनि को विस्मृत कर अपनी आंचलिक ध्वनि का ही उच्चारण करते हैं।

ज्ञ युक्त शब्दों की व्युत्पत्ति भी देखें तो भी यह तो स्पष्ट हो ही जाता है कि इसकी प्रथम ध्वनि ज की है न कि द या ग की। उदाहरण के लिए ज्ञान का मूल ज (knowledge) है। इसी प्रकार यज्ञ का मूल यज धातु है।

यदि 'ज्ञान' शब्द का शुद्ध उच्चारण ढूँढा जाय तो यह कुछ कुछ 'ज्नान' जैसा सुनाई देगा। संज्ञा को 'संज्+ ना' पढ़ा  जायेगा, प्रज्ञा 'प्रज्ना' हो जायेगा और विज्ञान 'विज्नान' कहलायेगा। यदि आपने यहाँ तक पढ़ते ही उर्दू के "अन्जान" और संस्कृत के "अज्ञान" (उच्चारण: 'अज्नान') में समानता देख ली है तो कृपया अपने कमेन्ट में इसका उल्लेख अवश्य करें और मेरा नमस्कार भी स्वीकार करें। हिन्दी का ज्ञान सम्बन्धी शब्द समूह यथा जान, अन्जान, जानना आदि भी ज्ञान से ही निकला है। वैसे, मेरा विश्वास है कि अतीत की अंधेरी ऐतिहासिक गलियों में नोलेज (kn-क्न), नो (know), डायग्नोसिस (diagnosis), प्रॉग्नोसिस (prognosis), व नोम (gnome) आदि का सम्बन्ध भी इस ज्ञान से मिल सकता है।

मुझे पता है कि आपमें से बहुत से लोगों को मेरी बात पर यकीन नहीं हो रहा होगा। बचपन से पकड़ी हुई धारणाओं से बाहर आना आसान नहीं होता है। अगली बार जब भी आप ज्ञ लिखा हुआ देखें तो पायेंगे कि मूलतः यह ज ही है जिसके सिरे पर न भी चिपका हुआ है। बेहतर होगा कि एक बार खुद ही ज्ञ को अपने हाथ से लिखकर देखिये।

आपके सुझावों और विचारों का स्वागत है। यदि मेरी कोई बात ग़लत हो तो एक अज्ञानी मित्र समझकर क्षमा करें मगर गलती के बारे में मुझे बताएँ अवश्य। धन्यवाद!
Devanagari letters for Hindi, Nepali, Marathi, Sanskrit etc.


* हिन्दी, देवनागरी भाषा, उच्चारण, लिपि, व्याकरण विमर्श *
अ से ज्ञ तक
लिपियाँ और कमियाँ
उच्चारण ऋ का
लोगो नहीं, लोगों
श और ष का अंतर