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Monday, September 6, 2010

अनुरागी मन - कहानी भाग 3

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[चित्र अनुराग शर्मा द्वारा :: Photo by Anurag Sharma]

हर शाम की तरह वीरसिंह गुरुद्वारे से दादाजी के घर की ओर आ रहे थे। नई सराय के नारकीय वातावरण से अपने को निर्लिप्त करने के पूर्ण प्रयास करते हुए सायास अपने आपको भैंसों की दुम, आवारा कुत्तों की भौंक और गधों की लीद से कुशलतापूर्वक बचाते हुए चल रहे थे। अचानक एक जादू सा हुआ। मानो आसपास की सारी गन्दगी किसी चमत्कार की तरह अचानक मिट गयी हो। नई सराय की बासी गन्ध की जगह वातावरण में मलयाचल की सुगन्धि भर गयी। लगा जैसे क्षण भर में नई सराय का पूर्ण कायाकल्प हो गया । सौन्दर्य का झरना सा बहने लगा। उन्होंने नज़रें क्या उठाईं कि फिर हटा न सके।

उनके ठीक सामने एक अप्रतिम सौन्दर्य की मूरत दिखाई दी। उस एक अप्सरा के अतिरिक्त सब कुछ विलुप्त हो गया। और यह अप्सरा बचपन में सुनी दादी की कहानियों की रम्भा और उर्वशी जैसी त्रिलोकसुन्दरी होकर भी उनसे एकदम उलट थी। गर्दन तक कटे हुए आधुनिक बाल उसके स्कर्ट टॉप के एकदम अनुकूल थे। कुन्दन सी त्वचा और नीलम सी आंखें उस कोमलांगी को ऐसी अनोखी रंगत प्रदान कर रहे थे मानो किसी श्वेत-श्याम चित्र में अचानक ही रंग भर गये हों। उन्हें इस बात का बिल्कुल भी अहसास नहीं रहा कि वे कितनी देर तक अपने आसपास से बिल्कुल बेखबर होकर उस अप्सरा को अपलक देखते रहे थे। वे चौंककर होश में तब आये जब उनके कान में किसी बच्चे की आवाज़ सुनाई दी। देखा कि एक 6-7 वर्षीय बालक ने उस अप्सरा का हाथ खींचकर कहा, “क्या हुआ दीदी?”

अप्सरा का मुँह आश्चर्य से खुला हुआ था। उसके चेहरे पर छपे हुए अविश्वास के भाव देखकर उन्हें लगा कि शायद वह भी उन्हीं की तरह स्तम्भित रह गयी थी। उसने मिस्रीघुली वाणी में बच्चे से कहा, “कुछ भी तो नहीं।” और वीरसिंह की ओर एक मुस्कान बिखेरती हुई चली गयी। कुछ देर ठगे से खडे रहने के बाद वीरसिंह ने कनखियों से इधर-उधर का जायज़ा लिया तो पाया कि नई सराय का कारोबार हमेशा की तरह बेरोकटोक चल रहा था। किसी ने भी उन्हें वशीकृत होते हुए नहीं देखा था। वे घर आये तो दादी ने पूछा, “सब ठीक तो है न बेटा?”

“मुझे क्या हुआ है?” उन्होंने यूँ कहा मानो कुछ हुआ ही न हो। मगर तब तक दादी अन्दर चली गयी थीं, नज़र उतारने की सामग्री लेने के लिये।

रात का खाना खाकर सब सोने चले गये मगर वीरसिंह की आंखों में नीन्द कहाँ। सोचते रहे कि उन्होंने जो कुछ भी आज देखा था क्या वह सच था या केवल एक भ्रम। उनका ग्वाला कलुआ कहता है कि आसपास के गांवों के कुछ नौजवानों को किसी परी की आत्मा ने नियंत्रित कर लिया था। दिन ब दिन कमज़ोर होते गये और फिर पागल होकर मर गये। वीरसिंह को परी, आत्मा आदि के अस्तित्व में विश्वास नहीं है। लेकिन तब यह लड़की कौन थी? उस पर वह अनोखी रंगत, अनोखी आँखें और अनोखी आवाज़! इस लोक की तो नहीं हो सकती है वह। और उसकी वह अलौकिक स्मिति? सत्य का पता कैसे लगेगा?

दूर किसी रेडियो पर एक मधुर लोकगीत हवा में तैर रहा था। वीरसिंह उस अप्सरा के बारे में सोचते हुए गीत की सुन्दर शब्द-रचना के झरने में डूबने उतराने लगे।

छल बल दिखाके न कोई रिझा ले
पल्लू गिराके न कोई बुला ले
निकला करो न अन्धेरे उजाले
लाखों सौतन फिरत हैं नगरिया में
कोई भर ले न तोहे नजरिया में
नहीं जाना कुँवर जी बजरिया में


[क्रमशः]

Saturday, August 28, 2010

अनुरागी मन - कहानी भाग 2

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[चित्र अनुराग शर्मा द्वारा :: Photo by Anurag Sharma]


नोएडा के इस अपार्ट्मेंट की शामें इसी तरह गुज़रती थीं। बैठक में एक साथ बैठे ये तीनों मित्र ईर, बीर और फत्ते, रात के खाने की तैयारी करते करते अपने दिन भर के अनुभव एक दूसरे के साथ बांटते थे। बीच-बीच में एक दूसरे के हाल पर टीका-टिप्पणियाँ भी होती थीं।

तीनों में सबसे बडा फत्ते यानि फतहसिंह पास के ही अट्टा गाँव से था। किसान परिवार का बेटा। वकालत पढ़कर पहले तो दिल्ली के एक मशहूर वकील का सहायक बना और फिर आयकर विभाग में निरीक्षक हो गया। घर में पैसे की कमी पहले भी नहीं थी, अब तो अपनी मर्ज़ी का मालिक था।

ईर यानि अरविन्द कल्याणपुर कर्नाटक से था। पतला दुबला भला सा लड़का, बुद्धि और हास्य बोध का संगम। गणित में स्नातकोत्तर और संस्कृत का विद्वान। लम्बा कद, चौड़ा माथा, गौरांग और सुदर्शन। कमी ढूंढने निकलें तो शायद इतनी ही मिले कि सफाई के मामले में कभी-कभी थोड़ा सनक जाता था। उसकी उपस्थिति में किसी को भी जूते उतारे बिना घर में घुसने की इजाज़त नहीं है, फत्ते को भी नहीं जोकि दरअसल इस घर का मालिक है। ईर वैसे दिल का बहुत साफ है। सहायक स्तर की परीक्षा पास करके केन्द्रीय सचिवालय में नौकरी करने पहली बार उत्तर भारत के दर्शन करने अकेला आया है। इससे पहले उत्तर के नाम पर बचपन में अपने दादा-दादी के साथ तीर्थ यात्रा पर ही आया था। दिल्ली-नोएडा के बारे में सामान्य ज्ञान इतना विस्तृत है कि जंतर मंतर को अघोरपंथ का केन्द्र समझता था।

तीसरे बचे बीर यानी वीर सिंह! इतनी जल्दी भूल गये। वही जो इस कथा के आरम्भ में आपको नई सराय के विरामपुरे के अपने पैतृक निवास का वृत्तांत सुना रहे थे। उम्र में इन तीनों में सबसे छोटे, बाकी दोनों के स्नेह से लबालब भरे हुए। उस स्नेह का पूरा लाभ भी उठाते हैं। सबकी सुनते हैं मगर अपने दिल की कम ही बताते हैं। एक सरकारी बैंक में अधिकारी बनकर आये हैं। अब तीन अलग अलग ग्रहों के यह प्राणी एक साथ रहने कैसे आ गये इसकी भी एक लम्बी कहानी है मगर अभी मैं आपको उसमें नहीं उलझाऊँगा। फिलहाल खाना खाकर बड़े वाले दोनों वीरसिंह को कुछ सामाजिक होने का पाठ पढा रहे हैं और पृष्ठभूमि में पीनाज़ मसानी की आवाज़ में वीरसिंह का प्रिय गीत चल रहा है:

नहीं जाना कुँवर जी बजरिया में
कोई भर ले न तोहे नजरिया में

वैसे तो वीरसिंह केवल मुकेश के रोने धोने वाले गीत ही सुनते हैं मगर इस एक गीत से उन्हें विशेष लगाव है। बाकी दोनों मित्र उत्सुकता से इस का कारण जानना चाहते हैं। आज वीरसिंह ने उनके अनुरोध को मानकर वह कहानी सुनाना शुरू किया है और इस बहाने हमें भी विरामपुरा यात्रा पर लिये जा रहे हैं।
[क्रमशः]


आवाज़ पर "सुनो कहानी" का सौवाँ अंक: सुधा अरोड़ा की "रहोगी तुम वही", रंगमंच, दूरदर्शन और सार्थक सिनेमा के प्रसिद्ध कलाकार राजेन्द्र गुप्ता की ज़ुबानी

अनुरागी मन - कहानी भाग 1

चित्र: अनुराग शर्मा
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सडक के बीच जहाँ तहाँ पड़े कचरे और सड़क के किनारे लगे क़ूड़े के ढेरों की महक के बीच भिनभिनाती बड़ी-बड़ी मक्खियाँ। आवारा कुत्तों की चहलकदमी के बीच किसी अलौकिक शांति के धारक, घंटों तक एक ही जगह पर गर्दभासन में चुपचाप खडे गदहे। कच्चे खरंजे के मार्ग के दोनों ओर दोयम दर्ज़े की लाल-भूरी ईंटों से बनी टेढ़ी-मेढ़ी अनगढ दीवारें, बेतरतीब मकान और उनमें ज़बर्दस्ती बनाई हुई टेढ़ी-बुकची दुकानें। दरवाज़े पर बंधी बकरियाँ और राह में गोबर करती भैंसें। बेवजह माँ और बहन की गालियाँ बकते संस्कारहीन लोग। गन्दला पसीना टपकाते, बिना नहाये आदमी-औरतों के बीच आवाज़ लगाकर सामान बेचते इक्का दुक्का रेहड़ी वाले।

लेकिन नई सराय की पहचान इन बातों से नहीं थी। उसकी विशेषता थे विभिन्न प्रकार के नामपट्ट। वास्तविकता से दूर किसी कल्पनालोक में विचरती तख्तियाँ। उदाहरण के लिये भुल्ले की आटे की चक्की पर अग्रवाल फ्लोर मिल की तख्ती, धोबी के ठेले पर “दुनिया गोल ड्राई क्लीनर्स” का बोर्ड, भूरे कम्पाउंडर की दुकान पर डॉ. विष-वास एफ.आर.ऐस.ऐच. की पट्टी और इस्त्री वाले कल्याण के खोखे पर पुता हुआ दिल्ली प्रैस का नाम। गिल्लो मौसी कहती हैं कि पच्चीस साल पहले भी नई सराय इतनी ही पुरानी लगती थी। उनके शब्दों में ऐसी पुरानी-धुरानी और टूटी-फूटी बस्ती का नाम “नई” सराय तो किसी बौराये मतकटे ने ही रखा होगा।

ऐसी प्राचीन नई सराय के विरामपुरे में मेरा पैतृक घर था। गर्मियों की छुट्टियों में अक्सर वहाँ जाना होता था बाबा-दादी से मिलने के बहाने। पुरानी “नई सराय” का नाम भले ही विरोधाभासी हो, विरामपुरा मुहल्ला अपने नाम को पूरी तरह सार्थक करता था। यहाँ पर ज़िन्दगी मानो ज़िन्दगी से थककर विश्राम करने आती थी। अधिकांश घरों के युवा बेटे-बेटी पढ़ने-लिखने या दो जून की रोटियाँ कमाने के उद्देश्य से देश भर के बड़े नगरों की ओर निकले हुए थे। कुछेक नौजवान देशरक्षा का प्रण लेकर दुर्गम वनों और अजेय पर्वतों में डटे हुए थे। अपने व्यक्तिगत जीवन से निर्लिप्त उन गौरवान्वित सैनिकों के बच्चे अपनी गृहकार्य में कुशल, पर बच्चों के पालन पोषण में अल्पशिक्षित माताओं के भरोसे ऐंचकताने कपड़े पहने विरामपुरे की धूल भरी गलियों के झुरमुट में कन्चे खेलते और घरेलू गालियाँ सीखते या उनका अभ्यास करते हुए मिल जाते थे।कुछ घरों में इंजीनियरिंग या मेडिकल की तैयारी करते बच्चे भी थे। और कुछ घरों में इनसे कुछ बड़े बच्चे रोज़गार समाचार और नागरिक सेवा परीक्षा के गैस पेपर्स में अपना भविष्य ढूँढते थे। गर्मियों की छुट्टियों में हम जैसे प्रवासी पक्षी भी लगभग हर घर में दिख जाते थे। तो भी यदि मैं कहूँ कि कुल मिलाकर विरामपुरे में केवल रजतकेशी सेवानिवृत्त ही नियमित दिखते थे तो शायद गलत न होगा।

[क्रमशः]