Monday, January 26, 2009

सैय्यद चाभीरमानी और हिंदुत्वा एजेंडा

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हमेशा की तरह सुबह की सैर के लिए निकला। सामने से सैय्यद चाभीरमानी आते हुए दिखाई दिए। जब तक पहचान पाया, इतनी देर हो चुकी थी कि कहीं छिप न सका। लिहाजा उनके सामने पड़कर दुआ सलाम करनी पडी। मैंने कहा नमस्ते, उन्होंने जवाब में वालेकुम सलाम कहते हुए अपने हाथ का चाभी का गुच्छा मेरी ओर फुलटॉस करके फेंकने का उपक्रम किया। मैंने बरेली की झाँप देकर बगलें झाँकीं और इस बात पर मन ही मन खुश हुआ कि चोट खाने से बच गया। पागल आदमी का क्या भरोसा? क्या पता सचमुच ही यह भारी गुच्छा मेरे सर पर दे मारे।

"आज सुबह-सुबह किधर की सवारी है मियाँ?" मैंने रस्म-रिवाज़ के तौर पर पूछ डाला।

"जहन्नुम जाने की तय्यारी है, आप चलेंगे साथ?" सैय्यद ने अपनी जानी-पहचानी झुंझलाहट के साथ कहा, "...अजी यहाँ जान पर आ बनी है, इन्हें सवारी की पड़ी है।"

"सोच लो, हम तो ठहरे बुद्धपरस्त काफिर, साथ चल पड़े तो कहीं तुम्हारा पाक जहन्नुम नापाक न हो जाए?" मैंने भी चुटकी ली।

"क्यों तुमने भी हिंदुत्वा ब्रिगेड ज्वाइन कल्ली क्या? मियाँ तुम तो सेकुलर थे कल तलक।"

"अरे कल ही तो तुम्हारे मौलवी साहेब कह रहे थे कि सारे सेकुलर काफिर होते हैं, तुम्हीं ने तो बताया था..." हमने याद दिलाया।

"अमाँ, काफिर भी निभ जाते हैं और ये निगोड़े सेकुलर भी चल जाते हैं। पिराबलम तो हिंदुत्वा से है। अब देखो न, ये हिंदुत्वा वाले सब मिलकर हमारे मोहम्मद जुबैर भाई को दाढी बढ़ाने से रोक रहे हैं।"

हमें कुछ समझ नहीं आया। सोचा कि किसी नई सेना ने कोई नया फड्डा कर दिया होगा। एक तो अपनी जनरल नालेज पहले से इतनी गरीब है दूसरे रोजाना ही दो चार नयी सेनायें बन जाती हैं - शिव सेना, अली सेना, निर्माण सेना, तकरार सेना, बिगाड़ सेना, और अब लड़कियों पर वीरता दिखाने वाली श्रीराम सेना ... किस-किस का हिसाब रखा जाए।

सैय्यद चाभीरामानी ठहरे इन सेनाओं के चलते-फिरते साइक्लोपीडिया, सोचा उन्हीं से पूछ लेते हैं, "किस हिंदुत्वा की बात कर रहे हैं आप? कोई नई रथयात्रा शुरू हुई है क्या या एक और जन्मभूमि मुक्त कराने का मीजान है?"

आपके मुल्क में मुसलमानों पर इतने जुलुम ढाए जा रहे हैं, "अब देखो शबाना आपा को किराए पर घर नहीं मिलता क्योंकि वे मुसलमान हैं।"

"अरे घर तो हमें भी नहीं मिलता था, क्योंकि हम कुँवारे थे - रात-बिरात मुहल्ले में आने-जाने का डर था, बाद में इसलिए नहीं मिलता था क्योंकि हमारा भरा-पूरा परिवार था - घर पर कब्ज़ा कर लेने का डर था। अरे भई, जिसने घर बनाने में लाखों रुपया, मेहनत और समय लगाया है, उसका डर भी कुछ मायने रखता है या नहीं? वैसे एक बात बताइये... अभी तक शबाना आपा क्या पाकिस्तान में रहती थीं या किसी पाइप में रहती थीं?"

हमारी बात न सैय्यद की समझ में आयी न शबाना आपा की। बस बोलते रहे, "... हेमा मालिनी, अस्मिता पाटिल, माधुरी सब को चांस मिला, शबाना आपा को कोई चांस भी न मिला जब तक शमीम बंगाली नहीं आए।"

"मियाँ, वह श्याम बेनेगल हैं, शमीम बंगाली नहीं, ... चलो अगर यह बेतुकी बात मान भी लें तो सलमान खान, आमिर खान, शाहरुख खान के महलनुमा बंगलों के बारे में क्या राय है आपकी?"

"अरे, लाहौल विला कुव्वत. वो तो सब के सब काफिर हैं, कोई दिवाली मनाता है और कोई राखी बंधाता है। एक सोहेल खान था असली मुसलमान, उसे करा दिया न फ्लॉप आप लोगों ने साजिश करके?" सैय्यद का गुस्सा कम होने पर ही नहीं आ रहा था, "... और वैसे भी, इस वखत हम तुम्हारे सरकारी हिंदुत्वा की बात कर रहे हैं!"

"सरकारी हिंदुत्वा जैसी कोई चीज़ नहीं होती। भारत सरकार सेकुलर है।"

"अरे तुम्हारी सरकार और फौज सेकुलर होती तो जुबैर भाई की दाढ़ी के पीछे क्यों पड़ती?" सैय्यद अभी भी ऐंठे हुए थे।

"चलो हम चलते हैं तुम्हारे साथ जुबैर भाई की दाढ़ी बचाने, कहाँ रहते हैं वह?"

"अरे भाई वो हियाँ पे नहीं रहते, वो हैं आपके हिन्दुस्तान की हवाई फौज में ... साथ चलेंगे? ... बात करते हैं!"

अब मामला कुछ-कुछ समझ में आने लगा था। हमने कहा, "अगर सैनिक हैं तो सेना के नियमों को तो मानना पड़ेगा न?"

"अजी, यह कायदा क़ानून सब उन्हीं के लिए है क्या? आपके परधान मन्तरी ख़ुद भी तो दाढ़ी रखते हैं और जुबैर भाई पर हिंदुत्वा लगा रहे हैं।"

"अरे भैया, प्रधानमंत्री कोई सेना में थोड़े ही हैं। और फ़िर जुबैर भाई को दाढ़ी रखने से किसने रोका है? इस्तीफा देकर घर में बैठें और रखें 17 गज की दाढ़ी।"

"अरे जो ईमान के पक्के हैं, उलेमा का हर हुकम मानते हैं, वो कहीं भी रहें, दाढ़ी ज़रूर रखते हैं।" सैय्यद हमारी बात सुन थोड़े ही रहे थे।

"तो पाँच वक़्त की नमाज़ भी पढ़ते होंगे?" हमने पूछा।

"ज़रूर पढ़ते होंगे जब दाढी के इतने पक्के हैं तो" सैय्यद ने अपनी सफाचट काल्पनिक दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए कहा।

"कल को जहाज़ उडाते समय नमाज़ का वक़्त होगा तो जुबैर भाई आँखे बंद करके, जहाज़ छोड़ के नमाज़ पढ़ने लगेंगे? चाहे मर जाएँ जहाज़ समेत?"

"नहीं ऐसा तो नहीं करेंगे शायद" सैय्यद चाभीरामानी ज़िंदगी में पहली दफा विचारमग्न दिखे।

"अच्छा, दाढ़ी इस्लामी है, नमाज़ नहीं? बेहतर हो आप उन्हें समझाएँ कि वे या तो पक्के मुसलमान हो जाएँ या फ़िर पक्के सैनिक ही बने रहें, दो नावों पे सवार होने के चक्कर में अपने दोनों जहाँ क्यों बरबाद कर रहे हैं? वैसे तुम्हारी इस्लामी जम्हूरियत की फौज में किस जनरल के दाढ़ी थी, मुशर्रफ़ के, जिया-उल-हक़ के या ढाका में सरेंडर करने वाले जनरल नियाज़ी के?"

शायद उनकी समझ में आ गया कि इस विषय पर उनकी दाल नहीं गलने वाली। तो उन्होंने फ़टाफ़ट दाल बदल दी, "अच्छा चलो मान लिया कि तुम्हारे परधान मन्तरी और विलायत से आयी मैडम हिंदुत्वा वाले नहीं है - तो फ़िर उनके होते हुए तुम्हारे मुल्क में अलग मुस्लिम पर्सनल कोड की मुखालफत क्यों होती है?"

"आजाद देश में लोग किसी भी बात की मुखालफत कर सकते हैं - जभी तो आपके सगे, वो जुबैर मियाँ फौजी नियमों की मुखालफत कर पा रहे है। जहाँ तक मुस्लिम पर्सनल ला की बात है, तो चलो हमारे साथ। हम लड़ेंगे आपके मुस्लिम पर्सनल कोड के लिए, आप कहेंगे, तो हम आपके लिए मुस्लिम क्रिमिनल कोड के लिए भी लडेंगे - कितने उलेमा हैं आपके साथ जो कहें कि मुस्लिम अपराधियों के लिए अलग से शरिया अदालतें हों जो उन्हें सऊदी अरब और तालेबान की तरह पत्थर मार-मारकर मौत की सज़ा, हाथ काटने या तलवार से चौराहे पर सर कलम करने जैसी सजाएँ तजवीज़ करें?"

"अब भई, ये हमने कब कहा? मज़हब भी उतना ही पालना चाहिए जितना अफ्फोर्ड कर सकें ..." सैय्यद खिसियाते हुए से बोले, "पूरी बोतल थोड़ी पी जांगे दवा के नाम पे? हैं? बोलो?"

"अरे, किधर को खिसक लिए?" जब तक हम ढूंढ पाते, सैय्यद चाभीरामानी अपने चाभी के गुच्छे को दोनों हाथों से पकड़कर मुँह से ऐके-47 की तरह आवाजें निकालते हुए एक पतली गली में गुम हो गए।

बहुत सी बातें पूछने से रह गयीं। सोचता हूँ कि सैय्यद जब अगली बार मिलेंगे तब ज़रूर पूछूंगा जैसे कि -
  • धर्म के नाम पर अपना अलग पर्सनल ला मांगने वाले अपना अलग क्रिमिनल ला क्यों नहीं मांगते?
  • राखी बंधाने पर काफिर हो जाने वाले बैंक में पैसा रखकर सूद क्यों खाते हैं?
  • जिहाद को धर्मसंगत ठहराने वाले ज़कात को पूरी तरह से क्यों भूल जाते हैं?
  • पाकिस्तान इस्लामिक रिपब्लिक की एयरलाइन में शराब क्यों बाँटती है? क्या वह कुफ्र नहीं है?
  • अपने को अल्पसंख्यक कहने वाला देश का दूसरे नंबर का बहुसंख्यक समुदाय असली अल्पसंख्यकों जैसे यहूदी, पारसी, कश्मीर में ब्राह्मण, और आदिवासी अंचलों में आदिवासियों के प्रति इतनी बेरुखी और ज़ुल्म कैसे देख पाता है?
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Friday, January 23, 2009

केरल, नारी मुक्ति और नेताजी

जब मैं भारत में एक राष्ट्रीयकृत बैंक के शाखा स्वचालन विभाग में काम करता था तब काम के सिलसिले में अक्सर बहुत सी शाखाओं में आना जाना लगा रहता था। उसी सिलसिले में एक ऐसी शाखा में गया जिसके प्रबंध-प्रमुख का नाम था एन एस बोस।

मेरे साथी को शाखा प्रबंधकों और उच्च-अधिकारियों से नज़दीकी बनाने का काफी शौक था। होता अक्सर यूँ था कि मैं शाखा में जाकर सम्बंधित लोगों से वार्ता और कुछ काम-धाम करता था जबकि यह साथी शाखा-प्रमुख के दफ्तर में बैठकर उनसे बातचीत करके यह दिलासा दिलाता था कि उसके साथी लोग (यानी की मैं) भी ठीक-ठाक हैं और यदि कुछ काम बिगाड़ भी देंगे तो वे ख़ुद तो हैं ही न।

हमारे साथी के नाम में क्या रखा है मगर हमेशा की तरह इस बार भी सुविधा के लिए हम एक नाम ढूंढ लेते हैं। हम उन्हें रावण कहकर पुकारेंगे। तो रावण जी एन एस बोस के केबिन में घुस गए. अभी तक के सभी उच्चाधिकारी तो रावण के अपने राज्य या पड़ोसी राज्यों के होते थे सो उनको बात करने में काफी आसानी होती थी. अब एन एस बोस से वो क्या बात करें? मगर आप रावण को कम न समझें दस सर का मतलब दस जुबानें! उन्हें बांगला में भी कई वाक्य आते थे सो जाते ही उन्होंने टूटी-फूटी बँगला में बोस को एक मीठा सा मक्खन लगा वाक्य फेंककर मारा। मगर यह क्या, बोस जी तो पहली बाल में ही क्लीन बोल्ड। बोले, "सॉरी, मेरे को पंजाबी समझता नहीं।"

अब रावण जी को गुस्सा आ गया, "कैसे बोस हैं, बँगला को पंजाबी बोलते हैं?"

"ओह, अब समझा!"

अब बोस जी ने जो समझाया उससे पता लगा कि वे प्रभु की अपनी धरती केरल से हैं. राष्ट्रीय नायकों के नाम पर अपने बच्चों के नाम रखने की परम्परा को उदात करते हुए केरलवासियों ने अपने बच्चों के नाम स्वाधीनता सेनानियों और अन्य प्रसिद्द नायकों पर भी रखे हैं. वहाँ आपको, राम, गोविन्द, लक्षमण तो मिलेंगे ही इंदिरा गांधी भी मिलेंगी. इन एन एस बोस का पूरा नाम था - नेताजी सुभाषचन्द्र बोस.

बाद में तो हमें राम मनोहर लोहिया, बाल गंगाधर तिलक और जयप्रकाश नारायण भी मिले. आज नेताजी के जन्मदिन पर उनकी याद के साथ ही एक अरसे बाद यह घटना भी याद आयी तो आपके साथ बांटने को दिल किया.

इसी के साथ याद आया कि पराधीनता के उन दिनों में भी नेताजी जैसे नायकों ने देश की प्रगति में नारी के योगदान को बराबरी का महत्त्व दिया था. आज़ाद हिंद फौज में एक महिला रेजिमेंट भी थी जिसका नाम झांसी की वीरांगना के नाम पर "झांसी की रानी" रखा गया था. और उसकी प्रमुख थीं कर्नल डॉ. लक्ष्मी स्वामिनाथन.

उन सब वीरों को नमन जिन्होंने देश के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया और हमें भी घर बैठकर शिकायतें करते रहने के बजाय मैदान में उतरकर कुछ सकारात्मक करने की प्रेरणा दी.

Monday, January 19, 2009

जूता जैदी का इराक प्रेम - हीरो से जीरो

जान खतरे में डाले बिना हीरो बनने के नुस्खे के जादूगर अमरीकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश पर जूते फेंकने वाले इराक़ी पत्रकार मुंतज़र अल ज़ैदी जूताकार की तारीफ़ में काफी सतही पत्रकारिता पहले ही हो चुकी है। सद्दाम हुसैन और अरब जगत के अन्य तानाशाहों के ख़िलाफ़ कभी चूँ भी न कर सकने वाले इस पत्रकार को इस्लामी राष्ट्रों के सतही पत्रकारों ने रातों-रात जीरो से हीरो बना दिया। तानाशाहों के अत्याचारों से कमज़ोर पड़े दबे कुचले लोगों ने इस आदमी में अपना हीरो ढूंढा। क्या हुआ जो जूता किसी तानाशाह पर न चल सका, आख़िर चला तो सही।

मगर अब जब इस जूताकार पत्रकार मुंतज़र अल ज़ैदी की अगली चाल का खुलासा हुआ है तो उसके अब तक के कई मुरीदों को बगलें झाँकने पड़ रही हैं। स्विट्ज़रलैंड के समाचार पत्र ट्रिब्यून डि जिनेवा ने मुंतज़र अल ज़ैदी के वकील माउरो पोगाया के हवाले से बताया कि ज़ैदी बग़दाद में नहीं रहना चाहता है उसे इराक ही नहीं, दुनिया के किसी दूसरे इस्लामी राष्ट्र पर भी इतना भरोसा नहीं है कि वह वहाँ रह सके। इन इस्लामी देशों में उसे अपनी सुरक्षा को लेकर इतना अविश्वास है कि अब उसने स्विट्जरलैंड में शरण माँगी है।

उसके स्विस वकील पोगाया ने बताया कि ज़ैदी के रिश्तेदार उनसे मिले थे और वे उसकी तरफ़ से स्विट्ज़रलैंड में राजनीतिक शरण मांग रहे हैं। उन्होंने यह भी बताया कि जैदी के अनुसार इराक में उसकी ज़िंदगी नरक के समान है और वह स्विट्जरलैंड में एक पत्रकार का काम इराक से अधिक बेहतर कर सकेगा। जैदी की इस दरख्वास्त से यह साफ़ हो गया है कि कल तक इस्लामी जगत का झंडा फहराने का नाटक करने वाले की असलियत के पीछे इराक या सद्दाम का प्रेम नहीं बल्कि आसानी से यूरोप में राजनैतिक शरण लेने का सपना छिपा हुआ था। यहाँ यह भी ध्यान रखने योग्य बात है कि जैदी पहले ही इराकी प्रधानमंत्री को लिखे एक पत्र में जूता फेंकने की अपनी हरकत को शर्मनाक कहकर उनसे क्षमादान की अपील कर चुका है।