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जाके कभी न परी बिवाई की पहली कड़ी में आपने पढ़ा कि दिल्ली से आये वज्रांग ने बरेली की होली में बड़े उत्साह के साथ पहली बार मोर्चा लड़ा था. अब आगे पढ़ें...
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वज्रांग और उसके माता-पिता की छोटी सी दुनिया बहुत खूबसूरत थी. सब कुछ बढ़िया चल रहा था. पिता एक बैंक में काम करते थे जबकि माँ घर पर रहकर वज्रांग की देखभाल करती थीं.
इतवार का दिन था. उस दिन वज्रांग को हल्का सा बुखार था. उसके न करते-करते भी पिताजी तिलक नगर चौक तक चले गए उसके लिए दवा लेने. दस मिनट की कहकर गए थे मगर दरवाज़े की घंटी बजी चार घंटे के बाद. देखा तो दो पुलिसवाले खड़े थे. उन्होंने ही वह दुखद खबर दी.
***
ढोल-ताशे की आवाज़ ने याद दिलाया कि होली की वार्षिक राम बरात का जुलूस निकल रहा था. हम दोनों ने रूककर कुछ देर तक उस अनोखी रंग-बिरंगी शोभा-यात्रा का मज़ा लिया और फिर जल्दी-जल्दी घर की तरफ बढ़ने लगे. शाम को गुलाबराय के होली मिलाप के लिए रगड़-रगड़कर रंग जो साफ़ करना था. आज के दिन जल-व्यवस्था का भी कोई भरोसा नहीं था देर होगी तो शायद नहाने लायक पानी भी मुश्किल हो.
कुल्हाड़ा पीर के चौराहे पर एक मजमा सा लगा हुआ था. भीड़ के बीच में से इतना ही दिखा जैसे लाल अबीर में लिपटी हुई कोई मानव मूर्ति निश्चल पडी हो. भीड़ से पूछा तो किसी ने कहा, "लोट रहे हैं भंग के रंग में, होली है भैय्ये!" भीड़ में से ही किसी और ने जयकारा लगाया, "होलिका मैया की..." "जय" सारी भीड़ ने समवेत स्वर में कहा और अपने-अपने रस्ते लग गए.
रंगीन मूर्ति अब अकेली थी. वज्रांग उत्सुकतावश उधर बढ़ा तो मैंने हाथ पकड़कर उसे रोका, नशेड़ियों का क्या भरोसा, गाली वगैरा जैसे मौखिक अपमान तो उनके लिए सामान्य बात है, कभी कभार वे हिंसक भी हो उठते हैं.
वज्रांग मेरा हाथ छुडाकर मूर्ति के पास पहुँचा, और उसे पकड़कर हलके से हिलाया. मैं भी उसके पीछे-पीछे गया. मूर्ति ने एक बार आँखें खोलीं और फिर बिना कुछ कहे शान्ति से बंद कर लीं. वज्रांग ने दिखाया कि उसके सर के नीचे का लाल द्रव रंग नहीं रक्त था. तब तक मैंने मूर्ति के रंगों के पीछे छिपे चेहरे को पहचान लिया था. वह भग्गा दही वाला था. बजरिया के पीछे चौक में कहीं रहता था. वज्रांग ने पास से गुजरते हुए एक रिक्शे को हाथ देकर रोका और भग्गा के निढाल शरीर को रिक्शा पर चढाने लगा. उसका उद्देश्य समझकर मैंने भी सहायता की और उसे बीच में करके हम दोनों इधर-उधर बैठ गए. तभी मुझे उस तरफ का ही एक लड़का बरात से वापस आता दिखा तो मैंने उसे भग्गा के घरवालों को गंगवार नर्सिंग होम भेजने को कहा.
जब तक हम लोगों ने भग्गा को भर्ती कराया, उसके परिवार के लोग वहाँ पहुँच गए थे. कुछ ने उसे सम्भाला और बाकी हमसे सवालात करने लगे. मैंने देखा कि अभी तक इतना साहस दिखाने वाला वज्रांग एकदम से बहुत विचलित सा लगा. मैंने भग्गा के घरवालों को सारी बात बताई और वज्रांग को साथ लेकर घर आ गया.
शाम को होली मिलन के लिए तैयार होकर जब में वज्रांग को लेने पहुँचा तो भग्गा के बेटों को उसके घर से निकलते देखा. मुझे देखकर वे दोनों रुके और बताया कि भग्गा बिलकुल ठीक है. अगर हम दोनों उसे नहीं देखते तो शायद वह ज़्यादा खून बहने से ही मर गया होता. मरने की बात सुनते ही एक सिहरन सी दौड़ गयी.
वज्रांग अपने कमरे के एक कोने में ज़मीन बैठा था मोड़े हुए घुटनों को दोनों हाथों से घेरे हुए. उसने सर उठाकर मुझे देखा. गीली आँखों के बावजूद मुस्कुराने की कोशिश की. मैं साथ ही बैठ गया.
"भग्गा ठीक है..." उसने कठिनाई से कहा.
"हाँ!" मैंने उसे बताया कि मैं उसके बेटों से मिल चुका हूँ.
"मैं जानता हूँ कि सर से साया हटने का मतलब क्या होता है..." उसने रुक रुक कर किसी तरह कहा, "... एक महीने तक घर से नहीं निकल सका था मैं."
"एक महीने बाद तिलकनगर जाकर उन दुकानदारों से बात करने की हिम्मत जुटा पाया था. घातक हृदयाघात हुआ था पापा को.... और... उन दुकानदारों ने जो कहा उस पर आज भी यकीन नहीं आता है."
"... हमें क्या पता? हम समझे कोई पीकर पडा होगा... होश आयेगा तो उठकर घर चला जाएगा."
"ज़िंदगी भर सबके काम आने वाले मेरे पापा ने कभी किसी नशे को हाथ नहीं लगाया था."
[समाप्त]
Tuesday, February 9, 2010
Sunday, February 7, 2010
जाके कभी न परी बिवाई - कहानी
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रंग डालने का समय गुज़र चुका था. पिचकारियाँ रखी जाने लगी थी. फिर भी होली के रंग हर तरफ बिखरे थे लाल हरे लोगों के बीच सुनहरी या सफेदी पुते चेहरे भी हर तरफ दिख रहे थे. बरेली में यह समय था मोर्चा लड़ने का. मोर्चे की परम्परा कितनी पुरानी है पता नहीं मगर मोर्चा लड़ने के लिए लगभग हर घर में पीढ़ियों पुराना पीतल का हैण्ड पम्प मिल जाएगा. यह पम्प एक बड़ी परम्परागत पिचकारी जैसे होते हैं. एक बड़ी फूंकनी के भीतर एक छोटी फूंकनी. एक सिरे पर तीखी धार फेंकने के लिए पतला सा मुँह और दुसरे छोर पर जुड़ा हुआ एक लंबा सा रबड़ का पाइप जिसका दूसरा सिरा पानी से भरे लोहे के बड़े कढाह में डाल दिया जाता था. लोहे की वर्गाकार पत्तियों को जोड़कर बनाए हुए यह कढाह किसने बनाए थे यह भी मुझे नहीं मालूम मगर इतना मालूम है कि ये पूरा साल किसी नुक्कड़, चौक या चौराहे पर उपेक्षित से पड़े रहते थे, सिवाय एक दिन के.
धुलेड़ी यानी बड़ी होली वाले दिन बारह बजते ही हर ओर दो-दो लोग अपने-अपने पम्प लिए हुए मोर्चा लड़ते नज़र आते थे. दोनों खिलाड़ी अपनी आँख बचाकर अपने प्रतिद्वंद्वी की आँख को निशाना बनाते थे. जो मैदान छोड़ देता उसकी हार होती थी और उसकी जगह लेने कोई और आ जाता था. हमारा पम्प औरों से भिन्न था. ताम्बे का बना और काफी छोटा. हलके पम्प की धार दूसरे पम्पों जैसी जानलेवा नहीं थी. मगर उसे चलाना भी औरों से आसान था. यह इसी पम्प का कमाल था जो मैं मोर्चे में कभी भी नहीं हारा - सामने कोई भी महारथी हो.
वज्रांग के लिए यह सब नया था. वह दिल्ली से आया था. हम दोनों एक ही उम्र के थे. उसका दाखिला भी मेरे ही स्कूल में हुआ. वह खिलाड़ी भी था और पढ़ाकू भी. शिक्षकों का चहेता था लेकिन काफी गंभीर और अंतर्मुखी. जल्दी ही हम दोनों में दोस्ती भी हो गयी. उसके पिता नहीं थे. माँ एक सरकारी बैंक में काम करती थीं और ८-१० महीने पहले ही उनका तबादला बरेली में बड़ा बाज़ार शाखा में हुआ था. बरेली में यह उसकी पहली होली थी. वह बहुत ही उत्साहित था, खासकर हम लोगों को मोर्चा लड़ते देखकर. उसके उत्साह को देखकर मैंने जल्दी-जल्दी उसे पम्प का प्रयोग बताया. सामने एक दूसरा पम्प मांगकर पानी से आँख बचाने और सामने वाली आँख पर अचूक निशाना लगाने की तकनीक भी सिखाई. कुछ ही देर में वह अपनी बाज़ी के लिए तैयार था.
मोर्चे खेल-खेलकर जब हम दोनों के ही हाथ थक गए तब हमने घर की राह ली. वज्रांग बहुत खुश था. पहली बार उसने होली का ऐसा आनंद उठाया था. अपनी प्रकृति के उलट आज वह खूब बातें कर रहा था. उसने बताया कि उसके पिताजी के जाने के बाद से क्या होली, क्या दीवाली सब उत्सव बेमजा हो गए थे.
[क्रमशः]
रंग डालने का समय गुज़र चुका था. पिचकारियाँ रखी जाने लगी थी. फिर भी होली के रंग हर तरफ बिखरे थे लाल हरे लोगों के बीच सुनहरी या सफेदी पुते चेहरे भी हर तरफ दिख रहे थे. बरेली में यह समय था मोर्चा लड़ने का. मोर्चे की परम्परा कितनी पुरानी है पता नहीं मगर मोर्चा लड़ने के लिए लगभग हर घर में पीढ़ियों पुराना पीतल का हैण्ड पम्प मिल जाएगा. यह पम्प एक बड़ी परम्परागत पिचकारी जैसे होते हैं. एक बड़ी फूंकनी के भीतर एक छोटी फूंकनी. एक सिरे पर तीखी धार फेंकने के लिए पतला सा मुँह और दुसरे छोर पर जुड़ा हुआ एक लंबा सा रबड़ का पाइप जिसका दूसरा सिरा पानी से भरे लोहे के बड़े कढाह में डाल दिया जाता था. लोहे की वर्गाकार पत्तियों को जोड़कर बनाए हुए यह कढाह किसने बनाए थे यह भी मुझे नहीं मालूम मगर इतना मालूम है कि ये पूरा साल किसी नुक्कड़, चौक या चौराहे पर उपेक्षित से पड़े रहते थे, सिवाय एक दिन के.
धुलेड़ी यानी बड़ी होली वाले दिन बारह बजते ही हर ओर दो-दो लोग अपने-अपने पम्प लिए हुए मोर्चा लड़ते नज़र आते थे. दोनों खिलाड़ी अपनी आँख बचाकर अपने प्रतिद्वंद्वी की आँख को निशाना बनाते थे. जो मैदान छोड़ देता उसकी हार होती थी और उसकी जगह लेने कोई और आ जाता था. हमारा पम्प औरों से भिन्न था. ताम्बे का बना और काफी छोटा. हलके पम्प की धार दूसरे पम्पों जैसी जानलेवा नहीं थी. मगर उसे चलाना भी औरों से आसान था. यह इसी पम्प का कमाल था जो मैं मोर्चे में कभी भी नहीं हारा - सामने कोई भी महारथी हो.
वज्रांग के लिए यह सब नया था. वह दिल्ली से आया था. हम दोनों एक ही उम्र के थे. उसका दाखिला भी मेरे ही स्कूल में हुआ. वह खिलाड़ी भी था और पढ़ाकू भी. शिक्षकों का चहेता था लेकिन काफी गंभीर और अंतर्मुखी. जल्दी ही हम दोनों में दोस्ती भी हो गयी. उसके पिता नहीं थे. माँ एक सरकारी बैंक में काम करती थीं और ८-१० महीने पहले ही उनका तबादला बरेली में बड़ा बाज़ार शाखा में हुआ था. बरेली में यह उसकी पहली होली थी. वह बहुत ही उत्साहित था, खासकर हम लोगों को मोर्चा लड़ते देखकर. उसके उत्साह को देखकर मैंने जल्दी-जल्दी उसे पम्प का प्रयोग बताया. सामने एक दूसरा पम्प मांगकर पानी से आँख बचाने और सामने वाली आँख पर अचूक निशाना लगाने की तकनीक भी सिखाई. कुछ ही देर में वह अपनी बाज़ी के लिए तैयार था.
मोर्चे खेल-खेलकर जब हम दोनों के ही हाथ थक गए तब हमने घर की राह ली. वज्रांग बहुत खुश था. पहली बार उसने होली का ऐसा आनंद उठाया था. अपनी प्रकृति के उलट आज वह खूब बातें कर रहा था. उसने बताया कि उसके पिताजी के जाने के बाद से क्या होली, क्या दीवाली सब उत्सव बेमजा हो गए थे.
[क्रमशः]
Saturday, January 30, 2010
अग्नि समर्पण
बड़े दिनों के बाद सूरज इतना तेज़ चमका था। सब कुछ ठीक-ठाक था। सही मुहूर्त में बिस्मिल्लाह किया था। और गाडी वास्तुशास्त्र के हिसाब से एकदम सही दिशा में दौड़ने लगी थी। शुरूआत में यह कब सोचा था कि चार कदम चलकर गाड़ी पटरी से उतर जायेगी। माना कि ज़मीन थोड़ी ऊँची-नीची थी और हमारी ट्रेनिंग में थोड़ी कमी थी। मगर दिल में जोश होना चाहिए और वह भरपूर था।
सुनयना साथ ही बैठी थी। हमेशा की तरह बिफर उठी, "तुमसे तो कोई भी काम ठीक से नहीं होता है आजकल के बच्चे भी तुमसे बेहतर हैं। जो काम करने बैठते हो वही बिगाड़ देते हो... पिछले साल संगीत सम्राट तानसेन बनने का भूत सवार हुआ था। दो गिटार तोड़ डाले, एक तबला फाड़ दिया, और रहे वही बेसुरे के बेसुरे। उससे पहले कराते सीखने चले थे, पहले ही दिन टांग पर पलस्तर बंध गया। तैरने चले तो डूबते-डूबते बचे।"
"अरे मैंने जानबूझ कर तो ये सब नहीं किया न, थोड़ा अनगढ़ हूँ गलती हो जाती है" मैंने मायूस होकर कहा, "चलो इस बार आचार्य जी अचार वालों से सीख लेता हूँ।"
"अचार जी का ज़माना लद गया अब, किसी और को पकड़ो।"
"दुर दुर शौ डफर के बारे में क्या ख्याल है? काफी नाम सुना है उनका"
"रहे न वही बदाऊँ के लल्ला! कोई ग़दर थोड़े ही करानी है। अब तो कोई मोडर्न गुरु ढूंढना पडेगा।"
"मेरी समझ में तो कुछ नहीं आ रहा, तुम ही कोई सुझाव दो।"
"परजीवी दो कान के बारे में क्या ख्याल है? पीएचडी हैं। काफी कनेक्शन भी बिठाए हुए हैं उन्होंने।"
"कनेक्शन से हमें क्या?"
"समझा करो, बाद में कनेक्शन ही काम आते हैं - टीवी इंटरव्यू से लेकर पद्मश्री तक सब मिल जाती है कनेक्शन की बदौलत"
"बात तो सही है, मगर वे बेमतलब हमें शिष्य नहीं बनायेंगे. हर बार सोगवार जी कैसे रहेंगे?"
"सोगवार जी!!!" वह इतनी जोर से उछली मानो साक्षात भगवान् सामने आ गए हों, "उन्हें जानते हो क्या?"
"कब की जान पहचान है हमारी, रोज़ मेरे पास आकर कहते थे कि कविता में उनकी जान बसती है। एक दिन जब फूट-फूटकर रोने लगे तो आखिर तंग आकर एक महफ़िल में मैंने कविता से उनका परिचय करा दिया।"
"अच्छा, फिर क्या हुआ।"
"होना क्या था, अन्ताक्षरी चल रही थी, सोगवार जी कविता को देखकर तरन्नुम में आ गए और गुनगुनाने लगे - होठों से छू लो तुम... कविता ने कहा - न बाबा न, दूर से ही सिगरेट की बास आती है - बात दिल को लग गयी। तुरंत छोड़ दी।"
"क्या? सिगरेट?"
"अरे सिगरेट नहीं, कविता की उम्मीद छोड़ दी। बस बन गए आलोचक। और तब से कवियों की छाती पर मूंग दल रहे हैं।"
"यह तो बहुत बुरा हुआ। दुर्घटनाग्रस्त होकर सड़क पर उल्टी पडी गाड़ी जैसी आपकी इस बेबहर ग़ज़ल की मरम्मत कौन करेगा अब?"
"अरे छोड़ो भी, एक से बढ़कर एक कवि बैठे हैं हिन्दी ब्लॉग-जगत में, हम भी बस उन्हें पढ़कर आनंदित हो लेंगे।"
"हाँ यही ठीक रहेगा" वह चहकी, "...रस-भंग होने से बच जाएगा।"
उसने चैन की साँस ली और हमारी कविताओं (?) की डायरी अंगीठी में झोंककर हाथ तापने लगी।
सुनयना साथ ही बैठी थी। हमेशा की तरह बिफर उठी, "तुमसे तो कोई भी काम ठीक से नहीं होता है आजकल के बच्चे भी तुमसे बेहतर हैं। जो काम करने बैठते हो वही बिगाड़ देते हो... पिछले साल संगीत सम्राट तानसेन बनने का भूत सवार हुआ था। दो गिटार तोड़ डाले, एक तबला फाड़ दिया, और रहे वही बेसुरे के बेसुरे। उससे पहले कराते सीखने चले थे, पहले ही दिन टांग पर पलस्तर बंध गया। तैरने चले तो डूबते-डूबते बचे।"
"अरे मैंने जानबूझ कर तो ये सब नहीं किया न, थोड़ा अनगढ़ हूँ गलती हो जाती है" मैंने मायूस होकर कहा, "चलो इस बार आचार्य जी अचार वालों से सीख लेता हूँ।"
"अचार जी का ज़माना लद गया अब, किसी और को पकड़ो।"
"दुर दुर शौ डफर के बारे में क्या ख्याल है? काफी नाम सुना है उनका"
"रहे न वही बदाऊँ के लल्ला! कोई ग़दर थोड़े ही करानी है। अब तो कोई मोडर्न गुरु ढूंढना पडेगा।"
"मेरी समझ में तो कुछ नहीं आ रहा, तुम ही कोई सुझाव दो।"
"परजीवी दो कान के बारे में क्या ख्याल है? पीएचडी हैं। काफी कनेक्शन भी बिठाए हुए हैं उन्होंने।"
"कनेक्शन से हमें क्या?"
"समझा करो, बाद में कनेक्शन ही काम आते हैं - टीवी इंटरव्यू से लेकर पद्मश्री तक सब मिल जाती है कनेक्शन की बदौलत"
"बात तो सही है, मगर वे बेमतलब हमें शिष्य नहीं बनायेंगे. हर बार सोगवार जी कैसे रहेंगे?"
"सोगवार जी!!!" वह इतनी जोर से उछली मानो साक्षात भगवान् सामने आ गए हों, "उन्हें जानते हो क्या?"
"कब की जान पहचान है हमारी, रोज़ मेरे पास आकर कहते थे कि कविता में उनकी जान बसती है। एक दिन जब फूट-फूटकर रोने लगे तो आखिर तंग आकर एक महफ़िल में मैंने कविता से उनका परिचय करा दिया।"
"अच्छा, फिर क्या हुआ।"
"होना क्या था, अन्ताक्षरी चल रही थी, सोगवार जी कविता को देखकर तरन्नुम में आ गए और गुनगुनाने लगे - होठों से छू लो तुम... कविता ने कहा - न बाबा न, दूर से ही सिगरेट की बास आती है - बात दिल को लग गयी। तुरंत छोड़ दी।"
"क्या? सिगरेट?"
"अरे सिगरेट नहीं, कविता की उम्मीद छोड़ दी। बस बन गए आलोचक। और तब से कवियों की छाती पर मूंग दल रहे हैं।"
"यह तो बहुत बुरा हुआ। दुर्घटनाग्रस्त होकर सड़क पर उल्टी पडी गाड़ी जैसी आपकी इस बेबहर ग़ज़ल की मरम्मत कौन करेगा अब?"
"अरे छोड़ो भी, एक से बढ़कर एक कवि बैठे हैं हिन्दी ब्लॉग-जगत में, हम भी बस उन्हें पढ़कर आनंदित हो लेंगे।"
"हाँ यही ठीक रहेगा" वह चहकी, "...रस-भंग होने से बच जाएगा।"
उसने चैन की साँस ली और हमारी कविताओं (?) की डायरी अंगीठी में झोंककर हाथ तापने लगी।
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