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माँ जुटी हुई हैं संघर्ष में। रसोई की टोटी आज फिर से बहने लगी है शायद। घर चाहे कितना भी बड़ा हो। घर का मालिक भी चाहे जितना बड़ा हो। अमेरिका में यह सारे काम स्वयं ही करने होते हैं। यह टोटी पहले भी कभी खराब ज़रूर हुई होगी लेकिन सच यह है कि तब हमें कभी इसका पता न चला। डैडी यहाँ थे तब माँ को घर-बाहर किसी बात की चिंता करने की ज़रूरत ही नहीं थी। तब तो शायद माँ को यह भी पता नहीं था कि ये चीज़ें कभी खराब होती भी हैं।
जब तक माँ और मैं सोकर उठते थे, डैडी नहा-धोकर, ध्यान करके या तो अखबार पढ रहे होते थे या उसके बाद अपनी ईमेल आदि देखते थे। बोलते वे कम ही थे मगर अपनी सुबह की चाय बनाने से लेकर बाकी सब काम भी ऐसे दबे पाँव करते थे कि कहीं गलती से भी हमारी नींद में खलल न पडे।
जब मैं तैयार हो जाती तब वे मुझे अपनी कार में लेकर स्कूल छोड़ने जाते थे। उस समय मैं उनसे ढेर सारी बातें करती थी। उस समय वे भी अन्य वक़्तों जैसे शांत और चुप्पा नहीं रहते थे। लगता था जैसे डैडी किसी और आदमी से बदल गये हों। स्कूल की छुट्टी होने पर वे मुझे लेने आ जाते थे। मुझे घर छोड़कर वे वापस अपने काम पर चले जाते थे। डैडी अस्पताल में थे या स्टील मिल में? क्या करते थे? यह मुझे तब ठीक से नहीं पता था। लेकिन इतना पता था कि जब वे शहर में होते थे तब ज़रूरत पड़ने पर किसी भी समय उन्हें घर बुलाया जा सकता था। लेकिन बीच-बीच में वे काम के सिलसिले में नगर से बाहर की यात्रायें भी करते थे। कभी-कभी वे विदेश भी चले जाते थे और हफ्तों तक हमें दिखाई नहीं देते थे। उनकी कोई भी यात्रा पहले से तय नहीं होती थी। किसी भी दिन चले जाते थे और किसी भी दिन वापस आ जाते थे। उनकी वापसी के बाद ही ठीक से पता लगता था कि कहाँ-कहाँ गये थे।
डैडी यूरोप में कहीं गये हुए थे। पाँच साल की छोटी सी मैं खिड़की में बैठी अपनी गुड़ियों से खेल रही थी कि मुझे उनकी कोई बात याद आयी। मेरे मन में एकदम यह विचार आया कि मेरे डैडी हमारे घर के महात्मा बुद्ध हैं, जानकार और शांत। मैं यह बात सोच ही रही थी कि उन्होंने घर में प्रवेश किया। लपककर मुझे गोद में उठाया तो मैंने खुश होकर कहा, “डैडी, आप न, बिल्कुल भगवान बुद्ध ही हो। फर्क बस इतना है कि भगवान बुद्ध बहुत ज़्यादा बुद्धिमान हैं और आप उतने बुद्धिमान नहीं हैं।“
डैडी ने वैरी गुड कहकर मुझे चूम लिया। कुछ ही देर में उनके सूटकेस से मेरे लिये उपहारों की झड़ी लगने लगी, जैसे कि हमेशा होता था। माँ कुछ खुश नहीं दिख रही थी। घर में कुछ तो ऐसा चलता था जिसे मैं समझ नहीं पाती थी। माँ शायद डैडी के जॉब से अप्रसन्न रहती थीं। वे चाहती थीं कि डैडी भी आस-पड़ोस के पुरुषों की तरह हमेशा शहर में ही रहने वाली कोई नौकरी करें।
डैडी जब फोन पर अपने काम की बात कर रहे होते थे तब कमरा अन्दर से बन्द रहता था। बाकी समय उनके कमरे में जाना एक रोमांचक अनुभव होता था। घर के अन्दर भी उनके कमरे की अलमारियाँ और दराजें सदैव तालाबन्द रहती थीं। कभी-कभी मैं उनका रहस्य जानने के लिये चुपके से उनके कमरे में चली जाती थी और वे अपना सब काम छोड़कर लपककर मुझे गोद में उठा लेते थे।
[क्रमशः]
माँ जुटी हुई हैं संघर्ष में। रसोई की टोटी आज फिर से बहने लगी है शायद। घर चाहे कितना भी बड़ा हो। घर का मालिक भी चाहे जितना बड़ा हो। अमेरिका में यह सारे काम स्वयं ही करने होते हैं। यह टोटी पहले भी कभी खराब ज़रूर हुई होगी लेकिन सच यह है कि तब हमें कभी इसका पता न चला। डैडी यहाँ थे तब माँ को घर-बाहर किसी बात की चिंता करने की ज़रूरत ही नहीं थी। तब तो शायद माँ को यह भी पता नहीं था कि ये चीज़ें कभी खराब होती भी हैं।
जब तक माँ और मैं सोकर उठते थे, डैडी नहा-धोकर, ध्यान करके या तो अखबार पढ रहे होते थे या उसके बाद अपनी ईमेल आदि देखते थे। बोलते वे कम ही थे मगर अपनी सुबह की चाय बनाने से लेकर बाकी सब काम भी ऐसे दबे पाँव करते थे कि कहीं गलती से भी हमारी नींद में खलल न पडे।
जब मैं तैयार हो जाती तब वे मुझे अपनी कार में लेकर स्कूल छोड़ने जाते थे। उस समय मैं उनसे ढेर सारी बातें करती थी। उस समय वे भी अन्य वक़्तों जैसे शांत और चुप्पा नहीं रहते थे। लगता था जैसे डैडी किसी और आदमी से बदल गये हों। स्कूल की छुट्टी होने पर वे मुझे लेने आ जाते थे। मुझे घर छोड़कर वे वापस अपने काम पर चले जाते थे। डैडी अस्पताल में थे या स्टील मिल में? क्या करते थे? यह मुझे तब ठीक से नहीं पता था। लेकिन इतना पता था कि जब वे शहर में होते थे तब ज़रूरत पड़ने पर किसी भी समय उन्हें घर बुलाया जा सकता था। लेकिन बीच-बीच में वे काम के सिलसिले में नगर से बाहर की यात्रायें भी करते थे। कभी-कभी वे विदेश भी चले जाते थे और हफ्तों तक हमें दिखाई नहीं देते थे। उनकी कोई भी यात्रा पहले से तय नहीं होती थी। किसी भी दिन चले जाते थे और किसी भी दिन वापस आ जाते थे। उनकी वापसी के बाद ही ठीक से पता लगता था कि कहाँ-कहाँ गये थे।
डैडी यूरोप में कहीं गये हुए थे। पाँच साल की छोटी सी मैं खिड़की में बैठी अपनी गुड़ियों से खेल रही थी कि मुझे उनकी कोई बात याद आयी। मेरे मन में एकदम यह विचार आया कि मेरे डैडी हमारे घर के महात्मा बुद्ध हैं, जानकार और शांत। मैं यह बात सोच ही रही थी कि उन्होंने घर में प्रवेश किया। लपककर मुझे गोद में उठाया तो मैंने खुश होकर कहा, “डैडी, आप न, बिल्कुल भगवान बुद्ध ही हो। फर्क बस इतना है कि भगवान बुद्ध बहुत ज़्यादा बुद्धिमान हैं और आप उतने बुद्धिमान नहीं हैं।“
पिट्सबर्ग का एक दृश्य |
डैडी जब फोन पर अपने काम की बात कर रहे होते थे तब कमरा अन्दर से बन्द रहता था। बाकी समय उनके कमरे में जाना एक रोमांचक अनुभव होता था। घर के अन्दर भी उनके कमरे की अलमारियाँ और दराजें सदैव तालाबन्द रहती थीं। कभी-कभी मैं उनका रहस्य जानने के लिये चुपके से उनके कमरे में चली जाती थी और वे अपना सब काम छोड़कर लपककर मुझे गोद में उठा लेते थे।
[क्रमशः]
उत्सुकता जगा गयी है कहानी। अगली कड़ी शीघ्र ही प्रकाशित कर दें।
ReplyDeleteपरतें खुलेगीं बन्द कमरों की, प्रतीक्षा रहेगी।
ReplyDeleteऐसा क्यों? पूरी कहानी क्यों नहीं?? आगे का इंतज़ार है.. कहानी बहुत अच्छी लग रही है..
ReplyDeleteरोचक ...
ReplyDeleteजिज्ञासा जगाने और बनाए रखने के लिए (या कि अपने पाठकों को परेशान किए रहने के लिए) आप पहचाने और सराहे जाते हैं।
ReplyDeleteप्रतीक्षा करने क सिवाय हम लोग कर ही क्या सकते हैं। 'इन्तजार का मजा' प्रदान करने के लिए शुक्रिया।
koi gahara bhed hoga...
ReplyDeleteशुरुआत तो अच्छी है, उत्सुकता जाग गयी है
ReplyDeleteThoda intijaar ka maja leejaye......
ReplyDeleteki jab sham hai itnee matwali to subah ka alam kiya hoga..........
jai baba banaras.......
रहस्यमय डैडी....
ReplyDeleteअच्छी शुरुआत है....कहानी ने पकड़ बना रखी है....आगे का इंतज़ार
ReplyDelete"माँ कुछ खुश नहीं दिख रही थी। घर में कुछ तो ऐसा चलता था जिसे मैं समझ नहीं पाती थी।"
देखना है..मुझे जो समझ आ रहा है..वैसा ही कुछ है या कुछ और....
अब आगे .............
ReplyDeleteरोचक ....हमेशा की तरह इंतज़ार
ReplyDeleteमोहसिन रिक्शावाला
आज कल व्यस्त हू -- I'm so busy now a days-रिमझिम
अब, जब तक अगली कड़ी आप प्रकाशित नहीं कर देत न जाने आगे की कहानी किस किस रूप में दिमाग में बन जाएगी | आगे की कहानी जरा जल्दी प्रकाशित करे |
ReplyDeleteएक सोच सी चलने लगी है..आगे क्या है इस कहानी में....प्रतीक्षा है...
ReplyDeleteआगे का इंतज़ार है..
ReplyDeleteविष्णु बैरागी जी की टिप्पणी बहुत अच्छी है:) अब हम अलग से क्या कहें, शुक्रिया हमारी तरफ़ से भी।
ReplyDeleteविष्णु बैरागी जी की टिप्पणी बहुत अच्छी है:) अब हम अलग से क्या कहें, शुक्रिया हमारी तरफ़ से भी।
ReplyDeleteकहानी रोचक लगती है। पूरा एकसाथ पोस्ट कर देते तो अच्छा होता। जिसे पढ़ना होता पूरा पढ़ता जिसे नहीं, किश्तों में पढ़ लेता।
ReplyDeleteअच्छा लगा इस शुरुआत को पढ़कर....इंतजार आगे का....
ReplyDeleteकुल्हाड़ी पर पैर मारने सरीखा काम किया है हमने.. कहानी देखते ही नीचे से देखना शुरू किया.. देखा क्रमशः लिखा है... लेकिन यही तो कमाल है इस शब्द का.. "दिल को खेंचे लिए जाता है कोइ" की तर्ज़ पर खिंच गए..
ReplyDelete(क्रमशः)
अगला भाग अवश्य पढूंगा. अच्छी लग रही है कहानी.
ReplyDeleteउत्सुकता रहेगी यह जानने की कि इस रहस्य का ऊंट किस करवट बैठता है.
ReplyDeleteटुटी तो हमारे बाथरुम की भी टप टप कर रही हे... अब इसे मै ही ठीक करुंगा, साथ मे बच्चो को भी बुला लेता हुं बहाने से... ताकि वो भी सीख जाये,सच कहा यहां सभी काम खुद ही करने पडते हे...
ReplyDeleteलेकिन पापा ने हर जगह ताले लगा रखे हे?पापा हे या जेमस बांड:) रोचक .. मिलते हे ब्रेक के बाद
आगे की प्रतीक्षा रहेगी.....
ReplyDeleteबहुत रोचक ...
ReplyDeleteअगली कड़ी आने तक खुद को रोका था --आज पूरी कहानी पढ़कर बहुत अच्छा लगा ---रोचक !
ReplyDeleteकहानी का आगाज पढकर लगता है कि नए आयाम जुडेंगे कहानी से.रोचक प्लाट है,और परिवेश कुछ पहचाना सा.
ReplyDeleteउत्सुकता बढ़ गई है क्या होगा अगली कड़ी में.
jabardast, tukde bhi jabardast.
ReplyDeletemaine bhi yaad kiya.
मेरा बाप मुझमे जिन्दा है
हो मामला हल्का-फुल्का या विषय गंभीर हो
घर की हो तकलीफ कोई, या पराई पीर हो
हर बुरे की करता निंदा है
मेरा बाप मुझमे जिन्दा है
व्यापार में मुनाफा हो, चाहे जितना घाटा हो
बच्चों को प्यार किया, चाहे भर दम डांटा हो
वो मेहनतकश परिंदा है
मेरा बाप मुझमे जिन्दा है
अवसाद से वो ग्रस्त हो, उन्माद में आसक्त हो
कर रहा हो बन्दगी, या पीकर पूरा मस्त हो
हर दम प्रभु का बन्दा है
मेरा बाप मुझमे जिन्दा है
हो मदभरी संध्या, या नीला आसमान हो
कठिनाइयों के दौर हों या सफ़र आसान हो
बस जोखिम भी शर्मिंदा है
मेरा बाप मुझमे जिन्दा है
आगे का इंतजार है.
ReplyDeleteइस बीच समय निकाल मेरे ब्लॉग पर भी आइयेगा.आपका हार्दिक स्वागत है.
आपका ब्लॉग पसंद आया....
ReplyDeleteकभी फुर्सत मिले तो नाचीज़ की दहलीज़ पर भी आयें-
http://pravingullak.blogspot.com
कहानी रोचक बन पड़ी है।अगली कड़ी के लिए प्रतीक्षारत हूॅं। आशा है, शीघ्र ही पढ़ने को मिलेगा 🙏🙏
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