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बचपन से हम यह सुनते आये हैं कि पैसा हाथ का मैल है। बाद में एक मिलती-जुलती कहावत और सुनने में आने लगी: पैसे से खुशी नहीं खरीदी जा सकती है। बहुत सी अन्य आधारहीन बातों की तरह हम भोले-भाले लोगों में से कई इस बात पर भी यक़ीन करने लगे।
वैसे तो ऐसी अफवाह ज़रूर विदेश से ही आयी होगी क्योंकि लक्ष्मीनारायण के पूजक आस्तिक भारतीय तो ऐसी बातें नहीं फैला सकते। रहे नास्तिक, वे तो अपने स्वयम् के अस्तित्व पर भी विश्वास नहीं करते भला ऐसी अविश्वसनीय बात कैसे मान लेते। मगर फिर भी यह अफवाह विभिन्न रूपों में फेसबुक पर काफी लोगों का स्टेटस वाक्य बनी। आज के युग में श्री, समृद्धि और धन की उपयोगिता से कोई इनकार नहीं कर सकता है। सामान्य अवलोकन से ही यह पता लग जाता है कि धनाभाव किस प्रकार दुख का कारण बनता है। मतलब यह कि धन के घटने-बढने से आमतौर पर व्यक्ति की खुशी का स्तर भी घटता बढता रहता है।
न्यू जर्सी के प्रिंसटन विश्वविद्यालय में अब विशेषज्ञों ने वार्षिक आय की एक ऐसी जादुई संख्या का पता लगाया है जिसके बाद व्यक्तिगत प्रसन्नता पर सम्पन्नता का प्रभाव घटने लगता है। उन्होंने इस संख्या का निर्धारण अमेरिका के कारकों के हिसाब से किया है। अन्य देशों के स्थानीय अंतरों के कारण वहाँ यह संख्या भिन्न हो सकती है परंतु सिद्धांत लगभग वही रहेगा।
अनुसन्धानकर्ताओं ने प्रसन्नता के दो रूप माने, भावनात्मक और भौतिक। सन 2008 व 2009 के दौरान साढे चार लाख से अधिक अमरीकियों पर किये गये इस अनुसन्धान के बाद निष्कर्ष यह निकला कि बढती आय के साथ-साथ दोनों प्रकार की प्रसन्नता बढती जाती है। परंतु 75,000 डॉलर वार्षिक के जादुई अंक के बाद आय संतोष की मात्रा तो बढाती रहती है परंतु प्रसन्नता की मात्रा में कोई इजाफा नहीं कर पाती। जबकि 75,000 से कम आय पर दोनों प्रकार की खुशियाँ आय के अनुपात में न्यूनाधिक होती रहती हैं। आय अधिक होने से लोग अपने स्वास्थ्य को भी अच्छा रख सके जो अंततः अधिक प्रसन्नता का कारक बना परंतु उसकी भी सीमायें रहीं। इसी प्रकार व्यक्तिगत सम्बन्धों में आये बदलाव, तलाक़ आदि के कारक और परिणाम की सहनशक्ति पर भी आय के अनुसार प्रभाव पडा।
कुल मिलाकर - पैसा खुशी देता है, परंतु एक निश्चित सीमा तक ही जो कि व्यक्तित्व, देश और काल पर निर्भर करती है।
17 मई को हमारे वरिष्ठ कवि और ब्लोगर श्री सत्यनारायण शर्मा "कमल" जी की पत्नी की पुण्यतिथि है। हमारी संवेदनाएं उनके साथ हैं।
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सम्बन्धित कड़ियाँ
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सब माया है - इब्न-ए-इंशा
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बचपन से हम यह सुनते आये हैं कि पैसा हाथ का मैल है। बाद में एक मिलती-जुलती कहावत और सुनने में आने लगी: पैसे से खुशी नहीं खरीदी जा सकती है। बहुत सी अन्य आधारहीन बातों की तरह हम भोले-भाले लोगों में से कई इस बात पर भी यक़ीन करने लगे।
वैसे तो ऐसी अफवाह ज़रूर विदेश से ही आयी होगी क्योंकि लक्ष्मीनारायण के पूजक आस्तिक भारतीय तो ऐसी बातें नहीं फैला सकते। रहे नास्तिक, वे तो अपने स्वयम् के अस्तित्व पर भी विश्वास नहीं करते भला ऐसी अविश्वसनीय बात कैसे मान लेते। मगर फिर भी यह अफवाह विभिन्न रूपों में फेसबुक पर काफी लोगों का स्टेटस वाक्य बनी। आज के युग में श्री, समृद्धि और धन की उपयोगिता से कोई इनकार नहीं कर सकता है। सामान्य अवलोकन से ही यह पता लग जाता है कि धनाभाव किस प्रकार दुख का कारण बनता है। मतलब यह कि धन के घटने-बढने से आमतौर पर व्यक्ति की खुशी का स्तर भी घटता बढता रहता है।
न्यू जर्सी के प्रिंसटन विश्वविद्यालय में अब विशेषज्ञों ने वार्षिक आय की एक ऐसी जादुई संख्या का पता लगाया है जिसके बाद व्यक्तिगत प्रसन्नता पर सम्पन्नता का प्रभाव घटने लगता है। उन्होंने इस संख्या का निर्धारण अमेरिका के कारकों के हिसाब से किया है। अन्य देशों के स्थानीय अंतरों के कारण वहाँ यह संख्या भिन्न हो सकती है परंतु सिद्धांत लगभग वही रहेगा।
अनुसन्धानकर्ताओं ने प्रसन्नता के दो रूप माने, भावनात्मक और भौतिक। सन 2008 व 2009 के दौरान साढे चार लाख से अधिक अमरीकियों पर किये गये इस अनुसन्धान के बाद निष्कर्ष यह निकला कि बढती आय के साथ-साथ दोनों प्रकार की प्रसन्नता बढती जाती है। परंतु 75,000 डॉलर वार्षिक के जादुई अंक के बाद आय संतोष की मात्रा तो बढाती रहती है परंतु प्रसन्नता की मात्रा में कोई इजाफा नहीं कर पाती। जबकि 75,000 से कम आय पर दोनों प्रकार की खुशियाँ आय के अनुपात में न्यूनाधिक होती रहती हैं। आय अधिक होने से लोग अपने स्वास्थ्य को भी अच्छा रख सके जो अंततः अधिक प्रसन्नता का कारक बना परंतु उसकी भी सीमायें रहीं। इसी प्रकार व्यक्तिगत सम्बन्धों में आये बदलाव, तलाक़ आदि के कारक और परिणाम की सहनशक्ति पर भी आय के अनुसार प्रभाव पडा।
कुल मिलाकर - पैसा खुशी देता है, परंतु एक निश्चित सीमा तक ही जो कि व्यक्तित्व, देश और काल पर निर्भर करती है।
17 मई को हमारे वरिष्ठ कवि और ब्लोगर श्री सत्यनारायण शर्मा "कमल" जी की पत्नी की पुण्यतिथि है। हमारी संवेदनाएं उनके साथ हैं।
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सम्बन्धित कड़ियाँ
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सब माया है - इब्न-ए-इंशा
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पैसा खुशी देता है, परंतु एक निश्चित सीमा तक ही...
ReplyDeleteहमारे यहां शायद इसी को 'सब माया है' कहा गया है
हुम्म.. हाँ... वैसे मैं भी सोचता हूँ कि मेरी खुशी की सीमा यहीं तक है -मेरा पर्सनल जेट हो जाए, एक अदद याच हो जाए, एक छोटा-मोटा आईलैण्ड हो जाए बस्स...
ReplyDelete:)
अच्छी जानकारी दी आपने। अपनी अल्प-आय का औचित्य सिध्द करने में बडी सहायता मिलेगी इससे। वैसे, इसके मूल मे है तो भारतीय विचार ही - जब आवै सन्तोष धन, सब धन धूरि समान।
ReplyDeleteपैसा बहुत कुछ दे सकता है लेकिन सब कुछ नहीं, खुशिया भी बस एक सीमा तक ही दे सकता है
ReplyDeleteपैसा एक साधन मात्र है भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए.मानसिक और आध्यात्मिक जरूरतों की पूर्ति पैसे से संभव नहीं है.भौतिक जरूरतें भी व्यक्ति की सोच पर निर्भर करतीं हैं.कोई साधारण सी कुटिया में रह कर कमसे कम खर्चों में काम चला कर संतुष्ट है तो किसी को आलीशान बंगला,गाडी आदि चाहिये.बहरहाल ठीक ठाक जीवनयापन के लिए यदि
ReplyDeleteपैसा मिल जाये तो भी संतुष्टि तो होनी ही चाहिये.सर्वे के अनुसार यदि अमेरिका में यह ७५००० डालर है,तो भारत में यह अभी अनलिमिटेड है.क्योंकि नेता,व्यापारी,अफसर जायज नाजायज प्रकार से इतना धन जुटाने में लगे हुए हैं कि
स्विसबैंक का सहारा लेना पड़ता है.वह स्विस बैंक में पड़ा धन बताईये किस काम आरहा है,व्यक्ति के या देश के ,सिवाय इसके कि जमा करनेवाला संतुष्ट होता रहता है कि वह बहुत धनवान है.
क्या अमेरिका में भी ऐसा होता है ?
काहे पैसे पे इतना गरूर करे है,
ReplyDeleteयही पैसा तो अपनों से दूर करे है...
जय हिंद...
satya vachan....
ReplyDeletejai baba banaras.......
"While money can't buy happiness, it certainly lets you choose your own form of misery."
ReplyDelete— Groucho Marx
पैसा खुशी देता है, परंतु एक निश्चित सीमा तक ही...
ReplyDeleteएकदम सच्ची बात.पैसे से सबकुछ नहीं खरीदा जा सकता.
प्रसन्नता के घटक कई हैं। पैसा उनमें से एक महत्वपूर्ण घटक है।
ReplyDeleteऔर पैसे का होना गलत कतई नहीं। पैसा दैवी शक्ति है, जो असुरों ने जीत रखी है!
आप कभी फुरसत में यह पोस्ट देखने का कष्ट करें:
असली खुशी की दस कुंजियां
पैसा हाथ का मैल है,
ReplyDeleteजानते हुए भी
अपनी
मूल आवश्यकताएं पूरी करने के लिए
कुछ प्रतिशत मानव कोल्हू का बैल है
मानव कोल्हू का बैल है
कोल्हू का बैल है
बैल है
पैसा हाथ का मैल है,
पैसा, बहुत सारी चिंताओं को तो कम कर देता है....पर ख़ुशी की गारंटी नहीं दे सकता.
ReplyDelete@जब आवै सन्तोष धन, सब धन धूरि समान।
ReplyDeleteविष्णु जी, संतोष धन आने तक $75,000 वार्षिक की आय चाहिये.
@Ravikar
ReplyDeleteबहुत सुन्दर!
@Gyandutt Pandey
ReplyDeleteआपका पढकर मज़ा आ गया। यद्यपि वहाँ गुणसूत्रों पर कुछ अधिक ज़ोर दिखाई दिया जोकि वास्तव में न भी हो। एक ही परिवार में अलग प्रकार के प्रसन्नता स्तर पाये जाते हैं जबकि एक सामाजिक समूह में उनका एक सा होना अधिक सम्भावित है। जहाँ तक वृद्धावस्था की बात है, मैं समझता हूँ कि वय से अधिक यह अर्जित अनुभवों के कारण है। समय के साथ जीवन के प्रति हमारा दृष्टिकोण बेहतर होने की सम्भावना बढती जाती है। कुल मिलाकर एक उपयोगी आलेख जो बहुत से लोगों के जीवन का परिवर्तन बिन्दु बन सकता है। आपके मूल पॉवरपॉइंट के दर्शकों में से क्या किसी ने कुछ समय बाद कोई फ़ीडबैक भेजा था? (तुरंत वाला प्रशंसात्मक फीडबैक नहीं)
ख़ुशी तो हमारी आंतरिक आवश्यकताओं पर निर्भर करती है जो बाहर से पूरी हो ही नहीं सकती ..अच्छा लगा पोस्ट ..
ReplyDeleteसाई इतना दीजिये ..............
ReplyDeleteसर्वे से बिलकुल सहमत हूँ की पैसा हमारी ख़ुशी को घटाता बढ़ता है और ये भी सच है की एक सीमा के बाद वो करना भी ख़त्म कर देता है | पैसा हाथो का मैल है जैसी बाते वही करती हूँ जब किसी और से पैसा निकलवाना है नहीं तो पैसा खुदा नहीं तो उससे कम भी नहीं है |
ReplyDeleteहमें तो जी दिलीप सिंह जूदेव का डायलाग बहुत मस्त लगा था, "पैसा खुदा नहीं है, मगर खुदा की कसम खुदा से कम भी नहीं है।"
ReplyDeleteअनुराग जी अगर पैसा एक निश्चित सीमा के उपरांत कोई ख़ुशी नहीं देता पर संतोष देता रहता है. ये बात अपने भेजे में नहीं घुसी. अधिकता के साथ संतोष बढ़ता रहता है. ये कैसा संतोष है जो बढ़ता जाता है . मैं तो अभी तक कम में भी गुजारा कर सकने वाले को संतोषी जीव मनाता था. अब इस आंकलन से तो पैसे के पीछे भागने वालों को भी संतोषी जीवों की श्रेणी में रखना होगा...
ReplyDelete@अगर पैसा एक निश्चित सीमा के उपरांत कोई ख़ुशी नहीं देता पर संतोष देता रहता है. ये बात अपने भेजे में नहीं घुसी.
ReplyDeleteVICHAAR SHOONYA,
मन मार के संतोष कर लेना और इच्छा/आवश्यकता पूर्ति के बाद संतुष्ट हो जाना, ये दो अलग बातें हैं| पैसा आपको तृप्त होकर संतुष्ट होने का अवसर देता है
"पैसा हाथ का मैल है - वाकई?"
ReplyDeleteमगर सब इस मैल को पाने के लिए पागल हैं!
अरे इस नोट में तो अनुराग जी है तब मै कैसे कहूं कि नोट मिलने पर खुशी नहीं होती।
ReplyDeleteअनुराग जी । मैने एक दिन सज्जन से कहा पैसे से खुशी नहीं खरीदी जा सकती वह बोला बेटा खुशी खरीदने की दुकान तूने देखी ही कहां है। पैसे से सुख का सम्बंध है। ''धनात धर्म तत सुखम ''
मैंने ये आर्टिकल गूगल रीडर पर शेयर किया था तब बड़े अच्छे कमेन्ट आये थे. "व्यक्तित्व, देश और काल पर निर्भर" वाली बात में सच्चाई है. पर ये व्यक्तित्व, देश और काल भी तो स्थिर नहीं है, पैसे के साथ ये भी बदलते हैं.
ReplyDelete७५००० के आंकड़े पर मुझे भरोसा नहीं :) मैं बहुत करीब से इस जादुई अंक से बहुत ज्यादा कमाने वाले लोगों को जानता हूँ जिन्हें लगता है कि वो बहुत कमाते हैं. मेरे हिसाब से तो मायने ये रखता है कि आस-पास वाले कितना कमाते हैं. इस पर मैंने बहुत पहले एक पोस्ट लिखी थी:
http://uwaach.aojha.in/2008/03/blog-post_17.html
अब बात निकली है तो... कभी समय मिले तो ये दोनों पोस्ट भी देख आइयेगा. ऐसी ही बातों के घराने की बातें हैं :)
ReplyDeletehttp://uwaach.aojha.in/2009/12/blog-post_24.html
http://uwaach.aojha.in/2010/04/blog-post.html
जब मेरी थोडी सी जरुरते पुरी हो जाये, मुझे उस से ज्यादा नही चाहिये, मेरी खुशी उसी मे हे, पैसो से हम वस्तुये तो सभी खरीद सकते हे, लेकिन कुदरत की दी चीजे कभी नही खरीद सकते, इस लिये मैने कभी लालच नही किया, ज्यादा आने पर खुब खर्च किया, खुशी पाने के लिये धन की जरुरत नही होती...सवर की जरुरत होती हे, क्योकि मैने इस पैसो का खेल बहुत देखा हे...
ReplyDeleteपैसा खुशी देता है, परंतु एक निश्चित सीमा तक ही...
ReplyDelete------
पर वो सीमा इतनी दूर है पूरा जीवन वहां तक नहीं पहुँच पाता इन्सान..... हमेशा कुछ कमी ही लगती है...
@Kajal Kumar
ReplyDeleteधन्यवाद भाई, "सब माया है" का लिंक जोड दिया है।
@Abhishek Ojha
ReplyDeleteआपके लिंक देख लिये, ज्ञानवर्धन भी हुआ, धन्यवाद।
सच बतायें तो पैसा जितना संतोष देता है उससे अधिक असंतोष देता है।
ReplyDeletesatya vachan.kabhi cycle milne par itna khush hote the ki rat ko bhi cycle khud saf karke hi sote the,ab to jaane kab car badal lete hain pata hi nahi chalta,chhoti-moti cheezon ka to notice hi nahi hota,sach me ek seema ke baad farq to padta hai,ab ye alag bat hai ki har aadmi apni seema alag alag tay karta hai.bhut achchi post.
ReplyDeleteपैसा बहुत कुछ दे सकता है लेकिन सब कुछ नहीं, खुशिया भी बस एक सीमा तक ही दे सकता है|
ReplyDeleteरोचक जानकारी दी आपने....
ReplyDeleteवैसे यह सही भी है, एक सीमा के बाद धन सुख दुःख में कमी बेसी का आधार नहीं बनता....
सब अपनी भौतिक इच्छाओं पर निर्भर करता है, अगर इच्छा हो तो ७५ क्या १०७५ डॉलर भी कम पडेंगे।
ReplyDelete