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डैडी – कहानी के प्रथम भाग में आपने पढा कि:
डैडी जब फोन पर अपने काम की बात कर रहे होते थे तब कमरा अन्दर से बन्द रहता था। बाकी समय उनके कमरे में जाना एक रोमांचक अनुभव होता था। घर के अन्दर भी उनके कमरे की अलमारियाँ और दराज़ें सदैव तालाबन्द रहती थीं। कभी-कभी मैं उनका रहस्य जानने के लिये चुपके से उनके कमरे में चली जाती थी और वे अपना सब काम छोडकर लपककर मुझे गोद में उठा लेते थे।
“याद से खुशी होनी चाहिए दुःख नहीं।”
“हाँ डैडी!”
उनकी यह बात आज भी मेरे जीवन का मूलमंत्र है और अब मैं जब भी उन्हें याद करती हूँ मुझे दुःख नहीं होता बल्कि याद करना अच्छा लगता है।
उस दिन जब मैं उनके कमरे में गयी तो वे एक डब्बा लिये कुछ देख रहे थे। कुछ चमकता सा दिखा तो मैंने पूछा कि क्या मैं पास से देख सकती हूँ तो उन्हों ने हाँ की। मैंने पास जाकर देखा तो उसमें तरह-तरह के सिक्के रखे थे। डैडी के डब्बे में संसार भर से अनेक प्रकार के सिक्के थे। सोने और चांदी के भी। चमचमाते सिक्के खूबसूरत पैकिंग में इस प्रकार रखे थे मानो अमूल्य गहने हों। मैं कोई एक घंटे तक उस डब्बे में रखे विभिन्न प्रकार के सिक्कों, नोटों, रंग बिरंगे फीतों और डाक टिकटों से खेलती रही। फिर माँ ने हमें डिनर के लिये बुला लिया। डैडी उस दिन मुझे पहली बार बहुत कूल लगे।
खाना खाते-खाते डैडी के लिए कोई फोन आ गया। भोजन छोड़कर वे अपने रहस्यमय कमरे में चले गये। जब वे वापस आये तो मैं सोने के लिये अपने कमरे में जाने ही वाली थी। डैडी ने गोद में लेकर मुझे गुडनाइट कहा और हमें बताया कि अगले दिन वे विदेश जाने वाले हैं। अपने बिस्तर से मैंने माँ को रोते हुए सुना। मैं कुछ जान पाती उससे पहले ही मुझे नींद आ गयी।
माँ अभी भी रसोई की सिंक के साथ गुत्थमगुत्था हो रही हैं। कुछ बोल नहीं रहीं पर उनके आँसू झर-झर बह रहे हैं। उन्हें देखकर मैं भी सुबकने लगी हूँ। मुझे पता है कि हम दोनों ही सिंक की रोती हुई टोटी के लिये नहीं रो रहे हैं। हम दोनों रो रहे हैं उस कूल इंसान के लिये जिसके होते हुए इस घर में न कभी कोई टोटी टपकी और न ही कोई आँख। जब तक डैडी यहाँ थे हमें पता ही नहीं चला कि कैसे चुपचाप वे इस मकान को हमारा प्रिय घर बनाने में लगे रहते थे।
डैडी, आप तो बुद्धा हो, आपको ज़रूर पता होगा कि हम आपको कितना मिस कर रहे हैं। आँखें गीली हैं, मन भीगा है, लेकिन मैं ज़रा भी दुखी नहीं हूँ। हँसकर याद करती हूँ। आपने मेरे लिये जो क्लब हाउस बनाया था, उसके बाहर मैंने एक गुलाब लगाया है आपकी याद में। मुझे मालूम है कि आप अपनी तस्वीर से बाहर नहीं आ सकते मगर वहीं से मुस्कराकर अपना प्यार हम तक पहुँचा रहे हैं। मैने माँ से पूछकर आपके रिबन और मेडल सिक्कों के डब्बे से निकालकर शोकेस में लगा दिये हैं। एक नया मेडल भी है जो आपको मरणोपरांत मिला है।
मुझे आप पर गर्व है डैडी!
[समाप्त]
[कथा व चित्र :: अनुराग शर्मा]
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सम्बंधित कड़ियाँ
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* एक शाम बेटी के नाम
* A day of my life
डैडी – कहानी के प्रथम भाग में आपने पढा कि:
डैडी जब फोन पर अपने काम की बात कर रहे होते थे तब कमरा अन्दर से बन्द रहता था। बाकी समय उनके कमरे में जाना एक रोमांचक अनुभव होता था। घर के अन्दर भी उनके कमरे की अलमारियाँ और दराज़ें सदैव तालाबन्द रहती थीं। कभी-कभी मैं उनका रहस्य जानने के लिये चुपके से उनके कमरे में चली जाती थी और वे अपना सब काम छोडकर लपककर मुझे गोद में उठा लेते थे।
अब आगे की कथा:एक बार जब डैडी टूर पर गए थे तो मुझे उनकी इतनी याद आई कि मैं बहुत रोई। उनके वापस आने पर मेरे मना करते करते भी माँ ने यह बात उन्हें बता दी। तब डैडी ने मुझे बताया कि उन्हें भी मेरी और माँ की बहुत याद आती है लेकिन वे जब भी हमें याद करते हैं तो वे दुखी नहीं होते, बल्कि उन्हें बहुत ही उन्हें अच्छा लगता है।
“याद से खुशी होनी चाहिए दुःख नहीं।”
“हाँ डैडी!”
उनकी यह बात आज भी मेरे जीवन का मूलमंत्र है और अब मैं जब भी उन्हें याद करती हूँ मुझे दुःख नहीं होता बल्कि याद करना अच्छा लगता है।
उस दिन जब मैं उनके कमरे में गयी तो वे एक डब्बा लिये कुछ देख रहे थे। कुछ चमकता सा दिखा तो मैंने पूछा कि क्या मैं पास से देख सकती हूँ तो उन्हों ने हाँ की। मैंने पास जाकर देखा तो उसमें तरह-तरह के सिक्के रखे थे। डैडी के डब्बे में संसार भर से अनेक प्रकार के सिक्के थे। सोने और चांदी के भी। चमचमाते सिक्के खूबसूरत पैकिंग में इस प्रकार रखे थे मानो अमूल्य गहने हों। मैं कोई एक घंटे तक उस डब्बे में रखे विभिन्न प्रकार के सिक्कों, नोटों, रंग बिरंगे फीतों और डाक टिकटों से खेलती रही। फिर माँ ने हमें डिनर के लिये बुला लिया। डैडी उस दिन मुझे पहली बार बहुत कूल लगे।
खाना खाते-खाते डैडी के लिए कोई फोन आ गया। भोजन छोड़कर वे अपने रहस्यमय कमरे में चले गये। जब वे वापस आये तो मैं सोने के लिये अपने कमरे में जाने ही वाली थी। डैडी ने गोद में लेकर मुझे गुडनाइट कहा और हमें बताया कि अगले दिन वे विदेश जाने वाले हैं। अपने बिस्तर से मैंने माँ को रोते हुए सुना। मैं कुछ जान पाती उससे पहले ही मुझे नींद आ गयी।
माँ अभी भी रसोई की सिंक के साथ गुत्थमगुत्था हो रही हैं। कुछ बोल नहीं रहीं पर उनके आँसू झर-झर बह रहे हैं। उन्हें देखकर मैं भी सुबकने लगी हूँ। मुझे पता है कि हम दोनों ही सिंक की रोती हुई टोटी के लिये नहीं रो रहे हैं। हम दोनों रो रहे हैं उस कूल इंसान के लिये जिसके होते हुए इस घर में न कभी कोई टोटी टपकी और न ही कोई आँख। जब तक डैडी यहाँ थे हमें पता ही नहीं चला कि कैसे चुपचाप वे इस मकान को हमारा प्रिय घर बनाने में लगे रहते थे।
डैडी, आप तो बुद्धा हो, आपको ज़रूर पता होगा कि हम आपको कितना मिस कर रहे हैं। आँखें गीली हैं, मन भीगा है, लेकिन मैं ज़रा भी दुखी नहीं हूँ। हँसकर याद करती हूँ। आपने मेरे लिये जो क्लब हाउस बनाया था, उसके बाहर मैंने एक गुलाब लगाया है आपकी याद में। मुझे मालूम है कि आप अपनी तस्वीर से बाहर नहीं आ सकते मगर वहीं से मुस्कराकर अपना प्यार हम तक पहुँचा रहे हैं। मैने माँ से पूछकर आपके रिबन और मेडल सिक्कों के डब्बे से निकालकर शोकेस में लगा दिये हैं। एक नया मेडल भी है जो आपको मरणोपरांत मिला है।
मुझे आप पर गर्व है डैडी!
[समाप्त]
[कथा व चित्र :: अनुराग शर्मा]
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सम्बंधित कड़ियाँ
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* एक शाम बेटी के नाम
* A day of my life
मैं तो किसी 'शाकिंग सस्पेंस' की आशा कर रहा था। किन्तु यह कहानी तो भिगो गई।
ReplyDeleteपिता कभी नहीं मरते। वे तो सदैव हमारे साथ ही चलते हैं - सर पर छाया बने हुए।
सच आँखें नम कर गई कहानी .....सधा हुआ संवेदनशील कथ्य
ReplyDeletepriy anurag ji
ReplyDeletemangalmay suprabhat
utkrisht kahani ko padh man bojhil
haker shnehil hogaya ,shayad kahani ka
yahi nihitarth bhi hai .marmik prasangon ke sath kathy ka shabd chayan
sarthak,va bhavnaon ke sath dikhata hai
sunder rachana ji .shukriya ji.
"याद से खुश होना चाहिए..दुखी नहीं ".
ReplyDeleteबहुत गहरी बात कह दी....बहुत ही मार्मिक..संवेदनशील कहानी
मुझे पता है कि हम दोनों ही सिंक की रोती हुई टोटी के लिये नहीं रो रहे हैं ...
ReplyDeleteकुछ लिखना सूझ ही नहीं रहा ...
गिने चुने शब्दों में बहुत कुछ कह गई कहानी। हर तथ्य को कहकर बताना कोई बड़ी बात नहीं, बड़ी बात है बिना कुछ कहे बहुत कुछ कह देना।
ReplyDeleteBahut acchi lagi kahaani..
ReplyDeleteSanjay ji se sahmat hun..
द्रवित करने वाली कहानी...
ReplyDeleteBahut acchi lagi kahaani..
ReplyDeleteSanjay ji se sahmat hun..
लेकिन रहस्यमयी कमरे का राज क्या था?
ReplyDeleteकहानी काफी कुछ पाठकों की कल्पना और समझ पर छोड़ जाती है
ReplyDeletekahin andar tak chhoo gayee...:)
ReplyDeletebahut pyari si rachna..
द्रवित कर गयी रचना। परिवार में सब आधार हैं एक दूसरे के, वह स्थायित्व बना रहे।
ReplyDeleteमार्मिक !शहीदों के लिए रोना नहीं चाहिए !
ReplyDeleteदिल छू लेते हो अनुराग भाई ...बधाई कामयाबी के लिए !
याद से खुश होना चाहिए..दुखी नहीं ".....
ReplyDeleteye to jeevan bhar yaad rakhne wali baat hai
वाकई में दिल को छू लेने वाली कहानी है... शहीदों को शत शत नमन...
ReplyDeleteबहुत मर्मस्पर्शी कहानी ...लगता है कहानी के डैडी किसी ख़ुफ़िया विभाग में काम करते थे ...
ReplyDeleteपढ़कर सोचने पर विवश हुई ..आह! ..संवेदना से भींग गयी... अच्छा लिखा ..अच्छी लगी . ...
ReplyDeleteमार्मिक..
ReplyDeleteकुंवर जी,
भाउक कर देनी वाली सच्ची कहानी।
ReplyDeleteसरलतम शब्दों में जिंदगी के तिलस्म को बयान करना कोई आपसे सीखे।
कृपया मेरी बधाई स्वीकार करें।
आखे भीग गई --यादे ....कुछ मार्मिक ..कुछ अपनापण लिए हुए ..
ReplyDeleteओह !
ReplyDeleteएक सहज अभिव्यक्ति की तरह बह गई मार्मिक कथा!!
ReplyDeleteअनुराग भाई!
ReplyDeleteकहानी लाजवाब है.. कहानी के अंदर का न कहना, बहुत कुछ कहता है..
कभी ऐसा ख्याल आया है आपके मन में कि इसी तरह कि कोइ कहानी लिखाकर इसे एक इंटरैक्टिव कहानी बनाई जाए और पाठकों से कहानी के अनसुलझे विन्दुओं पर अपनी बात कहने को कहा जाए.. जैसा इस कहानी में.. पहले भाग में मुझे दूसरी औरत वाली बात लगी..और दूसरे हिस्से में फ़ौजी सा कुछ.. कई लोगों को और भी कुछ लगा हो सकता है!!
बस यूं ही कह दिया!!
सलिल जी आपका सुझाव बहुत अच्छा है. वैसे हिन्दी ब्लॉगिंग में ऐसे प्रयास हुए हैं काफी पहले - बुनो कहानी में शायद अनूप शुक्ल के सहयोग से।
ReplyDeleteजहाँ तक "न कहने" की बात है,
1. कहानी लिखते समय मेरा अक्सर यह प्रयास रहता है कि कहानी रुचिकर होते हुए भी सन्क्षिप्त हो।
2. कहानी में ऐसा अतिरिक्त रस हो जिसे ध्यान से पढने वाले अनुभव कर सकें।
क्या ऐसा सचमुच हो पाता है, पाठक ही बता सकते हैं।
दिल को छू लेने वाली बेहतरीन कहानी....
ReplyDeleteहार्दिक शुभकामनायें।
पहला भाग नहीं पढ़ा था, क्रमशः देख के, मुझे उम्मीद थी कि आप अधिक समय तक प्रतीक्षा नहीं कराएँगे।
ReplyDeleteआज एक साथ ही दोनों भाग पढ़े, और जो अनकहा पढ़ा वो बहुत ही अच्छा था। बाँध के रखती कहानी के लिए धन्यवाद।
अनुराग,यह कहानी बहुत भली लगी.दुखद अंत होते हुए भी भली लगी.याद करना अच्छा लगना चाहिए.बात बहुत सही है.
ReplyDeleteएक के जाने से संसार कितना बदल जाता है!किस प्रकार छोटी छोटी बातें जो पहले छोटी थीं अब युद्ध स्तर पर करनी पड़ती हैं.मन बहुत बहुत भीग गया.
घुघूती बासूती
अनुराग,यह कहानी बहुत भली लगी.दुखद अंत होते हुए भी भली लगी.याद करना अच्छा लगना चाहिए.बात बहुत सही है.
ReplyDeleteएक के जाने से संसार कितना बदल जाता है!किस प्रकार छोटी छोटी बातें जो पहले छोटी थीं अब युद्ध स्तर पर करनी पड़ती हैं.मन बहुत बहुत भीग गया.
घुघूती बासूती
papa hamesha yaad aate hain...aapne usme ek yaad aur shamil kar di....
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