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Thursday, May 5, 2011

डैडी – कहानी अंतिम भाग [भाग 2]

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डैडी – कहानी के प्रथम भाग में आपने पढा कि:
डैडी जब फोन पर अपने काम की बात कर रहे होते थे तब कमरा अन्दर से बन्द रहता था। बाकी समय उनके कमरे में जाना एक रोमांचक अनुभव होता था। घर के अन्दर भी उनके कमरे की अलमारियाँ और दराज़ें सदैव तालाबन्द रहती थीं। कभी-कभी मैं उनका रहस्य जानने के लिये चुपके से उनके कमरे में चली जाती थी और वे अपना सब काम छोडकर लपककर मुझे गोद में उठा लेते थे।
अब आगे की कथा:
एक बार जब डैडी टूर पर गए थे तो मुझे उनकी इतनी याद आई कि मैं बहुत रोई। उनके वापस आने पर मेरे मना करते करते भी माँ ने यह बात उन्हें बता दी। तब डैडी ने मुझे बताया कि उन्हें भी मेरी और माँ की बहुत याद आती है लेकिन वे जब भी हमें याद करते हैं तो वे दुखी नहीं होते, बल्कि उन्हें बहुत ही उन्हें अच्छा लगता है।

“याद से खुशी होनी चाहिए दुःख नहीं।”

“हाँ डैडी!”

उनकी यह बात आज भी मेरे जीवन का मूलमंत्र है और अब मैं जब भी उन्हें याद करती हूँ मुझे दुःख नहीं होता बल्कि याद करना अच्छा लगता है।

उस दिन जब मैं उनके कमरे में गयी तो वे एक डब्बा लिये कुछ देख रहे थे। कुछ चमकता सा दिखा तो मैंने पूछा कि क्या मैं पास से देख सकती हूँ तो उन्हों ने हाँ की। मैंने पास जाकर देखा तो उसमें तरह-तरह के सिक्के रखे थे। डैडी के डब्बे में संसार भर से अनेक प्रकार के सिक्के थे। सोने और चांदी के भी। चमचमाते सिक्के खूबसूरत पैकिंग में इस प्रकार रखे थे मानो अमूल्य गहने हों। मैं कोई एक घंटे तक उस डब्बे में रखे विभिन्न प्रकार के सिक्कों, नोटों, रंग बिरंगे फीतों और डाक टिकटों से खेलती रही। फिर माँ ने हमें डिनर के लिये बुला लिया। डैडी उस दिन मुझे पहली बार बहुत कूल लगे।

खाना खाते-खाते डैडी के लिए कोई फोन आ गया। भोजन छोड़कर वे अपने रहस्यमय कमरे में चले गये। जब वे वापस आये तो मैं सोने के लिये अपने कमरे में जाने ही वाली थी। डैडी ने गोद में लेकर मुझे गुडनाइट कहा और हमें बताया कि अगले दिन वे विदेश जाने वाले हैं। अपने बिस्तर से मैंने माँ को रोते हुए सुना। मैं कुछ जान पाती उससे पहले ही मुझे नींद आ गयी।

माँ अभी भी रसोई की सिंक के साथ गुत्थमगुत्था हो रही हैं। कुछ बोल नहीं रहीं पर उनके आँसू झर-झर बह रहे हैं। उन्हें देखकर मैं भी सुबकने लगी हूँ। मुझे पता है कि हम दोनों ही सिंक की रोती हुई टोटी के लिये नहीं रो रहे हैं। हम दोनों रो रहे हैं उस कूल इंसान के लिये जिसके होते हुए इस घर में न कभी कोई टोटी टपकी और न ही कोई आँख। जब तक डैडी यहाँ थे हमें पता ही नहीं चला कि कैसे चुपचाप वे इस मकान को हमारा प्रिय घर बनाने में लगे रहते थे।

डैडी, आप तो बुद्धा हो, आपको ज़रूर पता होगा कि हम आपको कितना मिस कर रहे हैं। आँखें गीली हैं, मन भीगा है, लेकिन मैं ज़रा भी दुखी नहीं हूँ। हँसकर याद करती हूँ। आपने मेरे लिये जो क्लब हाउस बनाया था, उसके बाहर मैंने एक गुलाब लगाया है आपकी याद में। मुझे मालूम है कि आप अपनी तस्वीर से बाहर नहीं आ सकते मगर वहीं से मुस्कराकर अपना प्यार हम तक पहुँचा रहे हैं।  मैने माँ से पूछकर आपके रिबन और मेडल सिक्कों के डब्बे से निकालकर शोकेस में लगा दिये हैं। एक नया मेडल भी है जो आपको मरणोपरांत मिला है।

मुझे आप पर गर्व है डैडी!

[समाप्त]
[कथा व चित्र :: अनुराग शर्मा]

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सम्बंधित कड़ियाँ
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* एक शाम बेटी के नाम
* A day of my life

Wednesday, May 4, 2011

डैडी – कहानी

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माँ जुटी हुई हैं संघर्ष में। रसोई की टोटी आज फिर से बहने लगी है शायद। घर चाहे कितना भी बड़ा हो। घर का मालिक भी चाहे जितना बड़ा हो। अमेरिका में यह सारे काम स्वयं ही करने होते हैं। यह टोटी पहले भी कभी खराब ज़रूर हुई होगी लेकिन सच यह है कि तब हमें कभी इसका पता न चला। डैडी यहाँ थे तब माँ को घर-बाहर किसी बात की चिंता करने की ज़रूरत ही नहीं थी। तब तो शायद माँ को यह भी पता नहीं था कि ये चीज़ें कभी खराब होती भी हैं।

जब तक माँ और मैं सोकर उठते थे, डैडी नहा-धोकर, ध्यान करके या तो अखबार पढ रहे होते थे या उसके बाद अपनी ईमेल आदि देखते थे। बोलते वे कम ही थे मगर अपनी सुबह की चाय बनाने से लेकर बाकी सब काम भी ऐसे दबे पाँव करते थे कि कहीं गलती से भी हमारी नींद में खलल न पडे।

जब मैं तैयार हो जाती तब वे मुझे अपनी कार में लेकर स्कूल छोड़ने जाते थे। उस समय मैं उनसे ढेर सारी बातें करती थी। उस समय वे भी अन्य वक़्तों जैसे शांत और चुप्पा नहीं रहते थे। लगता था जैसे डैडी किसी और आदमी से बदल गये हों। स्कूल की छुट्टी होने पर वे मुझे लेने आ जाते थे। मुझे घर छोड़कर वे वापस अपने काम पर चले जाते थे। डैडी अस्पताल में थे या स्टील मिल में? क्या करते थे? यह मुझे तब ठीक से नहीं पता था। लेकिन इतना पता था कि जब वे शहर में होते थे तब ज़रूरत पड़ने पर किसी भी समय उन्हें घर बुलाया जा सकता था। लेकिन बीच-बीच में वे काम के सिलसिले में नगर से बाहर की यात्रायें भी करते थे। कभी-कभी वे विदेश भी चले जाते थे और हफ्तों तक हमें दिखाई नहीं देते थे। उनकी कोई भी यात्रा पहले से तय नहीं होती थी। किसी भी दिन चले जाते थे और किसी भी दिन वापस आ जाते थे। उनकी वापसी के बाद ही ठीक से पता लगता था कि कहाँ-कहाँ गये थे।

डैडी यूरोप में कहीं गये हुए थे। पाँच साल की छोटी सी मैं खिड़की में बैठी अपनी गुड़ियों से खेल रही थी कि मुझे उनकी कोई बात याद आयी। मेरे मन में एकदम यह विचार आया कि मेरे डैडी हमारे घर के महात्मा बुद्ध हैं, जानकार और शांत। मैं यह बात सोच ही रही थी कि उन्होंने घर में प्रवेश किया। लपककर मुझे गोद में उठाया तो मैंने खुश होकर कहा, “डैडी, आप न, बिल्कुल भगवान बुद्ध ही हो। फर्क बस इतना है कि भगवान बुद्ध बहुत ज़्यादा बुद्धिमान हैं और आप उतने बुद्धिमान नहीं हैं।“

पिट्सबर्ग का एक दृश्य
डैडी ने वैरी गुड कहकर मुझे चूम लिया। कुछ ही देर में उनके सूटकेस से मेरे लिये उपहारों की झड़ी लगने लगी, जैसे कि हमेशा होता था। माँ कुछ खुश नहीं दिख रही थी। घर में कुछ तो ऐसा चलता था जिसे मैं समझ नहीं पाती थी। माँ शायद डैडी के जॉब से अप्रसन्न रहती थीं। वे चाहती थीं कि डैडी भी आस-पड़ोस के पुरुषों की तरह हमेशा शहर में ही रहने वाली कोई नौकरी करें।

डैडी जब फोन पर अपने काम की बात कर रहे होते थे तब कमरा अन्दर से बन्द रहता था। बाकी समय उनके कमरे में जाना एक रोमांचक अनुभव होता था। घर के अन्दर भी उनके कमरे की अलमारियाँ और दराजें सदैव तालाबन्द रहती थीं। कभी-कभी मैं उनका रहस्य जानने के लिये चुपके से उनके कमरे में चली जाती थी और वे अपना सब काम छोड़कर लपककर मुझे गोद में उठा लेते थे।

[क्रमशः]