कुछ अधिक नहीं तो भी कोई बीसेक साल तो हो ही गए होंगे छुरपी देखे हुए। लेकिन आज भी उसका रंग-रूप और स्वाद वैसे ही याद है जैसे कि अभी-अभी उसका रसास्वादन किया हो। अपने सिक्किम और लद्दाख के (सामान्यतः मांसाहारी) मित्रों से जब पहली बार छुरपी खाने को मिली तो मन में यह बात ज़रूर आयी कि सुपारी जैसी कड़क मगर दूध की रंगत वाला यह पदार्थ भोज्य है भी कि नहीं। मगर मित्र तो वही होते हैं जो विश्वसनीय हों। मेरे पूछने से पहले ही उन्होंने बताया कि छुरपी हिमालय के अतिशय ठंडे इलाकों में याक या चौरी के दूघ से बनाई जाती है। पहाडों पर पाए जाने वाले याक और चौरी के दूध का लगभग ११ प्रतिशत भाग ठोस होता है। उससे बनने वाला पनीर जैसा पदार्थ छुरपी पत्थर सा कड़क होता है।
बाद में भारत-तिब्बत-नेपाल सीमा पर महाकाली अंचल के नए बने मित्र ने बताया कि कूर्मांचल के ऊंचे इलाकों में भी छुरपी का प्रचलन है। अपनी अगली ग्राम-यात्रा से आने पर जब उसने छुरपी लाकर दी तो मैंने देखा कि यह छुरपी धवल न होकर कुछ-कुछ पीले-भूरे रंग की थी मगर स्वादिष्ट और कड़क वैसी ही थी।
जब छुरपी, याक और पहाड़ की बात चल ही पडी है तो बताता चलूँ कि पिछले दिनों कुछ अलग सा" में बिजलेश्वर महादेव के बारे में एक लेख पढा, अच्छा लगा। टिप्पणियाँ पढने पर पाया कि पाठकों और लेखक दोनों ही को बिजली महादेव का शिवलिंग पत्थर और मक्खन से बना होने पर शंका है। छुरपी से पूर्व-परिचित होने के कारण मुझे इस विषय में तनिक भी शंका नहीं है कि दुग्ध-उत्पाद को पत्थर सा कडा किया जा सकता है। कोई आर्श्चय नहीं कि छुरपी का प्रयोग करके एक मजबूत शिवलिंग बनाया जाता है। यही बिजलेश्वर महादेव के शिवलिंग का रहस्य है।
घर से दूर होने के कारण यहाँ मेरे पास छुरपी पाने का कोई साधन नहीं है इसलिए उसका चित्र उपलब्ध न करा पाने का अफ़सोस है। परन्तु उत्सुक पाठकों के लिए छुरपी के बारे में (बहुत थोड़ी) जानकारी यहाँ है और अगर अंग्रेजी में देखना चाहें तो बिजलेश्वर महादेव पर मेरा एक पुराना संक्षिप्त लेख यहाँ है: Bijli Mahadev ।
Saturday, August 1, 2009
Friday, July 24, 2009
तमसो मा ज्योतिर्गमय - [इस्पात नगरी से - खंड १४]
.कल पटना के एक भारतीय मित्र से बात हो रही थी. हमेशा की तरह बात राजनीति की तरफ फिसल गयी और तब मित्र ने विश्वास से कहा कि जब उच्च-शिक्षित लोग राजनीति में आयेंगे तो देश का भला होगा. जब मैंने "उच्च शिक्षित" शब्द का अभिप्राय जानना चाहा तो उनका उत्तर था, "जैसे आई आई टी से पढ़े हुए इंजिनीयर आदि..."
अगर आज उन्हें आई आई टी कानपुर से पढ़े हुए इंजिनीयर नित्यानंद गोपालिका के बारे में पता लगता तो शायद काफी तकलीफ पहुँचती. पूर्णिया का यह तीस-वर्षीय नौजवान पेंसिलवेनिया राज्य विश्व विद्यालय के प्रांगण में रहता है और जीई में प्रतिष्टित पद पर है. इंटरनेट पर एक तेरह वर्षीय बालिका से मैत्री करके कई दिनों तक उससे वार्तालाप करता रहा.
यह जानते हुए भी कि बालिका नाबालिग़ है, गोपालिका ने उससे अश्लील वार्तालाप भी किये और वेबकैम पर अपने अमान्य चित्र भी भेजे. बाद में ऐसा लगा जैसे कि बालिका उसकी बातों में आ गयी और तब पहले से नियत समय पर वह बुरे इरादे से पिट्सबर्ग के एक उपनगर में आ पहुँचा.
मज़ा तब आया जब वहां उसे किसी बालिका की जगह चाइल्ड प्रीडेटर दल के पुलिस अधिकारी मिले जिनका काम ही उस जैसे लोगों को सही रास्ते पर पहुँचाना है. आज उसके मुक़दमे की पहली सुनवाई थी. ख़बरों से ऐसा लग रहा है कि अब तक ऐसे २६० अपराधियों को पकड़ने वाले दल ने पहली बार एक भारतीय नागरिक को गिरफ्तार किया है. मगर इसका मतलब यह नहीं है कि भारतीय नर बहुत भले हैं या फिर दूसरे भारतीय पकडे नहीं गए हैं. बस इतना है कि वे भारतीय अमरीकी नागरिकता ले चुके हैं.
कुछ लोग कह सकते हैं कि इस घटना में कोई भी अपराध हुआ नहीं मगर अपराधों के मूल में पाई जाने वाली पाशविक प्रवृत्ति तो उभरी ही, ज़रुरत है उसे नियंत्रण में करने की और मुझे खुशी है कि स्थानीय पुलिस ने यह कर्त्तव्य बखूबी निभाया.
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इस्पात नगरी से - पिछली कड़ियाँ
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[सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा। हरेक चित्र पर क्लिक करके उसका बड़ा रूप देखा जा सकता है।]
अगर आज उन्हें आई आई टी कानपुर से पढ़े हुए इंजिनीयर नित्यानंद गोपालिका के बारे में पता लगता तो शायद काफी तकलीफ पहुँचती. पूर्णिया का यह तीस-वर्षीय नौजवान पेंसिलवेनिया राज्य विश्व विद्यालय के प्रांगण में रहता है और जीई में प्रतिष्टित पद पर है. इंटरनेट पर एक तेरह वर्षीय बालिका से मैत्री करके कई दिनों तक उससे वार्तालाप करता रहा.
यह जानते हुए भी कि बालिका नाबालिग़ है, गोपालिका ने उससे अश्लील वार्तालाप भी किये और वेबकैम पर अपने अमान्य चित्र भी भेजे. बाद में ऐसा लगा जैसे कि बालिका उसकी बातों में आ गयी और तब पहले से नियत समय पर वह बुरे इरादे से पिट्सबर्ग के एक उपनगर में आ पहुँचा.
मज़ा तब आया जब वहां उसे किसी बालिका की जगह चाइल्ड प्रीडेटर दल के पुलिस अधिकारी मिले जिनका काम ही उस जैसे लोगों को सही रास्ते पर पहुँचाना है. आज उसके मुक़दमे की पहली सुनवाई थी. ख़बरों से ऐसा लग रहा है कि अब तक ऐसे २६० अपराधियों को पकड़ने वाले दल ने पहली बार एक भारतीय नागरिक को गिरफ्तार किया है. मगर इसका मतलब यह नहीं है कि भारतीय नर बहुत भले हैं या फिर दूसरे भारतीय पकडे नहीं गए हैं. बस इतना है कि वे भारतीय अमरीकी नागरिकता ले चुके हैं.
कुछ लोग कह सकते हैं कि इस घटना में कोई भी अपराध हुआ नहीं मगर अपराधों के मूल में पाई जाने वाली पाशविक प्रवृत्ति तो उभरी ही, ज़रुरत है उसे नियंत्रण में करने की और मुझे खुशी है कि स्थानीय पुलिस ने यह कर्त्तव्य बखूबी निभाया.
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इस्पात नगरी से - पिछली कड़ियाँ
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[सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा। हरेक चित्र पर क्लिक करके उसका बड़ा रूप देखा जा सकता है।]
Saturday, July 18, 2009
कच्ची धूप, भोला बछड़ा और सयाने कौव्वे
लगभग दो दशक पहले दूरदर्शन पर एक धारावाहिक आता था, "कच्ची धूप।" उसकी एक पात्र को मुहावरे समझ नहीं आते थे। एक दृश्य में वह बच्ची आर्श्चय से पूछती है, "कौन बनाता है यह गंदे-गंदे मुहावरे?" वह बच्ची उस धारावाहिक के निर्देशक अमोल पालेकर और लेखिका चित्रा पालेकर की बेटी "श्यामली पालेकर" थी। "कच्ची धूप" के बाद उसे कहीं देखा हो ऐसा याद नहीं पड़ता। मुहावरे तो मुझे भी ज़्यादा समझ नहीं आए मगर इतना ज़रूर था कि बचपन में सुने हर नॉन-वेज मुहावरे की टक्कर में एक अहिंसक मुहावरा भी आसपास ही उपस्थित था।
जब लोग "कबाब में हड्डी" कहते थे तो हम उसे "दाल भात में मूसलचंद" सुनते थे। जब कहीं पढने में आता था कि "घर की मुर्गी दाल बराबर" तो बरबस ही "घर का जोगी जोगड़ा, आन गाँव का सिद्ध" की याद आ जाती थी। इसी तरह "एक तीर से दो शिकार" करने के बजाय हम अहिंसक लोग "एक पंथ दो काज" कर लेते थे। इसी तरह स्कूल के दिनों में किसी को कहते सुना, "सयाना कव्वा *** खाता है।" हमेशा की तरह यह गोल-मोल कथन भी पहली बार में समझ नहीं आया। बाद में इसका अर्थ कुछ ऐसा लगा जैसे कि अपने को होशियार समझने वाले अंततः धोखा ही खाते हैं। कई वर्षों बाद किसी अन्य सन्दर्भ में एक और मुहावरा सुना जो इसका पूरक जैसा लगा। वह था, "भोला बछड़ा हमेशा दूध पीता है।
खैर, इन मुहावरों के मूल में जो भी हो, कच्ची-धूप की उस छोटी बच्ची का सवाल मुझे आज भी याद आता है और तब में अपने आप से पूछता हूँ, "क्या आज भी नए मुहावरे जन्म ले रहे हैं?" आपको क्या लगता है?
जब लोग "कबाब में हड्डी" कहते थे तो हम उसे "दाल भात में मूसलचंद" सुनते थे। जब कहीं पढने में आता था कि "घर की मुर्गी दाल बराबर" तो बरबस ही "घर का जोगी जोगड़ा, आन गाँव का सिद्ध" की याद आ जाती थी। इसी तरह "एक तीर से दो शिकार" करने के बजाय हम अहिंसक लोग "एक पंथ दो काज" कर लेते थे। इसी तरह स्कूल के दिनों में किसी को कहते सुना, "सयाना कव्वा *** खाता है।" हमेशा की तरह यह गोल-मोल कथन भी पहली बार में समझ नहीं आया। बाद में इसका अर्थ कुछ ऐसा लगा जैसे कि अपने को होशियार समझने वाले अंततः धोखा ही खाते हैं। कई वर्षों बाद किसी अन्य सन्दर्भ में एक और मुहावरा सुना जो इसका पूरक जैसा लगा। वह था, "भोला बछड़ा हमेशा दूध पीता है।
खैर, इन मुहावरों के मूल में जो भी हो, कच्ची-धूप की उस छोटी बच्ची का सवाल मुझे आज भी याद आता है और तब में अपने आप से पूछता हूँ, "क्या आज भी नए मुहावरे जन्म ले रहे हैं?" आपको क्या लगता है?
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