Saturday, September 8, 2012

जल सत्याग्रह - मध्य प्रदेश का घोगल ग्राम

ॐ स्वस्ति साम्राज्यं भौज्यं स्वाराज्यं वैराज्यं पारमेष्ठ्यं राज्यं
महाराज्यमपित्यमयं समन्तपर्यायी स्यात्‌ सार्वभौमः सार्वायुषान्तादापरार्धात्‌
आदमखोर जंगली समुदायों ने जब-तब विरोधी कबीलों द्वारा मारकर खा लिये जाने से बचने के लिये मार्ग खोजना आरम्भ किया होगा तब ज़रूर ऐसे नियमों की बात उठी होगी जो मानवता को निर्भय करें। ऐसी खुली हवा जिसमें हमारी भावी पीढियाँ खुलकर सांस ले सकें। कभी विश्वव्यापी रहे हिंसक आसुरी बलप्रयोग की जगह यम, नियम, संयम, नैतिकता, अहिंसा, प्रेम, विश्व-बन्धुत्व जैसे माध्यम अपनाये जाते रहे हैं। लेकिन पापी मन कहाँ मानते हैं। बल का बोलबाला हो तो हिंसा के दम पे और जब स्वतंत्रता की बात हो तो अपनी उन्मुक्ति के नाम पर अपना उल्लू सीधा करना उनकी फ़ितरत रही है। ऐसी दुष्प्रवृत्तियों की पहचान और उपचार होता रहे। तसल्ली इस बात की है कि छिटपुट अपवादों के बावजूद आज का जनमानस समानता और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के महत्व को समझता है। उसे अपने विचारों पर ताले स्वीकार्य नहीं हैं और न ही अपनी ज़मीन पर नाजायज़ कब्ज़ा।

इंसान को स्वतंत्रता चाहिये अराजकता नहीं। विधि, प्रशासन और न्याय चाहिये तानाशाही नहीं। नियंत्रणवाद चाहे राजवंशों के नाम पर आये चाहे मज़हब के नाम पर और चाहे माओवाद और कम्युनिज़्म जैसी संकीर्ण राजनीतिक विचारधाराओं के नाम पर, चाहे सैन्यबल से आये चाहे तालिबानी क्रूरता से, लम्बे समय तक टिक नहीं सकता। यही कारण है कि आज के समय में लोकतंत्र का केवल एक ही विकल्प है, और वह है - बेहतर लोकतंत्र।
ज़ुबाँ पे मुहर लगी है तो क्या के रख दी है
हर एक हल्क़ा-ए-ज़ंज़ीर में ज़ुबाँ मैंने ~ फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
लेकिन दुःख की बात है कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता, समानता, विश्व-बन्धुत्व, अहिंसा, प्राणिमात्र में समभाव की भावना की जन्मदात्री भारत की धरती पर भी ये सद्विचार "एलियन थॉट्स" जैसे पराये होते जा रहे हैं। किस्म-किस्म के गिरोह हमारी-आपकी छोटी-छोटी शिकायतों को अपनी स्वार्थ-सिद्धि के लिये असंतोष का बम बनाने के काम में ला रहे हैं। यदि आपके पास असंतोष का कोई कारण नहीं भी है तो वे ढूंढकर ला देंगे।

इस दुर्भावना का एक दूसरा पक्ष भी है। लगता है जैसे देश की प्रशासन व्यवस्था ने आत्महत्या कर ली है। सरकारों, राजनीतिक दलों, प्रशासनिक सेवा, और सम्बन्धित संगठनों में लालची, चाटुकार और मक्कार किस्म के लोगों की बहुतायत है। सत्ता पर काबिज़ ये परजीवी अपने निहित स्वार्थ के लिये किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं। असम हो या कश्मीर, बोड़ो हों या पण्डित, राज्यों के मूलनिवासी खुद शरणार्थी बन रहे हैं। महाराष्ट्र में किसी टुच्चे क्षेत्रीयतावादी का बचकाना बयान हो या कर्नाटक में अपनी पहचान छिपाये चूहों के भेजे टेक्स्ट सन्देश, ये गीदड़ भभकियाँ लाखों देशवासियों को पलायन करने को बाध्य कर देती हैं। सब जानते हैं कि लाखों निहत्थे निर्धनों के हत्यारे माओवाद जैसी देशव्यापी गहन समस्या को बहुत हल्के में लेकर गरीबों को सशस्त्र गिरोहों से दया की भीख मांगने के लिये छोड़ देना किसी भी सरकार के लिये अति निन्दनीय कृत्य है। लेकिन फिर भी सरकार में बैठे नेताओं, विपक्षियों, नौकरशाहों का समय जटिल समस्याओं के निराकरण के बदले अपनी जेबें भरी जाने में लगा दिखता है। भारत के इतिहास में यह कालखण्ड शायद बेशर्म घोटालों का समय कहकर पहचाना जायेगा।

5 अक्टूबर 1963 में पारित 16वें संविधान संशोधन के बाद से चुने हुए सांसदों और विधायकों की शपथ में जोड़ा गया एक वाक्य उन्हें याद दिलाता है कि वे देश की एकता और संप्रभुता बनाये रखने के लिये उत्तरदायी हैं। आज कितने जनप्रतिनिधि अपनी इस शपथ के प्रति निष्ठावान हैं? बल्कि बड़ा सवाल यह होना चाहिये कि सांसद, मंत्री या अन्य उच्च पदों के कितने अभिलाषी राष्ट्र की एकता और संप्रभुता के महत्व को समझते हैं? कुछ लोग मानते हैं कि राजनीति के गिरते स्तर के लिये स्वार्थी नेताओं के साथ-साथ जनचेतना की कमी भी बराबर की ज़िम्मेदार है। लेकिन जनचेतना के लिये प्रशासन की ओर से क्या किया जा रहा है? सर्वशिक्षा अभियानों की क्या प्रगति है, सभी जानते हैं। यह समय "कोउ नृप होय हमें का हानी" का नहीं, जगने, उठने और जगाने का है।

ऐसे कठिन समय में, जब हिंसक हो उठना बहुत आसान, बल्कि स्वाभाविक सा दिखने लगता है, सरकार द्वारा ग्रामवासियों का समुचित पुनर्वास किये बिना ओंकारेश्वर बांध की ऊँचाई बढाने के लिये गाँव डुबोने की योजना के विरोध में घोगल के ग्रामवासियों का शांत अहिंसक विरोध विश्वास जगाता है कि देशवासियों की आत्मा पूरी तरह मरी नहीं है। बांधो के आर्थिक लाभ-हानि तो हम सब देख ही चुके हैं। लेकिन हम उसका मानवीय पक्ष कैसे भूल सकते हैं? अपनी कुर्सियों से चिपके सत्ताधीश ग़रीबों के विस्थापन की समस्या को कैसे समझेंगे? और फिर क्या मुआवजे का सही आँकलन और ईमानदार वितरण होगा? कब? क्या बांध से मिलने वाले लाभ, सिंचाई, बिजली, रोज़गार आदि पर इन विस्थापितों का कोई हक़ है? इन सबसे ऊपर की बात यह कि जिनके गाँव, घर-बार डुबोये जाते हैं क्या उन्हें लोकतंत्र में किसी निर्णय, सहमति, असहमति का अधिकार नहीं है? बड़े नगरों के वातानुकूलित भवनों में बैठे किसी भाग्य-विधाता ने उनसे कभी पूछा कि बड़े नगरों के बड़े व्यवसाइयों के लाभ के लिये उनकी जीवनशैली और पैतृक भूमि का बलिदान जायज़ है या नहीं? मैंने अपनी कहानी "बांधों को तोड़ दो" में जन-दमन के इसी पक्ष को प्रस्तुत करने का प्रयास किया था। अफ़सोस कि वे सवाल आज भी सर उठाये वैसे ही खड़े हैं।
मैं ग्राम घोघल आँवा, खंडवा, मध्यप्रदेश और जल आन्दोलन के आसपास के क्षेत्रों के डॉक्टरों से अपील करता हूँ कि ग्रुप बना कर वहाँ पहुँचें और आन्दोलनकारियों की चिकित्सा करने के साथ ही उन्हें समझायें कि वे देह की हानि करने की सीमा तक न जायें। आन्दोलन क्रमिक करें। दैहिक क्षति के बाद तो अपना भी सहारा नहीं रहेगा। - गिरिजेश राव
कई दिनों से पानी में आकंठ डूबे घोघलवासियों की इन तस्वीरों से आप व्यथित हुए हैं तो क्षमाप्रार्थी हूँ पर सभी पढने वालों से अनुरोध है कि इस समस्या का मानवीय हल निकालने के लिये जो कुछ भी आपके बस में हो करने का प्रयास कीजिये। जीवन बहुमूल्य है, वह व्यर्थ नहीं जाना चाहिये।


[आभार: इस पोस्ट के सभी चित्र विभिन्न समाचार स्रोतों से लिये गये हैं।]

10 सितम्बर 2012 अपडेट:
17-18 दिन से जल सत्याग्रह कर रहे लोगों के आगे झुकते हुए राज्य सरकार ने नर्मदा नदी पर बने ओंकारेश्वर बांध के जलस्तर को पहले की तरह 189 मीटर ही बनाये रखने की मांग मान ली है और जल-प्लावन प्रभावित लोगों की समस्याओं के निराकरण के लिये एक पाच सदस्यीय समिति बनाई है।
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* सम्बन्धित कड़ियाँ *
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मैजस्टिक मूंछें
नायकत्व ११ सितम्बर के बहाने
बांधों को तोड़ दो
जल सत्याग्रहियों के आगे झुकी सरकार

Saturday, September 1, 2012

दिल यूँ ही पिघलते हैं - कविता

उस आँख में बस मीठे सपने ही पलते हैं
सब अपने हैं उसके, वे भी जो छलते हैं।

(अनुराग शर्मा)


बर्ग वार्ता - पिट्सबर्ग की एक खिड़की
जो आग पे चलते हैं
वे पाँव तो जलते हैं

कितना भी रोको पर
अरमान मचलते हैं

युग बीते हैं पर लोग
न तनिक बदलते हैं

श्वान दूध पर लाल
गुदड़ी में पलते हैं

हालात पे दुनिया के
दिल यूँ ही पिघलते हैं

मानव का भाग्य बली
अपने ही छलते हैं

पत्थर मारो फिर भी
ये वृक्ष तो फलते हैं

शिखरों के आगे तो
पर्वत भी ढलते हैं

मेरे कर्म मेरे साथी
टाले से न टलते हैं।

* सम्बन्धित कड़ियाँ *

Saturday, August 11, 2012

वैजयंती, मेरे आंगन की - हरे कृष्णा!

वैजयंती की मुस्कान
* गवेधुक - वैजयन्ती माला *
(चित्र व परिचय: अनुराग शर्मा)

प्रसिद्ध अभिनेत्री और नृत्यांगना वैजयंतीमाला बाली लोक सभा सांसद रह चुकी हैं| वैजयंती माला का जन्म 13 अगस्त 1936 को मैसूर के एक आयंगर परिवार में हुआ। वे गॉल्फ़ की खिलाड़ी हैं और आज भी भरतनाट्यम का नियमित अभ्यास करती हैं| उनका विवाह डॉ. चमन लाल बाली के साथ हुआ। उन्हें जन्मदिन की अग्रिम शुभकामनायें!

प्राकृतिक मोती - वैजयंती के बीज
जन्माष्टमी आकर गई ही है। पूरा देश कृष्णमय हो रहा है। भगवान श्रीकृष्ण का वर्णन आने पर मयूरपंख और वैजयंती माला का ज़िक्र आना भी स्वाभाविक है। आज की इस पोस्ट का विषय भी यही दूसरी वाली वैजयंती माला है। भारतीय ग्रंथों के अनुसार यह वैजयंतीमाला श्रीकृष्ण के सीने पर सुशोभित होती है। शुभ्र श्वेत से लेकर श्यामल तक लगभग पाँच रंगों में उपलब्ध इसके मोती जैसे बीज प्राकृतिक रूप से ही छिदे हुए होते हैं और बिना सुई के ही माला में पिरोये जा सकते हैं। इसकी राखी और ब्रेसलैट आदि भी आसानी से बनाये जा सकते हैं। वैजयंती के पौधे का वैज्ञानिक नाम Coix lacryma-jobi है। संस्कृत में इसका एक नाम गवेधुक भी है। इसे अंग्रेज़ी में जॉब्स टीयर्स (job's tears) भी कहते हैं। चीनी में चुआंगू और जापानी में हातोमूगी के नाम से जाना जाता है। इसके मोती/बीज/दाने अमेरिका में चीनी किराने की दुकानों के साथ-साथ ऐमेज़ोन डॉट कॉम पर सरलता से उपलब्ध है जबकि भारत में भोज्य पदार्थ, सौन्दर्यबोध या पूजा सामग्री सभी प्रकार से हमारी परम्परा के अनेक अंगों की भांति यह पौधा भी उपेक्षित रह गया है।

गवेधुक के मोती जैसे फल वाला जंगली पौधा
ऐसा माना जाता है कि चावल के स्थान पर वैजयंती खाने से शरीर के कॉलेस्टरॉल में - विशेषकर बुरे कॉलेस्टरॉल में -कमी आती है। परंतु यह धारणा भी है कि यह दवाओं के साथ - विशेषकर डायबिटीज़ में - विचित्र व्यवहार कर सकता है। वैसे भी किसी भी दवा के सेवन के समय भोज्य पदार्थों के बारे में विशिष्ट सावधानी रखने की सलाह दी जाती है। वैजयंती एक जिजीविषा भरा पौधा है जो भारत के समस्त मैदानी क्षेत्रों में आराम से उग आता है। कीड़े-बीमारियों आदि से नैसर्गिक रूप से सुरक्षित वैजयंती के बीज हिन्द-चीन क्षेत्र के अनेक देशों में भोजन के लिये आटे के रूप में या चावल के विकल्प के रूप में खाये जाते हैं। कोरिया और चीन में इसके पेय और मदिरा भी बनाई जाती है। जापान में इसका सिरका और थाइलैंड में चाय भी बनती है। आश्चर्य नहीं कि यह पौधा भारतीय खेतों में अपने आप उग आता हो और अज्ञानवश खरपतवार समझकर उखाड़ दिया जाता हो। वैजयंती के बीज आरम्भ में धवल और नर्म होते हैं। कच्चे बीज को आसानी से छीला जा सकता है। पकने के साथ ही यह कड़े और स्निग्ध होते जाते है।

यह खर-पतवार वैजयंती नहीं है
वैसे पूजा सामग्री आदि बेचने वाले कुछ उद्यमी पहले से ही वैजयंती माला बेचते रहे हैं। लेकिन पिछले दिनों से वास्तु और ज्योतिष के फ़ैशन में आने के बाद से जहाँ रत्न आदि के व्यापार में उछाल आया है वहाँ वैजयंती माला के चित्र भी इंटरनैट पर दिखने लगे हैं। (वैजयंती माला का एक चित्र यहाँ देखा जा सकता है।) इन आधुनिक घटनाओं से इतर बहुत से भारतीय घरों में वैजयंती के पौधे लम्बे समय से लगे हैं। मेरे परिवार के कुछ घरों में भी ये पौधे हैं और उसके बीज (मोती या दाने) मेरे पास पिट्सबर्ग में भी रहे हैं। लेकिन सामान्यजन में इसकी जानकारी कम है। कई वर्ष पहले अंतर्जाल पर शायद किसी वैज्ञानिक पहेली में भी केलि के पौधे को वैजयंती बताया जा रहा था।

केलि (कैना लिली) भी वैजयंती नहीं है - यह चित्र गिरिजेश राव द्वारा
लेकिन इस बार जब एक आत्मीय की फ़ेसबुक वाल पर केलि के लिये वैजयंती नाम देखा तो पहचान के इस भ्रम पर रोशनी डालने के लिये वैजयंती पर लिखने का मन किया। लगता है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के कुछ क्षेत्रों में केलि के पौधे (कैना लिली) को किसी भ्रमवश वैजयंती समझा जा रहा है। इसके फूलों के तो हार भी बनते नहीं देखे, माला - वह भी वैजयंती - बनने की तो सम्भावना ही नहीं दिखती। पेड़-पौधों व पशु-पक्षियों के नामों के विषय में आलस अवाँछनीय होते हुए भी भारत में सामान्य है। ऐसे अज्ञान को बढावा देकर हम अन्जाने ही अपनी विरासत से दूर होते जा रहे हैं। सोमवल्ली जैसे पौधों की पहचान तो आज असम्भव सी दिखती है। ऐसे में ज़रूरत है कि भ्रम को बढावा देने से बचा जाये और जहाँ कहीं, जितनी बहुत पहचान बाकी रह गयी है उसे बचाया जाये।

गवेधुक, वैजयंती, जॉब्स टीयर्स - कितने नाम!
जब वैजयंती (या गवेधुक) पर लिखने की सोची तो यूँ ही मन में आया कि एक पौधा पिट्सबर्ग में उगाकर भी देखा जाये। कई गमलों में बीज लगाने के बाद उनमें से एक में घास-फूस जैसा जो कुछ भी उगा उसे उगने दिया। एक महीने में ही वैजयंती का पौधा अपनी अलग पहचान बताने लायक बड़ा हो गया है। यहाँ प्रस्तुत चित्र उसी पौधे का है। यह पौधा कुश घास जैसा दिखता है और मोती आने से पहले इसे ठीक से पहचान पाना या सामान्य घास से अलग कर पाना कठिन है। घास जैसे पौधों पर गिरिजेश ने पिछले वर्ष एक बहुत बढिया आलेख लिखा था, यदि आप फिर से पढना चाहें तो उसका लिंक इस आलेख के नीचे दिया गया है। आभार!

वैजयंती घास का सौन्दर्य
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"नहीं! वह सपना नहीं हो सकता।" देवकी ने कहा, "वह यहीं था, मेरे पास। मेरी नासिका में अभी तक उसकी वैजयंती माला के पुष्पों की गंध है। मेरे कानों में उसकी बाँसुरी के स्वर हैं। उसने छुआ भी था मुझे ..."

"तो तुम्हारा कृष्ण वंशी बजाता है?'' वसुदेव हँस पड़े, ''तुम्हें किसने बताया कि वह वंशी बजाता है? यादवों का राजकुमार वंशी बजाता है। वह ग्वाला है या चरवाहा कि वंशी बजाता है। तुमने कब देखा कि वह वैजयंती माला धारण करता है?"
[डॉ नरेंद्र कोहली के उपन्यास वसुदेव से एक अंश - लगता है नरेंद्र कोहली भी वैजयंती-माला को किसी खुशबूदार फूल का हार ही मान रहे हैं]
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आप सभी को कृष्ण जन्माष्टमी पर्व की हार्दिक बधाई!
सम्बन्धित कड़ियाँ *
* वैजयंती - विकीपीडिया
* कास, कुश, खस, दर्भ, दूब, बाँस के फूल और कुछ मनबढ़