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"मेरी लघुकथाएँ" से साभार |
- अनुराग शर्मा
सोमवार का दिन वैसे ही मुश्किल होता है, ऊपर से पहली तारीख़। अपने-अपने खाते से तनख्वाह के पैसे निकालने वाले फ़ैक्ट्री मज़दूरों से बैंक भरा रहा। बाद में कैश गिनना, बंडल बनाना, कटे-फ़टे नोटों को बही में लिखकर अलग करने आदि में सरदर्द हो गया। वापस घर के लिये निकलने में थोड़ी देर हो गई थी। लेकिन जून महीने की दिल्ली तो रात में भी किसी भट्टी की तरह सुलगती है। अपना खटारा स्कूटर लिये मैं घर की ओर निकला तो यूँ ही हाइवे पर चाय के एक खोखे पर नज़र पड़ी और दिल किया कि रुककर एक कप चाय पी जाये।
“सलाम बरमा जी।” दुकानदार ने मुझे देखकर अपने दायें हाथ से माथा झटका तो मुझे लगा कि बैंक का कोई ग्राहक होगा इसलिये मेरा नाम जानता है।
“देक्खा बरमा जी, बताओ तो सही, मैंने कैसे पैचाणा आपको?”
“बैंक में देखा होगा ... एक कप चाय दो, एकदम कड़क।“
“एक चाय लगा बाबूजी को, पेशल मेहमानों वाली, दुकान के खाते में” कारीगर को चाय का ऑर्डर देकर वह फिर मुझसे मुखातिब हुआ, “बाऊजी, मैंने आपकी किताब्बें पढ़ी हैं। आप तो सब कुछ मेरेई बारे में लिखते हैं।”
अब चौंकने की बारी मेरी थी, “तुम्हारे बारे में? यह कैसे भला?”
“वह नई सराय वाली कहानी मेरी है, हुँआ के ही तौ हैं हम ... और वो ‘दुरंत’ कहानी में जब सम्पादक अपने नौकर से ‘ओ खब्बीस ...’ कहता है, वो भी तो मेराई डायलॉग है।” इतना कहकर वह ज़ोर से चिल्लाया, “ओ खब्बीस ...”
न जाने कहाँ से एक मरियल से लड़के ने आकर डरते-डरते नरमी से पूछा, “बुलाया मालिक?”
“ना ना, वोई तो मैं बरमा जी को समझा रिया था ... अब तू जा, अपना काम कर,” फिर मेरी ओर मुखातिब होकर बोला, “देख लिया आपने? सौ फीसदी मेराई डायलॉग है जे।”
उसके पास मेरी चोरी का सबूत था, मैं क्या कहता? वह बोलता रहा, मैं सुनता रहा।
“और वह ... गधा वाली कहानी में ... खलनायक का नाम ... लित्तू, वह भी मेरा ही रख लिया ...”
“गधा नहीं भई, गदा, गदा वाली कहानी। मैंने तो बहुत सोच समझकर ऐसा नाम रखा था जो किसी का न हो ... लित्तू भाई”
“हाँ हाँ, वोई। नाम किसी का न हो का क्या मतलब है? मैं सामने बैठा तो हूँ, लितू परसाद। ऊपर बोर्ड नहीं देखा क्या? एल परसाद टी स्टाल। जे हूबहू मेरा ही नाम है।”
“माफ़ करना भाई, पता नहीं था।”
“माफ़ी किस बात की साहेब? वो देखिये… सामने रखी हैं आपकी किताबें। हर कहानी खुद पढ़ी है, खाली टेम में कभी-कभी एकाध पन्ना पढ़कर गिराकों को भी सुना देता हूँ। आपने तो अपनी कहानियों में जगह देकर मुझ जैसे ग़रीब चायवाले को मशहूर कर दिया। आपके लिये चाय मट्ठी बिस्कुट, सब मुफ़्त है इस दुकान में। जब चाहे आ जायें, जो चाहें, पियें खाएँ।”
मेरा सरदर्द काफ़ूर हो चुका था अपने नये पाठक से मिलकर। मैंने उठकर उसे गले लगा लिया। हिंदी कहानी के पाठक का जीवित होना मेरे लिये आशाजनक था।