Thursday, July 2, 2009

शैशव - एक कविता

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शैशव में सुख सारे थे।
सारे जग के प्यारे थे ।।

राज सभी पर अपना था।
चलते हुक्म हमारे थे।।

गुड्डे-गुडियाँ, गेंदें-गोली।
ईद, बिहू और पोंगल, होली।।

सब त्यौहार मनाते थे।
हम कितना इतराते थे।।

जीवन सुख से चलता था।
बिन मांगे सब मिलता था।।

दिन वैभव से कटते थे।
ऐसे ठाठ हमारे थे।।

शैशव में सुख सारे थे।
सारे जग के प्यारे थे ।।

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19 comments:

  1. गुजरे दिन याद करते हो, मियाँ?

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  2. आप ने तो बचपन की याद दिला दी...
    आप का ब्लाग अच्छा लगा...बहुत बहुत बधाई....

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  3. सुन्दर सलोनी कविता

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  4. मैंने भी इसी विषय पर एक कविता अभी कुछ दिन पूर्व ही अपने ब्लॉग पर पोस्ट की थी.
    विषय-वस्तु की समानता और बचपन की महानता के गुणगान हेतु आपका आभार.

    चन्द्र मोहन गुप्त

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  5. हमेशा यही बात सताती है भाई ...............बहुत सही चीज याद दिलाई....

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  6. बहुत सही पल याद दिलायी ....................बहुत बहुत शुक्रिया........

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  7. Wah....अच्छी कविता है अनुराग जी

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  8. बापन तो वैसे भी जीवन का स्‍वर्णिमकाल कहलाता है।
    -Zakir Ali ‘Rajnish’
    { Secretary-TSALIIM & SBAI }

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  9. ओहो..कितनी प्यारी और कोमल कविता रची है आपने. काश वो शैशव काल वापस लौट पाता. अब तो सपने मे भी नही झांकता वो समय. बहुत शुभकामनाएं.

    रामराम.

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  10. बहुत सुन्दर कविता जो बचपन की याद दिलाती है

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  11. बचपन के दिन भी क्या दिन थे.बहुत सुंदर लिखा जी आप ने.
    धन्यवाद

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  12. वो दिन भी क्या दिन थे जब पसीना गुलाब था, अब तो गुलाब से भी पसीने की बू आती है !!

    बचपन की बात, भी क्या बात है !!
    स्वप्न मंजूषा 'अदा'

    http://swapnamanjusha.blogspot.com/

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  13. क्य कुरेद दिया मित्र!

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  14. :-)
    शैशव सा नहीँ कुछ भी सलोना
    - लावण्या

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  15. शैशव का सुन्दर चित्रण किया है।
    बधाई।

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  16. खुशनसीब हैं आप जो ऐसा बचपन मिला। यहाँ तो करोड़ों बचपन कब बुढा जाते हैं पता ही नहीं चलता। टोकरी में धोती में लिपटे बचपन, अंगूठे के सहारे ही बडे होते हैं। हमारे काल में तो लम्‍बी-चौडी फोज हुआ करती थी, किसकी चाहतों का ध्‍यान रखते माता-पिता। बस वैसे ही पल गए। आपके बचपन के लिए बधाई।

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  17. इसको संयोग ही कहूंगा कि अभी अभी जो पोस्ट मैंने डाली है वह भी बच्चों की खुशी को लेकर है.

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  18. अम्मा डांट लगाती थीं
    दादी हमें बचाती थीं
    अपने हाथों आंगन में
    चावल दूध खिलाती थीं।
    (भाई आपकी कविता ने बचपन याद दिला दिया। लेकिन तब हमारे गांव में मम्मी-पापा नहीं होते थे। अम्मा और बाबूजी होते थे। दादी जी होती थीं।)

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