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पिछली दो किस्तों में आपने पढा कि किस तरह विपरीत प्रकृति के दो सहकर्मी एक दूसरे के मित्र बने और बिछड़ गए। एक दिन ख़बर आयी आतंकवादी दरिंदों द्वारा कल्लर की हत्या की। फ़िर क्या हुआ? आईये देखें इस कड़ी में। पिछली कड़ियाँ यहाँ उपलब्ध हैं खंड 1; खंड 2; आपके सुझाव, शिकायतें और टिप्पणियाँ मेरे लिए महत्त्वपूर्ण हैं। कृपया बताइये ज़रूर कि आप इस कहानी के बारे में क्या सोचते हैं.
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यह ज़रूर सपना ही होगा। अगर हकीकत थी तो यह तय है कि सच्चे दिल से माँगी गयी दुआओं में सचमुच बड़ा असर होता है। मेरे सामने एक हट्टा-कट्टा आदमी चला आ रहा था। ऐसा लगता था जैसे कि किसी ने कल्लर को हवा भरकर फुला दिया हो। मुझे देखकर वह खुशी के मारे ज़ोर से चिल्लाया, "अरे मेरे चुनमुन, तू तो आज भी वैसा ही है मैन।"
"अरे, कल्लर ज़िंदा है क्या?" मेरा मुँह आश्चर्य से खुला का खुला रह गया। मैं तो हमेशा ही भगवान् से यह मनाता था कि उसके मरने की ख़बर झूठ हो। फ़िर भी उसे सामने देखकर मुझे अचम्भा तो बहुत हुआ। शायद यह मेरा भ्रम ही हो मगर वह पहले से काफी फर्क लग रहा था। इतने दिनों में वह न सिर्फ़ मोटा हुआ था बल्कि मुझे तो वह पहले से कुछ लंबा भी लग रहा था।
मेरा दिमाग कुछ समझ नहीं पा रहा था। रंग-रूप, चटख वेश-भूषा, लाउड हाव-भाव और ज़ोर-ज़ोर से बोलना, यह व्यक्ति कल्लर न हो यह हो ही नहीं सकता था। क्या भगवान् ने मेरी पुकार सुन ली? वह मरा नहीं था? अखबार की कतरन ही झूठी थी या फ़िर आतंकवादियों के हत्थे उसी नाम का कोई और व्यक्ति चढ़ गया था? मैं खुशी से उछलता हुआ उसकी और लपका। उसने भी आगे बढ़कर मुझे गले लगाया।
"आज सिगरेट के बिना कैसे?" मैंने आश्चर्य से पूछा, "छोड़ दी क्या?"
"नहीं चुनमुन, तुझसे मिलने आ रहा था सो बिल्कुल जेंटलमैन बनकर आया मैन!" वह अपने विशिष्ट अंदाज़ में बोला, "क्यों डर गया क्या मुझे देखकर?"
"अरे मैं भूत नहीं हूँ, तू खुश नहीं है क्या कि मैं मरा नहीं?" वह हमेशा जैसे ही हँसते हुए बोला।
"मेरी खुशी को कौन समझ सकता है" मैंने आश्चर्य मिश्रित आल्हाद से कहा।
"हाँ, मैं तो जानता हूँ तुझे, साढ़े तीन महीने झेला है!" मुझसे मिलकर वह बहुत खुश था, "याद है तुझसे दिल्ली में मिलने का वादा किया था मैंने, आरा छोड़ते समय?"
भोजन का वक़्त था। मैंने हम दोनों के लिए खाना मंगाया और हम लोग बातें करने लगे। उसने बताया कि वह कभी सरकारी अफसर बना ही नहीं था। न ही उसने स्कूल के दिनों के बाद कभी कश्मीर के शालीमार बाग़ में कदम ही रखा। वह तो सिटीबैंक छोड़कर कलकत्ता में जीवन बीमा निगम में चला गया था। ख़बर पढ़कर उसके घर में भी काफी हंगामा हुआ था। अनिता तो इतनी बीमार हो गयी थी कि अगर वह सचमुच जीवित न पहुँचता तो शायद मर ही जाती। बाद में पता लगा कि मुजाहिदीन का शिकार व्यक्ति राजनगर का था भी नहीं। किसी तरह से अखबार की दो खबरें उलट-पुलट हो गयी थीं। कैसे हुईं या फ़िर उसका ही नाम क्यों आया, इसके बारे में उसको कुछ मालूम नहीं था।
हमने आरा की बहुत सी बातें याद कीं। वह सभी साथियों के बारे में पूछता रहा। बहुत उत्साह से उसने अपने और परिवार के बारे में भी काफी बातें बताईं। उसने अनिता से शादी कर ली थी। बहन की पढाई पूरी होकर रामगढ में शादी हो गई थी। माता-पिता कभी राजनगर तो कभी रामगढ में रहते हैं। कभी कलकत्ता नहीं आते। उन्हें बड़े शहर और छोटे फ्लैट पसंद नहीं हैं, यह बताते हुए वह थोड़ा उदास हो गया। कुछ देर और रूककर वह निकल गया। उसकी उसी दिन की कलकत्ता की जहाज़ की टिकट बुक थी इसलिए वह ज़्यादा देर रुक नहीं सकता था।
चलने से पहले हमारे बीच अपने कार्डों का आदान प्रदान हुआ। उसने मुझे जीवन बीमा निगम का अपना कार्ड दिया। कार्ड पर उसका घर का फ़ोन नंबर नहीं छपा था तो उसने मेरी मेज़ पर सीडी पर लिखने के लिए पड़े एक स्थायी मार्कर को उठाकर उसीसे लिख दिया। कुछ ही क्षणों में वह जैसे आया था वैसे ही मुस्कराता हुआ चला गया। मैं उस दिन बड़ा खुश था।
आरा प्रवास में कल्लर ने अपने कैमरे से मेरे बहुत से फोटो लिए थे. उन्ही में से एक.
रात में घर पहुँचकर मैंने पत्नी को बड़ी उतावली से दिन की घटना सुनाई। रात में सोने से पहले यूँ ही मैंने अखबार की कतरन देखने के लिए विनोबा के गीता प्रवचन की किताब हाथ में ली। सारी किताब झाड़ी मगर उसमें कल्लर की कतरन नहीं मिली। पत्नी ने भी ढूंढा, मगर कागज़ का वह टुकडा कहीं नहीं था। उसे सिर्फ़ एक संयोग समझकर मैंने पत्नी को दिखाने के लिए बटुए में से कल्लर का कार्ड निकाला तो पाया कि मेरे हाथ में जो कार्ड था वह बिल्कुल कोरा था - कुछ भी नहीं, स्थायी मार्कर का लाल निशान तक नहीं।
महीने के अंत में जब कैंटीन वाले हर्ष बहादुर ने मेरा महीने भर का बिल दिया तो उसमें हर रोज़ का सिर्फ़ एक ही लंच लगा हुआ था। मैंने उसे बुलाकर गलती सही करने को कहा मगर वह अड़ा रहा कि उसने हर दिन मेरे लिए सिर्फ़ एक ही खाना भेजा है। पूरे महीने में किसी दिन भी मेरे नाम से दो लंच नहीं आए। प्रशांत को भी याद नहीं आता कि कल्लर नाम का मेरा कोई पुराना मित्र मुझसे मिलने दफ्तर आया था। राजेश कहता है कि जब वह पिछली बार राजनगर गया था तो कल्लर के परिवार से मिला था और इस बात में शक की कोई भी गुंजाइश नहीं है कि कल्लर का पार्थिव शरीर हमारे बीच नहीं है। उसने यह भी बताया कि उस घटना के कुछ दिन बाद ही अनिता भी डेंगू जैसी किसी बीमारी का शिकार होकर चल बसी।
वह दिन है और आज का दिन, जब भी समय मिलता है मैं टेलीफोन निर्देशिकाओं में, नेटवर्किंग साइट्स पर, और इन्टरनेट पर कल्लर के नाम की खोज करता हूँ। जब भी कोई पुराना सहकर्मी मिलता है तो उसके बारे में पूछता हूँ। मगर कभी भी उसके जीवित होने की कोई जानकारी नहीं मिली।
[समाप्त]
[नोट: इस कहानी के सभी पात्र, नाम, स्थान, संस्थान, व्यवसाय तथा घटनाएँ काल्पनिक हैं. यहाँ तक कि इस कहानी का लेखक और उसका चित्र भी पूर्णतः काल्पनिक है।]
पिछली दो किस्तों में आपने पढा कि किस तरह विपरीत प्रकृति के दो सहकर्मी एक दूसरे के मित्र बने और बिछड़ गए। एक दिन ख़बर आयी आतंकवादी दरिंदों द्वारा कल्लर की हत्या की। फ़िर क्या हुआ? आईये देखें इस कड़ी में। पिछली कड़ियाँ यहाँ उपलब्ध हैं खंड 1; खंड 2; आपके सुझाव, शिकायतें और टिप्पणियाँ मेरे लिए महत्त्वपूर्ण हैं। कृपया बताइये ज़रूर कि आप इस कहानी के बारे में क्या सोचते हैं.
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यह ज़रूर सपना ही होगा। अगर हकीकत थी तो यह तय है कि सच्चे दिल से माँगी गयी दुआओं में सचमुच बड़ा असर होता है। मेरे सामने एक हट्टा-कट्टा आदमी चला आ रहा था। ऐसा लगता था जैसे कि किसी ने कल्लर को हवा भरकर फुला दिया हो। मुझे देखकर वह खुशी के मारे ज़ोर से चिल्लाया, "अरे मेरे चुनमुन, तू तो आज भी वैसा ही है मैन।"
"अरे, कल्लर ज़िंदा है क्या?" मेरा मुँह आश्चर्य से खुला का खुला रह गया। मैं तो हमेशा ही भगवान् से यह मनाता था कि उसके मरने की ख़बर झूठ हो। फ़िर भी उसे सामने देखकर मुझे अचम्भा तो बहुत हुआ। शायद यह मेरा भ्रम ही हो मगर वह पहले से काफी फर्क लग रहा था। इतने दिनों में वह न सिर्फ़ मोटा हुआ था बल्कि मुझे तो वह पहले से कुछ लंबा भी लग रहा था।
मेरा दिमाग कुछ समझ नहीं पा रहा था। रंग-रूप, चटख वेश-भूषा, लाउड हाव-भाव और ज़ोर-ज़ोर से बोलना, यह व्यक्ति कल्लर न हो यह हो ही नहीं सकता था। क्या भगवान् ने मेरी पुकार सुन ली? वह मरा नहीं था? अखबार की कतरन ही झूठी थी या फ़िर आतंकवादियों के हत्थे उसी नाम का कोई और व्यक्ति चढ़ गया था? मैं खुशी से उछलता हुआ उसकी और लपका। उसने भी आगे बढ़कर मुझे गले लगाया।
"आज सिगरेट के बिना कैसे?" मैंने आश्चर्य से पूछा, "छोड़ दी क्या?"
"नहीं चुनमुन, तुझसे मिलने आ रहा था सो बिल्कुल जेंटलमैन बनकर आया मैन!" वह अपने विशिष्ट अंदाज़ में बोला, "क्यों डर गया क्या मुझे देखकर?"
"अरे मैं भूत नहीं हूँ, तू खुश नहीं है क्या कि मैं मरा नहीं?" वह हमेशा जैसे ही हँसते हुए बोला।
"मेरी खुशी को कौन समझ सकता है" मैंने आश्चर्य मिश्रित आल्हाद से कहा।
"हाँ, मैं तो जानता हूँ तुझे, साढ़े तीन महीने झेला है!" मुझसे मिलकर वह बहुत खुश था, "याद है तुझसे दिल्ली में मिलने का वादा किया था मैंने, आरा छोड़ते समय?"
भोजन का वक़्त था। मैंने हम दोनों के लिए खाना मंगाया और हम लोग बातें करने लगे। उसने बताया कि वह कभी सरकारी अफसर बना ही नहीं था। न ही उसने स्कूल के दिनों के बाद कभी कश्मीर के शालीमार बाग़ में कदम ही रखा। वह तो सिटीबैंक छोड़कर कलकत्ता में जीवन बीमा निगम में चला गया था। ख़बर पढ़कर उसके घर में भी काफी हंगामा हुआ था। अनिता तो इतनी बीमार हो गयी थी कि अगर वह सचमुच जीवित न पहुँचता तो शायद मर ही जाती। बाद में पता लगा कि मुजाहिदीन का शिकार व्यक्ति राजनगर का था भी नहीं। किसी तरह से अखबार की दो खबरें उलट-पुलट हो गयी थीं। कैसे हुईं या फ़िर उसका ही नाम क्यों आया, इसके बारे में उसको कुछ मालूम नहीं था।
हमने आरा की बहुत सी बातें याद कीं। वह सभी साथियों के बारे में पूछता रहा। बहुत उत्साह से उसने अपने और परिवार के बारे में भी काफी बातें बताईं। उसने अनिता से शादी कर ली थी। बहन की पढाई पूरी होकर रामगढ में शादी हो गई थी। माता-पिता कभी राजनगर तो कभी रामगढ में रहते हैं। कभी कलकत्ता नहीं आते। उन्हें बड़े शहर और छोटे फ्लैट पसंद नहीं हैं, यह बताते हुए वह थोड़ा उदास हो गया। कुछ देर और रूककर वह निकल गया। उसकी उसी दिन की कलकत्ता की जहाज़ की टिकट बुक थी इसलिए वह ज़्यादा देर रुक नहीं सकता था।
चलने से पहले हमारे बीच अपने कार्डों का आदान प्रदान हुआ। उसने मुझे जीवन बीमा निगम का अपना कार्ड दिया। कार्ड पर उसका घर का फ़ोन नंबर नहीं छपा था तो उसने मेरी मेज़ पर सीडी पर लिखने के लिए पड़े एक स्थायी मार्कर को उठाकर उसीसे लिख दिया। कुछ ही क्षणों में वह जैसे आया था वैसे ही मुस्कराता हुआ चला गया। मैं उस दिन बड़ा खुश था।
आरा प्रवास में कल्लर ने अपने कैमरे से मेरे बहुत से फोटो लिए थे. उन्ही में से एक.
रात में घर पहुँचकर मैंने पत्नी को बड़ी उतावली से दिन की घटना सुनाई। रात में सोने से पहले यूँ ही मैंने अखबार की कतरन देखने के लिए विनोबा के गीता प्रवचन की किताब हाथ में ली। सारी किताब झाड़ी मगर उसमें कल्लर की कतरन नहीं मिली। पत्नी ने भी ढूंढा, मगर कागज़ का वह टुकडा कहीं नहीं था। उसे सिर्फ़ एक संयोग समझकर मैंने पत्नी को दिखाने के लिए बटुए में से कल्लर का कार्ड निकाला तो पाया कि मेरे हाथ में जो कार्ड था वह बिल्कुल कोरा था - कुछ भी नहीं, स्थायी मार्कर का लाल निशान तक नहीं।
महीने के अंत में जब कैंटीन वाले हर्ष बहादुर ने मेरा महीने भर का बिल दिया तो उसमें हर रोज़ का सिर्फ़ एक ही लंच लगा हुआ था। मैंने उसे बुलाकर गलती सही करने को कहा मगर वह अड़ा रहा कि उसने हर दिन मेरे लिए सिर्फ़ एक ही खाना भेजा है। पूरे महीने में किसी दिन भी मेरे नाम से दो लंच नहीं आए। प्रशांत को भी याद नहीं आता कि कल्लर नाम का मेरा कोई पुराना मित्र मुझसे मिलने दफ्तर आया था। राजेश कहता है कि जब वह पिछली बार राजनगर गया था तो कल्लर के परिवार से मिला था और इस बात में शक की कोई भी गुंजाइश नहीं है कि कल्लर का पार्थिव शरीर हमारे बीच नहीं है। उसने यह भी बताया कि उस घटना के कुछ दिन बाद ही अनिता भी डेंगू जैसी किसी बीमारी का शिकार होकर चल बसी।
वह दिन है और आज का दिन, जब भी समय मिलता है मैं टेलीफोन निर्देशिकाओं में, नेटवर्किंग साइट्स पर, और इन्टरनेट पर कल्लर के नाम की खोज करता हूँ। जब भी कोई पुराना सहकर्मी मिलता है तो उसके बारे में पूछता हूँ। मगर कभी भी उसके जीवित होने की कोई जानकारी नहीं मिली।
[समाप्त]
[नोट: इस कहानी के सभी पात्र, नाम, स्थान, संस्थान, व्यवसाय तथा घटनाएँ काल्पनिक हैं. यहाँ तक कि इस कहानी का लेखक और उसका चित्र भी पूर्णतः काल्पनिक है।]