Friday, December 7, 2012

कितना पैसा कितना काम - आलेख

 (अनुराग शर्मा)

वेतन निर्धारण एक जटिल प्रक्रिया है। भारत में एक सरकारी बैंक की नौकरी के समय उच्चाधिकारियों द्वारा जो एक बात बारम्बार याद दिलाई जाती थी, वह यह थी कि हम 24 घंटे के कर्मचारी थे। यह सर्वज्ञात था कि हमारा वेतन हमारे उस अतिरिक्त समय के हिसाब से तय नहीं किया जाता था। मेरे कितने ही अधीनस्थ मुझसे अधिक वेतन भत्ते पाते थे। कम्युनिस्ट देशों में तो वेतन कर्मचारी के काम, अनुभव या शिक्षा आदि पर आधारित न होकर सरकार द्वारा आँकी गई उनकी व्यक्तिगत आवश्यकताओं के आधार पर निर्धारित होता था।

आज समय बदल चुका है। कम्युनिस्ट तंत्र तो अपनी विद्रूपताओं के चलते दुनिया भर से लगभग साफ़ ही हो चुके हैं। नये संचार माध्यम और व्यापक जागरूकता के कारण सैन्य और धार्मिक तानाशाहियाँ भी समाप्ति के कगार पर ही हैं। लोकतंत्र का दायरा बढता जा रहा है। और इसके साथ ही बढ रही है व्यक्तिगत सम्पत्ति, और व्यवसाय चुनने की स्वतंत्रता। भारत, जापान, जर्मनी और अमेरिका जैसे लोकतंत्रीय राष्ट्रों में सिद्धांततः प्रत्येक व्यक्ति को अपनी मर्ज़ी का काम करने की पूरी स्वतंत्रता है। और उसी तरह कम्पनियों को भी आवश्यकतानुसार सुशिक्षित, कुशल और पद के लिये सटीक व्यक्ति चुनने और उन्हें भरपूर वेतन-भत्ते देने का अधिकार है।

श्रम है तो उसके मूल्य की बात उठना स्वाभाविक ही है। विभिन्न कर्मचारियों के कार्य की परिस्थितियाँ एक दूसरे से अलग होती हैं, और उसी प्रकार उनके वेतन की संरचना भी अलग होती है। कुछ दशक पहले के भारत में व्यक्ति एक बार एक नौकरी में घुसता था तो रिटायर होकर ही निकलता था लेकिन अब हालात दूसरे हैं। सूचना-संचार क्रांति और अंतर्राष्ट्रीय निगमों के आने के बाद से नौकरी के क्षेत्र में गलाकाट प्रतिस्पर्धा चल रही है। कर्मचारियों को ऊँची तनख्वाह देना नियोक्ताओं का नैतिक कर्तव्य ही नहीं उनकी मजबूरी भी बन गया है। “पैकेज” आज के युवा का मूलमंत्र सा है।

विज्ञान की प्रगति के साथ संसार भी सिकुड़ सा गया है। एक-दूसरे देश में आना जाना पहले से कहीं आसान हुआ है। इसके साथ ही अपने घर बैठे-बैठे दूर देश के नियोक्ता के लिये काम कर पाना भी सम्भव है। नियोक्ता और कर्मचारी के देशों के बीच की प्रति-व्यक्ति आय में अंतर होना भी स्वाभाविक है। अमेरिका में रहकर काम करते हुए भारत से अधिक वेतन पाना सामान्य बात है क्योंकि वहाँ का जीवन स्तर और जीवन यापन की लागत दोनों ही अलग हैं। कार्य-संस्कृति भी अलग है लेकिन उस पर बात फिर कभी होगी। भारत में रहते हुए किसी विदेशी संस्थान में काम करना एक अलग ही अनुभव है क्योंकि तब आप भारतीय परिवेश में रहते हुए भी अमेरिकी जीवन-स्तर के निकट होते हैं। इन विदेशी संस्थानों के सामने अपने मानव संसाधनों को न केवल बनाये रखने की चुनौती है बल्कि उसी संस्थान में रहते हुए उनको आगे बढने की प्रेरणा देने का ज़िम्मा भी है। ये संस्थान एक बड़ी चुनौती का सामना कर रहे हैं। बिल्कुल भिन्न वातावरण से आये, बल्कि कई बार दूर देश में ही रहते हुए काम कर रहे कर्मियों को अपनी कार्य संस्कृति से परिचित कराना, उन्हें एक अपरिचित नियमितता में ढालना आसान काम नहीं है। नैतिक, सामाजिक भेदों के अलावा बहुत से वैधानिक अंतर भी हैं जिन्हें समझने के लिये कर्मचारी चयन प्रक्रिया का एक उदाहरण काफ़ी है। भारत से आने वाले बहुत से आवेदनों में आवेदक के शिक्षा-वृत्त में जन्मतिथि, डिग्री पाने की तारीखें और माता-पिता के नाम आदि सामान्य सी बातें है जबकि अमेरिका में किसी आवेदक के जीवनवृत्त में सामान्यतः ऐसा कुछ नहीं होता जिससे उसकी आयु, सामाजिक स्थिति आदि का पता लग सके। बस काम से काम रखना शायद इसी को कहते हैं। भेदभाव से बचने के लिये, साक्षात्कार के जटिल नियमों के अनुसार किसी आवेदक के राष्ट्रीय मूल, आयु आदि के बारे में पूछना ग़ैर-क़ानूनी बनाया गया है। खासकर अमेरिका में पनपी बहुविध संस्कृति ने अपने द्वार दुनिया भर के योग्य कर्मचारियों के खोल रखे हैं।

बुद्धि-श्रम सम्मान के इस भौगोलिक परिदृश्य में आज के इस समय में भारत की स्थिति विशिष्ट है। भारतीय संस्कृति ने अनेक धार्मिक, ऐतिहासिक कारणों से शिक्षा को सदैव ही मूर्धन्य स्थान दिया है। भले ही आज़ादी के दशकों बाद भी देश का निर्धन वर्ग मूलभूत साक्षरता से वंचित हो, भले ही खेलों में हमारी दशा अति-शोचनीय हो, हमारे शिक्षण संस्थानों से आज भी किसी अन्य देश से अधिक चिकित्सक, अभियंता और अनुसन्धानकर्ता निकलते हैं। सूचना क्रांति के आरम्भिक दिनों की बात है जब बैंगळूरु जैसे नगरों में सूचना प्रौद्योगिकी में काम कर रहे कर्मचारी भोजनावकाश के समय भर्ती करनेवालों के दलों द्वारा घेर लिये जाते थे। समय के साथ तरीके बदले हैं लेकिन आधुनिक तकनीक की बढती मांग को न कोई मन्दी, और न कोई युद्ध ही मिटा सका है।

किसी भारतीय को बहुराष्ट्रीय संस्थान द्वारा उच्च पद या अद्वितीय रूप से बड़ा वेतन दिया जाना अक्सर अखबारों की सुर्खी बनता है। पिछले दिनों फ़ेसबुक ने भोपाल के मौलाना आजाद नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (मैनिट) में कैंपस प्लेसमेंट के लिए छात्रों के वृत्तांत मांगे थे जिनमें से चुने गये छात्रों को अस्सी लाख रुपये से लेकर सवा करोड़ तक का वेतन दिये जाने की सम्भावना है। यह वेतन अब तक के सबसे बड़े प्रस्तावों में से एक है। ऐसी खबर पढकर जहाँ प्रसन्नता होती है वहीं कई प्रश्न भी उठते हैं, यथा: ऐसा कौन सा काम है कि जिसके लिये इतना बड़ा पैकेज प्रदान किया जाता है? आखिर बड़े वेतन तय कैसे होते हैं? बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के कामकाज और उनके प्रतिभा खोज अभियान कैसे काम करते हैं? आदि। सरकारी क्षेत्रों के वेतन अक्सर किसी व्यापक अध्ययन या किसी आयोग की सिफ़ारिशों पर आधारित होते हैं। कुछ क्षेत्रों में आज भी मज़दूर संघ हैं जो प्रबन्धन से बातचीत करके एक नियमित अंतराल के लिये वेतन करार करते हैं। कम कर्मचारी, विशिष्ट तकनीक, नवोन्मेषी उत्पाद, और विश्वव्यापी व्यवसाय वाले संस्थान अक्सर अपने वेतन तय करने के लिये पद की अर्हतायें, योग्यता की सुलभता, जन-संसाधन के बारे में उपलब्ध जानकारी व तकनीक आदि के साथ साथ नवागंतुक की व्यक्तिगत विशेषताओं को भी ध्यान में रखते हैं। अधिकांश कार्यस्थलों की संरचना इस प्रकार की होती है कि शारीरिक विकलांगता, लिंगभेद आदि के कारण किसी कर्मचारी के साथ जाने-अनजाने भेदभाव न हो।

बहुत से पदों के वेतनमान कार्य की विशेषता और नियोक्ता की भौगोलिक स्थिति से रूढ होते हैं लेकिन तब भी सक्षम कम्पनियाँ अपनी पहल बनाये रखने के लिये अधिक वेतन व सुविधायें देकर बेहतर कर्मचारी पाने को लालायित रहती हैं। लेकिन कई बार ऐसा भी होता है कि पद और वेतन का कार्य निष्पादन से कोई खास संतुलन नहीं बन पाता। कितनी ही बार बड़ी कम्पनियाँ किसी बड़े सौदे की आशा में कर्मचारियों की फ़ौज खड़ी कर लेती हैं ताकि काम मिलने की स्थिति में उसे कुशलता से निबटाया जा सके। काम आया तो ठीक वर्ना ऐसे कर्मचारियों को स्थानांतरण या बर्खास्तगी का सामना भी करना पड़ता है।

रोज़गार के क्षेत्र में नित नई जानकारी का प्रयोग भी धड़ल्ले से हो रहा है। कर्मचारियों का मनोबल ऊँचा कैसे रहे? उनकी अभिप्रेरणा क्या हो? ऐसा क्या किया जाये कि काम से उन्हें उदासी नहीं, प्रसन्नता मिले। भारत में केनरा बैंक में नौकरी के समय से मुझे मनन-कक्ष (मेडिटेशन रूम) का विचार याद है। अमेरिका की अधिकांश कम्पनियाँ अपने कर्मचारियों को मूलभूत से अधिक सुविधायें देने का प्रयास करती हैं। फ़्लेक्सि-ऑवर्स यानि कर्मचारी की सुविधानुसार कार्य-समय का निर्धारण, स्वास्थ्य सुविधा, जीवन बीमा, आवागमन, पार्किंग स्थल आदि से कहीं आगे बढकर कर्मचारियों को उच्च या विशिष्ट शिक्षा की सुविधायें देना, घर से काम करने का सुरक्षित वातावरण प्रदान करना, दूसरे नगर, देश आदि से आने पर आने-जाने, सामान पहुँचाने से लेकर पुराना घर बेचने और नया घर लेने आदि जैसे कार्य भी कई बार नये नियोजक द्वारा निष्पादित किये जाते हैं। भारत से आये कर्मचारियों के लिये विधिक प्रायोजन और ग्रीन कार्ड आदि से सम्बन्धित खर्च करना भी एक आम बात है।

यदि कम्पनी किसी पद के लिये अनुभव के साथ-साथ प्रबन्धन की शिक्षा की आवश्यकता महसूस करती है तो उसके सामने कई विकल्प दिखते हैं। किसी अनुभवी कर्मचारी को शिक्षित करना या पहले से शिक्षित अनुभवी कर्मचारी को लेना। क्या किया जायेगा यह अनेक बातों पर निर्भर करता है, जैसे आवश्यकता की योजना कितने पहले बनाई जा चुकी है, अनुभवी एमबीए कितने सुलभ हैं और बाहर से उन्हें बुलाने में क्या-क्या अड़चनें हैं। कुल मिलाकर आज के बहुराष्ट्रीय संस्थानों का का मूलमंत्र है, सर्वश्रेष्ठ कर्मचारी पाना जो संख्या में भले ही कम हों मगर काम में किसी से भी कम न हों और इस काम के लिये धन कोई बाधा नहीं है।
प्रस्तुत आलेख गर्भनाल पत्रिका के नवंबर 2012 अंक में प्रकाशित हुआ था जिसकी प्रति यहां उपलब्ध है

Sunday, December 2, 2012

यारी है ईमान - कहानी

ज़माना गुज़र गया भारत गए हुए, फिर भी उनका मन वहाँ की गलियों से बाहर आ ही नहीं पाता। जब भी जाते हैं, दिल किसी गुम हुई सी जगह को फिर-फिर ढूँढता है। कितनी ही बार अपने को शिरवळ के बस अड्डे पर अकेले बैठे हुए देखते हैं। कभी मुल्ला जी के रिक्शे पर शांति निकेतन जाता हुआ महसूस करते हैं तो कभी बाँस की झोंपड़ी में कविराज के मणिपुरी संगीत की स्वर लहरियाँ सुनते हुये। रामपुर के शरीफे का दैवी स्वाद हो या लखनऊ के आम की मिठास, बरेली में साइकिल से गिरकर घुटने छील लेना भी याद है और बदायूँ की रामलीला के संवाद भी। नन्दन से धर्मयुग और चंदामामा से न्यूज़वीक तक के सफर के बाद आज भी बालसभा की पहेलियाँ, इंद्रजाल कोमिक्स की रोमांचकारी दुनिया और दीवाना के गूढ कार्टून मनोरंजन करते से लगते हैं। स्कूल कॉलेज की यादों के साथ ही लखनऊ, दिल्ली और चेन्नई में शुरू की गई पहली तीन नौकरियों का उत्साह भी अब तक वैसा ही बना हुआ है।

पूना हो या पनवेल, कुछ यादें हल्की हैं और कुछ गहरी। लेकिन जो एक शहर अब भी उनके सपनों में लगभग रोज़ ही आता है वह है जम्मू! कितनी ही यादें जुड़ी हैं उस रहस्यमयी दुनिया से जो तब बन ही रही थी। जंगली फूलों की नशीली गंध से सराबोर पथरीली चट्टानों को काटकर बहती तवी नदी, और रणबीर नहर में तैरने जाना हो या पुराने पहाड़ी नगर के इर्दगिर्द बन रहे उपनगरीय क्षेत्रों में तलहटी में जाकर स्वादिष्ट लाल गरने चुनकर लाना। सुबह शाम स्कूल आते जाते समय आकाश को झुककर धरती छूते देखने का अनूठा अनुभव हो या जगमगाते जुगनुओं को देखकर आश्चर्यचकित होने की बारी हो, जम्मू की यादें छूटती ही नहीं।

भाषाई आधार पर राज्यों के निर्माण के बारे में बहुत बहसें हो चुकी हैं। लेकिन देशभर में रहने के बाद वे अब इस बात को गहराई से मानते हैं कि अलग इकाई बनाने की बात हो या अलग पहचान की, मानव-मात्र के लिए भाषा से बड़ी पहचान शायद मजहब की ही हो सकती है दूसरी कोई नहीं। भाषाएँ तोड़ती भी हैं और जोड़ती भी हैं। वे हमारी पहचान भी हैं और संवाद का साधन भी। वे जहाँ भी रहे, भाषा की समस्या रही तो लेकिन मामूली सी ही। अधिकांश जगहों पर लोगों को टूटी-फूटी ही सही, हिन्दी आती ही थी, कभी-कभी अङ्ग्रेज़ी भी। जम्मू में यह कठिनाई और भी आसान हो गई थी, लवलीन और रमणीक जैसे सहपाठी जो थे। हमेशा मुस्कराने वाली लवलीन जब किसी को उनकी भाषा या बोलने के अंदाज़ पर टिप्पणी करते देखती तो उसकी भृकुटियाँ तन जातीं और बस्स ... समझो किसी की शामत आयी। लंबा चौड़ा रमणीक उतना दबंग नहीं था। उससे दोस्ती का कारण था, हिन्दी पर उसकी पकड़। पूरी कक्षा में वही एक था जो उनकी बात न केवल पूर्णतः समझता था बल्कि लगभग उन्हीं की भाषा में संवाद भी कर सकता था।

पाठशाला जाने के लिए राजमहल परिसर से होकर निकलना पड़ता था। शाम को बस आने तक साथ के बच्चों के साथ अंकल जी की दुकान पर इंतज़ार। उसी बीच मे कई बार ऐसा भी हुआ जब रमणीक के साथ रघुनाथ मंदिर स्थित उसके घर भी जाना हुआ। वे लोग पक्के हिन्दूवादी साहित्यकार थे। शाखा के बारे मे पहली बार वहीं जाना और जनसंघ के बारे मे भी वहीं सुना। गोष्ठी से लेकर बाल भारती तक के शब्द पहली बार रमणीक के मुँह से ही पता लगे। खासकर अपना नाम बताते हुए जब वह सलीके से रमणीक गुप्त कहता था तो रमनीक गुप्ता पुकारने वाले सभी डोगरे बच्चे शर्मा जाते थे। लवलीन की बात और थी, वह उसे सदा ओए रमनीके कहकर ही बुलाती थी।

वे अक्सर सोचते थे कि उनके बचपन के साथी वे सब लोग अब न जाने कहाँ होंगे। उनकी यादें चेहरे पर मुस्कान लाती थीं। मन में सदा यही रहा कि किसी न किसी दिन जम्मू जाना ज़रूर होगा। तब ढूंढ लेंगे अपने नन्हे दोस्तों को। लवलीन का पूरा नाम, घर, ठिकाना कुछ भी नहीं मालूम, इसलिए कभी उसकी खोज नहीं की लेकिन रमणीक गुप्त से मुलाकात की उम्मीद कभी नहीं छूटी।

उस दिन तो मानो लॉटरी ही खुल गई जब रमणीक के छोटे भाई वीरभद्र का नाम इंटरनेट पर नज़र आया। पता लगा कि वह गुड़गांव की एक अंतर्राष्ट्रीय कंपनी में मुख्य सूचना अधिकारी है। फोन नंबर की खोज शुरू हुई। वीरभद्र गुप्त ने बड़े सलीके से बात की और नाम लेने भर की देर थी कि उन्हें पहचान भी लिया। पता लगा कि रमणीक भी ज़्यादा दूर नहीं है। वह राष्ट्रीय अभिलेखागार में एक महत्वपूर्ण पद पर लगा हुआ था। वीरभद्र से नंबर मिलते ही उन्होने रमणीक को कॉल किया।

हॅलो के जवाब में एक देहाती से स्वर ने जब उनका नाम, पता, वल्दियत आदि पूछना शुरू किया तो उन्होंने उतावली से अपना संबंध बताते हुए रमणीक को बुलाने को कहा। "मैं र-म-नी-क ही हूंजी!" अगले ने हर अक्षर चबाते हुए कहा, "... लेकिन मैंने आपको पहचाना नहीं।"

नगर, कक्षा, शाला आदि की जानकारी देने में थोड़ा समय ज़रूर लगा, फिर रमणीक को उनकी पहचान हो आई। कुछ देर तक बात करने के बाद उधर से सवाल आया, "लेकन आज हमारी याद कैसे आ गई, इतने दिन के बाद?"

"याद तो हमेशा ही थी, लेकिन संपर्क का कोई साधन ही नहीं था।"

"फिर भी, कोई वजह तो होगी ही ..." रमणीक ने रूखेपन से कहा, "बिगैर मतलब तो कोई किसी को याद नहीं करता!"

[समाप्त]

Sunday, November 25, 2012

एक शाम गीता के नाम - चिंतन

सुखिया सब संसार है खाए और सोये।
दुखिया दास कबीर है जागे और रोये।

ज्ञानियों की दुनिया भी निराली है। जहाँ एक तरफ सारी दुनिया एक दूसरे की नींद हराम करने में लगी हुई है, वहीं अपने मगहरी बाबा दुनिया को खाते, सोते, सुखी देखकर अपने जागरण को रुलाने वाला बता रहे हैं। जागरण भी कितने दिन का? कभी तो नींद आती ही होगी। या शायद एक ही बार सीधे सारी ज़िंदगी की नींद की कसर पूरी कर लेते हों, कौन जाने! मुझे तो लगता है कि कुछ लोग कभी नहीं सोते, केवल मृत्यु उनकी देह को सुलाती है। सिद्धार्थ को बोध होने के बाद किसका घर, कैसा परिवार। मीरा का जोग जगने के बाद कौन सा राजवंश और कहाँ की रानी? बस "साज सिंगार बांध पग घुंघरू, लोकलाज तज नाची।" जगने-जगाने की स्थिति भी अजीब है। जिसने देखी-भोगी उसके लिए ठीक, बाकियों के लिये संत कबीर के ही शब्दों में:

अकथ कहानी प्रेम की कहे कही न जाय।
गूंगे केरी शर्करा, खाए और मुस्काय।।

पतंजलि के योग सूत्र के अनुसार योग का अर्थ चित्तवृत्तियों का निरोध है। अभ्यास तथा वैराग्य के द्वारा उनका निरोध संभव है। बचपन से अपने आसपास के लोगों को जीवन की सामान्य प्रक्रियाओं के साथ ही योगाभ्यास भी करते पाया। सर पर जितने दिन बाबा का हाथ रहा उन्हें नित्य प्राणायाम और त्रिकाल संध्या करते देखा। त्रिकाल संध्या की हज़ारों साल पुरानी परम्परा तो उनके साथ ही चली गयी, उनका मंत्रोच्चार आज भी मन के किसी कोने में बैठा है और यदा-कदा उन्हीं की आवाज़ में सुनाई देता है।
जैसे आदमी पुराने वस्त्र त्याग कर नये ग्रहण करता है, वैसे ही आत्मा एक शरीर छोड़कर दूसरा शरीर धारण कर लेती है। मगर ऐसी सूक्ष्म आत्मा को क्या चाटें ? ऐसी आत्मा न खा-पी सकती है, न भोग कर सकती है, न फिल्म देख सकती है। ~ हरिशंकर परसाई
पटियाली सराय के वे सात घर एक ही परिवार के थे। पंछी उड़ते गए, घोंसले रह गए समय के साथ खँडहर बनने के लिए। पुराने घरों में से एक तो किसी संतति के अभाव में बहुत पहले ही दान करके मंदिर बना दिया गया था। एक युवा पुत्र की मोहल्ले के गुंडों द्वारा हत्या किया जाना दूसरे घर के कालान्तर में खँडहर बनाने का कारण बना। कोई बुलाये से गये, तो कुछ स्वजन स्वयं निकल गए। घर खाली होते गए। इन्हीं में से छूटे हुए एक लबे-सड़क घर के मलबे को मोहल्ले के छुटभय्ये नेता द्वारा अपने ट्रक खड़े करने के लिए हमसार कराते देखता था। जब गर्मियों की छुट्टियों में सात खण्डों में से एक अकेला घर आबाद होता था तब कभी मन में आया ही नहीं कि एक दिन यह घर क्या, नगर क्या, देश भी छूट जायेगा। हाँ, दुनिया छूटने का दर्द तब भी दिल में था। संयोग है कि भरा पूरा परिवार होते हुए भी उस घर को बेचने हम दो भाइयों को ही जाना पड़ा। घर के अंतिम चित्र जिस लैपटॉप में रखे उसकी डिस्क इस प्रकार क्रैश हुई कि एक भी चित्र नहीं बचा।

बाबा रिटायर्ड सैनिक थे। अंत समय तक अपना सब काम खुद ही किया। उस दिन आबचक की सफाई करते समय दरकती हुई दीवार से कुछ ईंटें ऊपर गिरीं, अपने आप ही रिक्शा लेकर अस्पताल पहुँचे। हमेशा प्रसन्न रहने वाले बाबा को जब मेरे आगमन के बारे में बताया गया तो दवाओं की बेहोशी में भी उन्होंने आँख-मुँह खोले बिना हुंकार भरी और अगले दिन अस्पताल के उसी कमरे में हमसे विदा ले ली। दादी एक साल पहले जा चुकी थीं। मैं फिर से कछला की गंगा के उसी घाट पर खड़ा कह रहा था, "हमारा साथ इतना ही था।"

धर्म और अध्यात्म से जितना भी परिचय रहा, बाबा और नाना ने ही कराया। संयोग से उनका साथ लम्बे समय तक नहीं रहा। उनकी अनुपस्थिति का खालीपन आज भी बना हुआ है। जीवन में मृत्यु की अटल उपस्थिति की वास्तविकता समझते हुए भी मेरा मन कभी उसे स्वीकार नहीं सका। हमारा जीवन हमारे जीवन के गिर्द घूमता रहता है। शरीर माध्यम खलु धर्म साधनं। सारा संसार, सारी समझ इस शरीर के द्वारा ही है। जान है तो जहान है। इसके अंत का मतलब? मेरा अंत मतलब मेरी दुनिया का अंत। कई शुभचिंतकों ने गीता पढ़ने की सलाह दी ताकि आत्मा के अमरत्व को ठीक से समझ सकूँ। दूसरा अध्याय पढ़ा तो सर्वज्ञानी कृष्ण जी द्वारा आत्मा के अमरत्व और शरीर के परिवर्तनशील वस्त्र होने की लम्बी व्याख्या के बाद स्पष्ट शब्दों में कहते सुना कि यदि तू इस बात पर विश्वास नहीं करता तो भी - और सर्वज्ञानी का कहा यह "तो भी" दिल में किसी शूल की तरह चुभता है - तो भी इस निरुपाय विषय में शोक करने से कुछ बदलना नहीं है।

जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ।।

एक बुज़ुर्ग मित्र से बातचीत में कभी मृत्यु का ज़िक्र आया तो उन्होंने इसे ईश्वर की दयालुता बताया जो मृत्यु के द्वारा प्राणियों के कष्ट हर लेता है। गीता में उनकी बात कुछ इस तरह प्रकट हुई दिखती है:

मृत्युः सर्वहरश्चाहम् उद्भवश्च भविष्यताम्।
कीर्तिः श्रीर्वाक च नारीणां स्मृतिर्मेधा धृतिः क्षमा॥

मेरे प्रिय व्यक्तित्वों में से एक विनोबा भावे ने अन्न-जल त्यागकर स्वयं ही इच्छा-मृत्यु का वरण किया था। मेरी दूसरी प्रिय व्यक्ति मेरिलिन वॉन सेवंट से परेड पत्रिका के साप्ताहिक प्रश्नोत्तरी कार्यक्रम में किसी ने जब यह पूछा कि संभव होता तो क्या वे अमृत्व स्वीकार करतीं तो उन्होंने नकारते हुए कहा कि यदि जीवनत्याग की इच्छा होने पर भी अमृत्व के बंधन के कारण जीवन पर वह अधिकार न रहे तो वह अमरता भी एक प्रकार की बेबसी ही है जिसे वे कभी नहीं चाहेंगी। अपने उच्चतम बुद्धि अंक के आधार पर मेरिलिन विश्व की सबसे बुद्धिमती व्यक्ति हैं। कुशाग्र लोगों के विचार मुझे अक्सर आह्लादित करते हैं, लेकिन नश्वरता पर मेरिलिन का विचार मैं जानना नहीं चाहता।

सिद्धांततः मैं अकाल-मृत्यु का कारण बनने वाले हर कृत्य के विरुद्ध हूँ। जीवन और मृत्यु के बारे में न जाने कितना कुछ कहा, लिखा, पढ़ा, देखा, अनुभव किया जा चुका है। शिकार, युद्ध, जीवहत्या, मृत्युदंड, दैहिक, दैविक ताप आदि की विभीषिकाओं से साहित्य भरा पड़ा है। संसार अनंत काल से है, मृत्यु होते हुए भी जीवन तो है ही। नश्वरता को समझते हुए, उसे रोकने का हरसंभव प्रयास करते हुए भी हम उसे स्वीकार करते ही हैं। लेकिन यह स्वीकृति और समझ हमारे अपने मन की बात है जो हमारे इस क्षणभंगुर शरीर से बंधा हुआ है। मतलब यह कि हमारी हर समझ, हमारा बोध हमारे जीवन तक ही सीमित है। लेकिन क्या यह बोध है भी? हमने सदा दूसरों की मृत्यु देखी है, अपनी कभी नहीं। कैसी उलटबाँसी है कि अपने सम्पूर्ण जीवन में हम सदा जीवित ही पाए गए हैं। जीवन, मृत्यु, पराजीवन, आदि के बारे में हमारी सम्पूर्ण जानकारी या/और कल्पनाएँ भी हमारे इसी जीवन और शरीर के द्वारा अनुभूत हैं। क्या इस जीवन के बाद कोई जीवन है? चाहते तो हैं कि हो लेकिन चाहने भर से क्या होता है?

हम न मरे मरै संसारा। हमको मिला जियावनहारा।। (संत कबीर)

ब्रह्म सत्यम् जगत मिथ्या। मेरी दुनिया शायद मेरा सपना भर नहीं। मेरे जीवन से पहले भी यह थी, और मेरे बाद भी रहेगी। हाँ, जिस भी मिट्टी से बना मैं आज अपने अस्तित्व के प्रति चैतन्य हूँ वह चेतना और वह अस्तित्व दोनों ही मरणशील हैं। यदि मैं दूसरा पक्ष मानकर यह स्वीकार कर भी लूं कि कोई एक आत्मा वस्त्रों की तरह मेरा शरीर त्यागकर किसी नए व्यक्ति का नया शरीर पहन लेगी तो भी वह अस्तित्व मेरा कभी नहीं हो सकता। क्या वस्त्र कभी किसी शरीर पर आधिपत्य जमा सकते हैं? ईंट किसी घर की मालकिन हो सकती है? कुछ महीने में मरने वाली रक्त-कणिका क्या अपने धारक शरीर की स्वामिनी हो सकती है? वह तो शरीर के सम्पूर्ण स्वरुप को समझ भी नहीं सकती। मेरा अस्तित्व मेरे शरीर के साथ, बस। उसके बाद, ब्रह्म सत्यम् ...

न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावक:।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धामम् परमं मम ॥

(उस परमपद को न सूर्य प्रकाशित करता है, न चन्द्रमा और न अग्नि। जिस लोक को प्राप्त होकर मनुष्य लौटकर संसार में कभी वापस नहीं आता, ऐसा मेरा परमधाम है। (श्रीमद्भागवद्गीता)

जीवन की नश्वरता और कर्मयोग की अमरता की समझ देने के लिए गीता का आभार और आभार उन पूर्वजों का जिन्होंने जान देकर भी, कई बार पीढ़ियों तक भूखे, बेघरबार, खानाबदोश रहकर देस-परदेस भागते-दौड़ते हुए, कई बार अक्षरज्ञानरहित होकर भी अद्वितीय ज्ञान, समझ और विचारों को, इन ग्रंथों को भविष्य की पीढियों की अमानत समझकर संजोकर रखा और अपने घरों में जीवित रखी स्वतंत्र विचार की, वार्ता की, शास्त्रार्थ की, मत-मतांतर और वैविध्य के आदर की, शाकाहार और अहिंसा की, प्राणिमात्र पर दया की अद्वितीय भारतीय परम्परा। धन्य हैं हम कि इस भारतभूमि में जन्मे!

ॐ असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्मामृतं गमय। ॐ शान्ति शान्ति शान्ति।।


स्वामी विवेकानंद के शब्द, येसुदास का स्वर, संगीत सलिल चौधरी का